P30 || भजु मन सतगुरु सतगुरु सतगुरु जी भजन भावार्थ सहित || Santmat Weekly Guru Kirtan

महर्षि मेँहीँ पदावली / 30   

      प्रभु प्रेमियों ! संतवाणी अर्थ सहित में आज हम लोग जानेंगे- संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "महर्षि मेँहीँ पदावली" जो हम संतमतानुयाइयों के लिए गुरु-गीता के समान अनमोल कृति है। इसी कृति के 30 वें पद्य  "भजु मन सतगुरु, सतगुरु, सतगुरु जी।....''  का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी के  बारे में। जिसे पूज्यपाद लालदास जी महाराज नेे किया है। महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर-3, बिहार एवं अन्य सत्संग स्थलों पर प्रत्येक रविवार को इस पद का करतल ध्वनि के साथ गायन किया जाता है।

पदावली भजन नंबर 29 "सद्गुरु दरस देनहित आए..." को शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित पढ़ने के लिए  👉  यहां दबाएं

P30  भजु मन सतगुरु सतगुरु  सतगुरु जी  भजन
गुरु-कीर्तन करते हुए सद्गुरुदेव और टीकाकार

Satmat Satsang Weekly Guru Kirtan- भजु मन सतगुरु, सतगुरु, सतगुरु जी 

     प्रभु प्रेमियों ! सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज  इस गुरु कीर्तन  ( कविता, पद्य, वाणी ) में कहते हैं कि- "सतगुरु  कैसे होते हैं? उनकी महिमा अपार क्यों है? कोई भी व्यक्ति उनकी महिमा का गुणगान करते हुए अघाता क्यों नहीं है? उनकी अपार महिमा कैसा  है ?"  इस पद्य को संतमत सत्संग के सप्ताहिक सत्संग में आरती के पहले करतल ध्वनि के साथ गाया जाता है।  इस भजन को अच्छी तरह समझने के लिए इसका शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है, आइये उसी से अन्य बातों को भी मनोयोग पूर्वक पढ़ते हुए समझते हैं-


महर्षि मेँहीँ पदावली : शब्दार्थ , भावार्थ और टिप्पणी सहित

( 30 ) 
     भजु मन सतगुरु सतगुरु सतगुरु जी ॥ १ ॥  जीव चेतावन हंस उबारन , 
      भव भय टारन सतगुरु जी | भजु ०॥ २ ॥  भ्रम तम नाशन ज्ञान प्रकाशन , 
       हृदय विगासन सतगुरु जी | भजु ०॥ ३ ॥ आत्म अनात्म विचार बुझावन , 
        परम सुहावन सतगुरु जी |भजु ०॥ ४ ॥  
सगुण अगुणहिं अनात्म बताबन, 
      पार आत्म कहैं सतगुरु जी  सतगुरु जी | भजु ०॥ ५ ॥  
मल अनात्म ते  सुरत छोड़ावन, 
                         द्वैत मिटावन सतगुरु जी | भजु ० ॥ ६ ॥ 
पिण्ड ब्रह्माण्ड के भेद बतावन , 
                      सुरत छोड़ावन सतगुरु जी | भजु ० ॥ ७ ॥  
गुरु - सेवा सत्संग  दृढ़ावन,  
                         पाप निषेधन सतगुरु जी | भजु ० ॥ ८ ॥ 
सुरत शब्द- मारग दरसावन, 
                             संकट टारन सतगुरु जी |भजु ०॥ ९ ॥  
ज्ञान विराग विवेक के दाता , 
                        अनहद राता सतगुरु जी | भजु ० ॥ १० ॥ 
अविरल भक्ति विशुद्ध के दानी , 
                       परम विज्ञानी सतगुरु जी | भजु ० ॥ ११ ॥  
प्रेम दान दो प्रेम के दाता , 
                         पद राता रहें सतगुरु जी | भजु ० ॥ १२ ॥  
निर्मल युग कर जोड़ि के विनवौं , 
                  घट - पट खोलिय सतगुरु जी | भजु ० ॥ १३ ॥ 

