गुरु नानक साहब की वाणी / 29
इस भजन (कविता, गीत, भक्ति भजन, पद्य, वाणी, छंद) में बताया गया है कि- पूरे एवं सच्चे सद्गुरु कब मिलते हैं? बिना सतगुरु की शरण गए जीव का उद्धार हो सकता है? गुरु भक्ति से शिष्य का अहंकार दूर होता है। किसके हृदय में अंतर ज्योति प्रकट होती है? प्रभु भक्ति में किसका मन रमता है? कौन गुरु की बानी गाता रहता है? सच्चा गुरुमुख किन-किन चीजों को पाता है? किसका मन बस में होता है? कौन सदा आनंदित रहता है? इन बातों की जानकारी के साथ-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान पायेंगे। जैसे कि- अज्ञान रूपी अंधकार को मिटा सकता है गुरु गुरु कब बनाना चाहिए, हनुमान जी को अपना गुरु कैसे बनाएं, शिव को गुरु कैसे बनाये, गुरु दीक्षा विधि, गुरु कैसे बनाते हैं, गुरु कैसे बनाना चाहिए, गुरु की आवश्यकता क्यों है, गुरु बनाना क्यों जरूरी है, सच्चा गुरु किसे कहते हैं, गुरु बनाने के फायदे, गुरु कैसा होना चाहिए, सच्चा गुरु कैसा होना चाहिए,गुरु बनाने के नियम, गुरु मंत्र के फायदे, भगवान शिव को गुरु बनाने का तरीका, गुरु बनाने के लिए क्या करना चाहिए, आदि बातें। इन बातों को जानने के पहले, आइए ! सदगुरु बाबा नानक साहब जी महाराज का दर्शन करें।
इस भजन के पहले वाले भजन ''जे सउ चंदा उगवहि......'' को भावार्थ सहित पढ़ने के लिए यहां दबाएं।
Why is it important to make a master
सदगुरु बाबा नानक साहब जी महाराज कहते हैं कि- "When do complete and true Sadhguru meet? Can a creature without refuge of Satguru be saved? The disciple's ego is removed by Guru devotion. In whose heart does the difference light appear? Whose mind is full of devotion? Who keeps singing the Guru's words? What things does a true Gurmukh get? Whose mind is in the bus? Who is always happy?... " इसे अच्छी तरह समझने के लिए गुरु वाणी का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है; उसे पढ़ें-
॥ रागु माझ , महला ३ , घरु १॥ ( शब्द १ )
करमु होवै सतिगुरू मिलाए , सेवा सुरति सबदि चितु लाए । हउमै मारि सदा सुखु पाइआ , माइआ मोह चुकावणिआ ॥१ ॥ हउ वारी जीउ वारी , सतिगुर कै बलिहारणिआ । गुरमती परगासु होआ जी , अनदिनु हरि गुण गावणिआ ॥रहाउ । तनु मनु खोजे ता नाऊ पाए । धावतु राखै ठाकि रहाए । गुर की वाणी अनुदिनु गावै , सहजे भगति करावणिआ ॥२ ॥ इसु काइआ अंदरि वसतु असंखा । गुरमुखि साचु मिलै ता वेखा । नउ दरवाजे दसवै मुकता , अनहद शबद बजावणिआ ॥३ ॥ सचा साहिबु सची नाई । गुरपरसादी मंनि बसाई । अनुदिनु सदा रहै रंगि राता , दरि सचै सोझी पावणिआ ॥४ ॥ पाप पुन की सार न जाणी । दूजै लागी भरमि भुलाणी । अगिआनी अंधा मगु न जाणै । फिरि फिरि आवण जावणिआ ॥५ ॥ गुर सेवा ते सदा सुख पाइआ । हउमै मेरा ठाकि रहाइआ । गुर साखी मिटिआ अंधिआरा , बजर कपाट खुलावणिआ ॥६ ॥ हउमै मारि मंनि वसाइआ । गुर चरणी सदा चितु लाइआ । गुर किरपा ते मनु तनु निरमलु , निरमल नाम धिआवणिआ ॥७ ॥ जीवणु मरण सभु तुधै भाई । जिसु बखसे तिसुदे बडिआई । नानक नाम धिआइ सदा तूं , जमणु मरणु सवारणिआ ॥८ ॥
