संत कबीर साहब की वाणी / 05
प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "संतवाणी सटीक" से संत श्री कबीर साहब की वाणी "गुरुदेव के भेद को जीव जानें नहिं...' भजन का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी पढेंगे। जिसे सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज ने लिखा है
सदगुरु कबीर साहब की इस वाणी (कविता, गीत, भक्ति भजन,भजन कीर्तन, पद्य, वाणी, छंद) में गुरु महिमा से संबंधित निम्नांकित बिंदुओं पर प्रकाश डाला गया है। जैसे- गुरु की सेवा, गुरु की महिमा पर अनमोल वचन, आचरण की महिमा, गुरु कविता कोश,शब्द की महिमा, गुरु की सेवा और आज्ञा पालन की महिमा,सद्गुरु की महिमा in Hindi,कबीर दास की ग़ज़लें, Kabir Gyan, कबीर के अनुसार गुरु ने क्या उपकार किया है, साहब से सब होत है, सतगुरु के दोहे, कबीर परमात्मा के दोहे, कबीर का ज्ञान मार्ग, आदि बातें।
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संत कबीर साहब और टीका कार |
संत कबीर साहब जी महाराज कहते हैं कि लोग गुरु की युक्ति को नहीं जानते हैं और अपनी मनमानी करते हैं। जबकि गुरुदेव के आदेशानुसार चलने वाला का परम कल्याण होता है। ( Empathy Of Sadguru ) सद्गगुरु की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए क्या-क्या करना चाहिए । इसे अच्छी तरह समझने के लिए निम्नलिखित पद्य का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है। उसे पढ़े-
॥ मूल पद्य ॥
गुरुदेव के भेद को जीव जानै नहीं , जीव तो आपनी बुद्धि ठानै । गुरुदेव तो जीव को काढ़ि भवसिन्धु तें , फेरि लै सुक्ख के सिन्धु आनै ॥ बंद कर दृष्टि को फेरि अन्दर करै , घट का पाट गुरुदेव खोलै, कहै कबीर तू देख संसार में , गुरुदेव समान कोइ नाहिं तोलै ॥
शब्दार्थ - ठानैै- ठहरावै , ठहराता है । पाट - कपाट , किवाड़ । आन - लाते हैं ।
व्हीलचेयर पर टीकाकार |
पद्यार्थ - गुरुदेव की युक्ति को जीव नहीं जानता है , जीव तो अपनी बुद्धि को ही ठहराता है । गुरुदेव तो जीव को संसार - सागर से निकाल और फेरकर सुख के समुद्र में लाते हैं ।। दृष्टि को बन्द करके ( बाहर से ) फेरकर घर के किवाड़ को गुरुदेव खोलते हैं । कबीर साहब कहते हैं कि ( हे जीव ! ) तू संसार में देख , गुरुदेव के तुल्य दूसरे की मर्यादा नहीं है ।
॥ मूल पद्य ॥
रैन दिन संत यों सोवता देखता , संसार की ओर से पीठि दीये । मन औ पवन फिर फूटि चालै नहीं , चंद औ सूर को सम्म कीये ।। टकटकी चंद चक्कोर ज्यों रहतु है , सुरत औ निरत का तार बाजै । नौबत घुरत है रैन दिन सुन्न में , कहै कबीर पिउ गगन गाजै ॥
शब्दार्थ -सम्म ( सम ) -बराबर । निरत - अतिशय अनुरक्त , किसी कार्य में लगा हुआ । घुरत - शब्द करता है , बजता है । गाजै - शब्द करता है , गर्जन करता है ।
पद्यार्थ - संत दिन - रात इस तरह सोये देखे जाते हैं कि वे संसार की ओर पीठ दिये रहते हैं अर्थात् संसार की सुधि भूले हुए रहते हैं । वे चन्द्र और सूर्य को अर्थात् इड़ा और पिंगला को बराबर रखते हैं अर्थात् उन दोनों की धारों को एक तल एक विन्दु पर रखते हैं । उनका मन और पवन फूट करके नहीं चलता है । चन्द्रमा में चकोर की टकटकी की तरह उनकी टकटकी रहती है , सुरत और अत्यन्त अनुरक्ति का तार उनका बजता रहता है । कबीर साहब कहते हैं कि प्रभु की आकाशी गर्जना की नौबत दिन - रात शून्य में बजती रहती है । ( संत का उपर्युक्त सुरत और निरत का तार इसी शब्द से सदा युक्त रहता है । )इति।
संत कबीर साहब इस भजन के बाद वाले भजन को भावार्थ सहित पढ़ने के लिए यहां दवाएं।
प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के भारती पुस्तक "संतवाणी सटीक" के इस लेख का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि गुरु की सेवा, गुरु की महिमा पर अनमोल वचन, आचरण की महिमा, गुरु कविता कोश,शब्द की महिमा, गुरु की सेवा और आज्ञा पालन की महिमा। कबीर साहब के अनुसार गुरु-भक्ति करना कितना आवश्यक हैं । इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। निम्न वीडियो में उपर्युक्त लेख का पाठ करके सुनाया गया है।
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कबीर वाणी 05 । Empathy Of Sadguru । गुरुदेव के भेद को जीव जानें नहिं । भजन भावार्थ सहित
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
6/24/2020
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