शब्दार्थ--

बाबा लालदास जी महाराज, शब्दार्थ भावार्थ और टिप्पणी लिखने वाले संत
शब्दार्थकार--संत बाबा लालदास जी

भजु = भजो , भक्ति करो , सुमिरन करो । चेतावन = चेतानेवाला , सद्ज्ञान या उपदेश देनेवाला , जगानेवाला , मोह भंग करनेवाला , अज्ञान दूर करनेवाला ; सचेत , सजग या सावधान करनेवाला । हंस = जीवात्मा ; देखें- “ धन को गिने निज तन न सहाई , तुम हंसा एक एका । " ( ११२ वाँ पद्य ) भव - भय = जन्म - मरण का दुःख , संसार का दुःख , त्रय ताप । भ्रम तम = अज्ञान - अंधकार , मिथ्या ज्ञानरूपी अंधकार । ज्ञान प्रकाशन = सद्ज्ञान प्रकाशित या प्रकट करनेवाला , अच्छी शिक्षा देनेवाला । हृदय विगासन = हृदय का विकास करनेवाला , हृदय का विस्तार करनेवाला , हृदय को विशाल- उदार बनानेवाला । अनात्म ( अन् + आत्म ) = जो आत्मतत्त्व ( परमात्मतत्त्व ) नहीं है , जो आत्मतत्त्व से भिन्न है , जो परम अविनाशी नहीं है , चेतन और जड़ प्रकृति के समस्त मंडल । परम सुहावन = परम सुहावना , देखने में बड़ा अच्छा लगनेवाला । सगुण = त्रय गुणों से बना हुआ , जड़ात्मक प्रकृति मंडल । अगुण = निर्गुण , त्रय गुण - रहित , निर्मल , चेतन मंडल , चेतन प्रकृति । मल = मैल , दोष , विकार , पाप , असार , असत्य । टारन = टालनेवाला , दूर करनेवाला , नष्ट करनेवाला । पिंड = शरीर , शरीर का दोनों आँखों से नीचे का भाग । ब्रह्मांड = बाहरी जगत् , शरीर का दोनों आँखों से ऊपर का भाग । द्वैत = परमात्मा और जीवात्मा के बीच का अन्तर , सृष्टि की विविधता का ज्ञान । पाप निषेधन = पाप कर्मों से विरत करनेवाला , पाप कर्म करने से रोकनेवाला , पाप कर्म करने की मनाही करनेवाला , पापों के संस्कारों को मिटानेवाला । ज्ञान = सच्चा ज्ञान , अध्यात्म - ज्ञान ।विराग = वैराग्य , लोक - परलोक के पदार्थों और सुखों में आसक्त न होने का भाव । विवेक = उचित - अनुचित को समझने की बुद्धि की शक्ति । राता = रत करनेवाला , अनुरक्त करनेवाला , संलग्न करनेवाला , लीन करनेवाला , अनुरक्त रहनेवाला , संलग्न रहनेवाला , लीन रहनेवाला ; देखें- " मनुआँ असथिरु सबदे राता , एहा करणी सारी । " ( गुरु नानकदेवजी ) अविरल भक्ति =  अनपायिनी भक्ति , अटूट भक्ति , सदा एक समान बनी रहनेवाली भक्ति । ( अविरल = घना , सघन , निरन्तर, लगातार, अटूट। रामचरितमानस , अरण्यकांड में भी ' अविरल भक्ति ' का प्रयोग हुआ है। देखें - ' अविरल भक्ति माँगि बर , गीध गयउ हरिधाम । ' ) परम विज्ञानी = जिन्होंने परम विज्ञानस्वरूप परमात्मा को पा लिया हो , पूर्ण विज्ञानी , पूर्ण अनुभव और पूर्ण समता प्राप्त व्यक्ति । राता =  रत , अनुरक्त , लगा हुआ , लीन , प्रेमी ; देखें- “ अस विवेक जब देइ विधाता । तब तजि दोष गुनहिं मनु राता ॥ " ( मानस , बालकांड ) कर = किरण , प्रकाशमयी दृष्टि धार । संकट = विपत्ति , आफत , दुःख , कष्ट । दरसावन = दरसानेवाला , दिखानेवाला , बतानेवाला । दृढ़ावन = दृढ़ करनेवाला , मजबूत करनेवाला । बुझावन = बुझानेवाला , समझानेवाला । युग - जोड़ा , दोनों । घट - पट = शरीर के अन्दर जीवात्मा पर पड़े हुए तीन आवरण - अंधकार , प्रकाश और शब्द ।  ( अन्य शब्दों की जानकारी के लिए "संतमत+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोश" देखें )