शब्दार्थ - करमु - करम , दया , कृपा । ( यहाँ प्रयुक्त ' करम ' शब्द अरबी भाषा का है । ) चुकावणिआ नष्ट किया । हउ , हउमै अहंकार । वारी - निछावर करके । जीउ- जीव , हृदय । गुरमती - गुरु - ज्ञान में या गुरु - बुद्धि के अनुकूल बरतनेवाला । परगासु - प्रकाश । अनुदिन - प्रत्येक दिन , सदा । नाऊ - नाम । ध वितु - चंचलता , चलायमान ( मन ) । ठाकि - ठहरा । असंखा - असंख्य । ता - उसको । वेखा - देखा । मुक्ता मुक्त करके , खोलकर । नाई - नाम । मंनि - मन । बसाई - वश करता है , बसाता है । राता - लीन । सोझी - सूझ , समझ । सार - फर्क , अंतर , विवेक , समझ । दूजै लागी द्वैत में लगकर । मग - रास्ता । हउमै मेरा - मैं - मेरा , अहंकार और आसक्ति । तुधै - तुझको । बखसे दया करके देता है । बडिआई- बड़प्पन । जमणु - जन्म । सवारणिआ सँभाल ले , समेट ले , समाप्त कर दे । साखी - साक्षी , गवाह , वचन , प्रकाश ( ' अंतरि जोति भई गुरु साखी , चीने राम करंमा ।'- महला १ ) ।
भावार्थ - जब परमात्मा की दया होती है , तब वे पूरे सद्गुरु से मिलाते हैं । सद्गुरु से लगाव हो जाने पर जीव उनकी सेवा में अपना ख्याल जोड़ता है ; उनके उपदेश को मन में धारण करता है ; अहंकार को मारकर सदा सुख पाता है और माया - मोह को नष्ट कर देता है ॥१ ॥ जो अपने अहंकार और हृदय को सद्गुरु के चरणों में निछावर कर देता है , गुरु बुद्धि के अनुकूल चलनेवाले उस शिष्य के हृदय में प्रकाश प्रकट हो आता है ; वह सदा हरि का गुणगान करता है ॥१ ॥ रहाउ । जो अत्यन्त संलग्नता से अपने शरीर और हृदय में खोजता है , वह परमात्मा का आदिनाद पाता है , जिससे वह चलायमान मन की रक्षा करता है ( चंचल मन को विषयों की ओर जाने से रोक रखता है ) -मन को ठहराकर ( स्थिर करके ) रखता है या उसका मन स्थिर होकर रहता है । वह सदा गुरु की वाणी गाता है ( वह सदा गुरुनाम - आदिनाम को सुनता है या उसका ध्यान करता है ) और स्वाभाविक रूप से भक्ति करता है ॥२ ॥ इस शरीर के अंदर असंख्य वस्तुएँ हैं । सच्चे गुरुमुख शिष्य को वे वस्तुएँ मिलती हैं ; वही उन वस्तुओं को देखता है । शरीर में नौ द्वार हैं । दसवें गुप्त द्वार को खोलकर अनहद नादों को वह बजाता है अर्थात् प्रत्यक्ष रूप से सुनता है ॥३ ॥ मालिक ( परमात्मा ) सत्य है , उसका नाम भी सत्य है । गुरु की कृपा से उस नाम से मन वशीभूत होता है या गुरु की कृपा से शिष्य उस नाम को मन में बसा लेता है ; सदा नाम के रंग में रंगा हुआ रहता है ( नाम - ध्यान से मिलनेवाले आनंद में सदा लीन रहता है ) ; सच्चे परमात्मा के द्वार ( दशम द्वार ) की सूझ वह पाता है।।४ ।। पाप - पुण्य में सार ( कर्त्तव्य कर्म ) क्या है , यह लोग नहीं जानते हैं । लोग द्वैतमय संसार में लगकर अज्ञानता से परमात्मा को भूले हुए रहते हैं । अंधे अज्ञानी लोग परमात्मा को पाने का मार्ग नहीं जानते हैं , इसलिए बार - बार संसार में उनका आना - जाना लगा रहता है ।५ ॥ शिष्य गुरु - सेवा से सुख पाता है और अहंकार को गँवाकर मन को स्थिर रखता है । गुरु की साखी ( वचन , युक्ति , अंत : प्रकाश ) से अंधकार मिट जाता है - वज्र - सा कठोर अंधकार का किवाड़ खुल जाता है।।६ ॥ शिष्य अहंकार और आसक्ति को नष्ट करके मन को वश करता है और गुरु के चरणों में सदा चित्त लगाये रखता है । गुरु की कृपा से उसका मन तथा शरीर शुद्ध हो जाता है और निर्मल नाम ( त्रय गुण - रहित चेतन शब्द - आदिनाद ) का वह ध्यान करता है।।७ ॥ जन्म और मरण - सब कुछ उसको अच्छा लगने लगता है । परमात्मा जिसपर दया करता है , उसे बड़ाई ( बड़प्पन ) देता है । गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं कि तू सदा नाम का ध्यान कर और जन्म - मरण को सँभाल ले ( समेट ले - समाप्त कर दे ) ॥८ ॥ ॥
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संतवाणी-सुधा सटीक |
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