भावार्थ - 

     हे मेरे मन ! ' सद्गुरु ' शब्द का नित सुमिरन करो अथवा सद्गुरु की नित भक्ति करो ॥१ ॥ 

    सद्गुरु जीवों को सद्ज्ञान देनेवाले , उनका उद्धार करनेवाले और उनके जन्म - मरण के दुःखों को मिटा डालनेवाले हैं ॥२ ॥ 

     सद्गुरु भक्तों के मिथ्या ज्ञानरूपी अंधकार को विनष्ट करनेवाले , हृदय में सच्चे ज्ञान को प्रकट करनेवाले और हृदय का विकास ( विस्तार ) करनेवाले हैं ॥३ ॥ 

      आत्मतत्त्व ( परम तत्त्व - परमात्मतत्त्व ) और अनात्म तत्त्व ( विनाशशील तत्त्व , माया ) का विचार ( ज्ञान , अन्तर ) समझानेवाले . सद्गुरु देखने में बड़े अच्छे लगते हैं ॥४ ॥ 

सद्गुरु सगुण ( जड़ प्रकृति के समस्त मडा ) और निर्गुण ( चेतन प्रकृति ) को अनात्म तत्त्व बतलाते हैं और कहते हैं कि इन दोनों ( सगुण और निर्गुण ) के पार में है ॥५ ॥ 

     सद्गुरुजी असार अनात्म तत्वों के फैसाब से सुरत ( चेतनवृत्ति ) को छुड़ानेवाले और द्वैत भाव ( जीवात्मा और परमाला के बीच के अन्तर या सृष्टि की विविधता के ज्ञान ) को मिटानेवाले हैं ॥६ ॥

     गुरुजी पिंड ( शरीर ) तथा ब्रह्माण्ड ( बाह्य जगत् ) का भेद ( अंतर , रहस्य ) बतलानेवाले और पिंड तथा ब्रह्मांड के फँसाव से सुरत को छुड़ानेवाले हैं ॥७ ॥ 

     सद्गुरु गुरुसेवा तथा सत्संग के प्रति हृदय में प्रेम भाव को मजबूत करनेवाले और पापों से बचानेवाले हैं ॥८ ॥ 

      सद्गुरु जीवों को सुरत - शब्दयोग ( नादानुसंधान ) की युक्ति बतलानेवाले और उनकी विपत्ति को दूर करनेवाले हैं ॥९ ॥ 

     गुरु ज्ञान , वैराग्य तथा चित - अनुचित का विचार देनेवाले और अनहद नाद या अनाहत नाद संलग्न करानेवाले हैं अथवा अनाहत नाद में सतत अनुरक्त ( संलग्न ) रहनेवाले सद्गुरु ) ज्ञान , वैराग्य और उचित - अनुचित का विचार देनेवाले हैं ॥१० ॥ 

     परम विज्ञानी ( परम विज्ञानस्वरूप परमात्मा को पाये हुए या पूर्ण अनुभव और पूर्ण समताप्राप्त ) सद्गुरु सदा एक समान स्थिर रहनेवाली विशुद्ध भक्ति के दान करनेवाले हैं ॥ ११॥ 

      हे प्रेम भाव के दान करनेवाले सद्गुरुजी ! आप मुझे प्रेम भाव का दान दीजिये , जिससे मैं आपके श्रीचरणों का सदा प्रेमी बना रहूँ ॥ १२॥ 

      हे सद्गुरुजी ! मैं अपनी दोनों दोष - रहित दृष्टिधारों को निर्दिष्ट स्थान पर जोड़कर - एक बनाकर आपकी भक्ति करता हूँ अर्थात् मैं मानस जप और मानस ध्यान के द्वारा अपनी दोनों दृष्टिधारों को दोष - रहित करके एवं उन्हें निर्दिष्ट स्थान पर जोड़कर आपके ज्योतिर्मय विन्दुरूप की भक्ति करता हूँ ; आप मेरे शरीर के अंदर के तीनों पद ( अंधकार , प्रकाश और शब्द ) को हटा दीजिये || १३ ॥ 

 टिप्पणी- 

पूज्य संत श्री लालदास जी महाराज, पदावली भजन 30 के शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणीकार
टिप्पणीकार- बाबालालदासजी

१. साँस ( श्वास - प्रश्वास ) के साथ सोहं अथवा हंसः जैसी ध्वनि अपने आप होती रहती है ; क्योंकि साँस ( श्वास ) छोड़ने पर हं जैसी और साँस ( प्रश्वास ) लेने पर सो या सः जैसी ध्वनि होती है । इस तरह सोहं या हंसः आने और जानेवाली साँस ( श्वास - प्रश्वास ) का बोध कराता है । जीवात्मा और श्वास में विशेष संबंध है । जब तक जीवात्मा शरीर में रहता है , तबतक साँस चलती रहती है और जब जीवात्मा शरीर से निकल जाता है , तब साँस भी बन्द हो जाती है । किसी की साँस बन्द हो जाने पर दूसरा व्यक्ति चट समझ लेता है कि उसके शरीर से जीवात्मा निकल गया । इस तरह ' साँस ' लोगों में ' जीवात्मा ' के पर्याय के रूप में प्रचलित हो गया और इसीलिए जीवात्मा सोहं और हंसः या हंस भी कहा जाने लगा ; देखें- “ सोहं हंसा एक समान । काया के गुण आनहिं आन ॥ " ( सन्त कबीर साहब ) “ जीव सोहंगम दूसर नाहीं । जीव सो अंस पुरुष का आहीं ॥ " ( अनुराग - सागर ) पुनः हंस एक पक्षी का नाम बताया जाता है और कहा जाता है कि वह मानसरोवर में रहता है । जैसे कोई जल - पक्षी किसी सरोवर में कल्लोल करता है और जब इच्छा हो है , तब उस सरोवर को छोड़कर दूसरे सरोवर में चला जाता है , उसी प्रकार जीवात्मा किसी शरीर में कुछ दिनों तक रहने के बाद उसे छोड़कर दूसरे शरीर में चला है । इसलिए भी जीवात्मा को ' हंस ' कहा जाता । 

२. किसी के हृदय का विकास होना तब माना जाएगा , जब वह सब प्राणियों को आत्मवत् जानने लगे । 

३. " परम प्रभु के निज स्वरूप को ही आत्मा वा आत्मतत्त्व कहते हैं और इस तत्त्व के अतिरिक्त सभी अनात्म तत्त्व हैं । " ( सत्संग - योग , चौथा भाग , अनुच्छेद १७ ) 

४. पिंड और ब्रह्माण्ड का भेद सद्गुरु इस प्रकार बतलाते हैं प्राणियों के शरीर को पिंड कहते हैं और बाह्य जगत् को ब्रह्मांड | पिंड जितने तत्त्वों से बना हुआ है , ब्रह्मांड भी उतने ही तत्त्वों से बना हुआ है । ब्रह्मांड पाँच मंडलों ; जैसे स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण और कैवल्य से भरपूर है , पिंड भी इन पाँच मंडलों से परिपूर्ण है । हम पिंड के जिस मंडल में जब रहते हैं , ब्रह्मांड के भी उसी मंडल में तब रहते हैं अथवा पिंड के जिस मंडल को जब छोड़ते हैं , ब्रह्मांड के भी उस मंडल को तब छोड़ते हैं । पिंड ब्रह्मांड का घु रूप है । जो कुछ ब्रह्मांड में है , वह सब पिंड में भी है । पिंड और ब्रह्मांड - दोनों में एक ही सारतत्त्व परमात्मा अंशरूप से व्यापक है । 

५. सबमें एक ही ब्रह्म का दरसना ज्ञान है ; जैसे मिट्टी के विभिन्न बर्त्तनों में नाम - रूप - सहित समान मिट्टी का दिखाई पड़ना । विविधता का नहीं दिखाई पड़ना , केवल ब्रह्म - ही - ब्रह्म दरसना विज्ञान है ; जैसे मिट्टी के विभिन्न बर्त्तनों के नाम - रूप नहीं दीखकर केवल मिट्टी - ही - मिट्टी का दिखाई पड़ना । इसलिए पूर्ण समता प्राप्त व्यक्ति ही विज्ञानी कहला सकता है । पूर्ण समता पूर्ण आत्मज्ञान होने पर ही प्राप्त होती है । रामचरितमानस , उत्तरकांड में राम ( परब्रह्म ) को विज्ञानरूप कहा गया है ; यथा- सोइ सच्चिदानन्द घन रामा । अ विज्ञानरूप बलधामा || " इसलिए ' विज्ञानी ' का अर्थ ' विज्ञानस्वरूप परमात्मा को प्राप्त किया हुआ व्यक्ति ' भी करना अनुचित नहीं है । 

६. विषयों के बारंबार चिन्तन से मन अशुद्ध हो जाता है । मानस ध्यान बन जाने पर मन - सह सुरत शुद्ध हो जाती है – “ सतगुरु को धरि ध्यान , सहज स्रुति शुद्ध करी । ” ( ६५ वाँ पद्य ) सुरत के शुद्ध हो जाने पर दृष्टि भी निर्मल हो जाती है । निर्मल दृष्टि में विकारोत्पादक दृश्य देखने की ललक नहीं होती । 

७. ३० वें पद्य के प्रथम चरण में १८ मात्राएँ हैं , २४ पद्यों में ' मेँहीँ ' नाम नहीं जुड़ा हुआ ह चरण ताटंक के हैं । है । ∆


आगे है-

( 31 ) 

सतगुरु जी से अरज हमारी ॥ टेक ॥ 
मैं एक दीन मलीन कुटिल खल, सिर अघ पोट है भारी । कामी क्रोधी परम कुचाली , हूँ कुल अघन सम्हारी ॥ अधम मो ते नहिं भारी ॥ १ ॥ सुनत कठिनतर गति अधमन की, काँपत हृदय हमारी । कवन कृपालु जो अधम उधारें , जहँ तहँ करउँ पुछारी
।।.... 


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Santmat  Weekly Guru Kirtan

Santmat  Weekly Guru Kirtan१

Santmat  Weekly Guru Kirtan२

Santmat  Weekly Guru Kirtan३



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P30 || भजु मन सतगुरु सतगुरु सतगुरु जी भजन भावार्थ सहित || Santmat Weekly Guru Kirtan P30 || भजु मन सतगुरु सतगुरु  सतगुरु जी  भजन भावार्थ सहित || Santmat  Weekly Guru Kirtan Reviewed by सत्संग ध्यान on 1/08/2018 Rating: 5

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