महर्षि मेँहीँ पदावली / आरती 1
तुलसी साहब |
शब्दार्थ-
भावार्थ -
( सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के शब्दों में ) –
“ सद्गुरु के संग प्रभु परमात्मा की आरती कीजिये और अंतर में ज्योति होती है , उसे देख लीजिये ॥१ ॥
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ |
तन के पाँच तत्त्वों की अग्नि को जला , दीपक बालकर प्रकाश कर लीजिये । इसका तात्पर्य यह है कि ध्यान अभ्यास करके पाँच तत्त्वों के भिन्न - भिन्न रंगों के प्रकाशों को देखिये और इसके अनन्तर दीपक - टेम की ज्योति का भी दर्शन कीजिये ॥२ ॥
शून्य के थाल में सूर्य और चन्द्र फल - फूल हैं और इस पूजा के मूल या आरंभ में कपूर अर्थात् श्वेत ज्योतिर्विन्दु का कलश स्थापन कीजिये ॥३ ॥
अंतराकाश में दर्शित सब तारे - रूप मोतियों का अच्छत ( अरवा चावल , जिसका नैवेद्य पूजा में हैं ) और ऊपर कथित फूलों का हार गूंथकर हृदय में पहन लीजिये अर्थात् अपने अंदर में उन फूलों का सप्रेम दर्शन कीजिये || ४ ||
पान , मिठाई , मिष्टान्न , चंदन , धूप और दीप- सब के सब उजले यानी प्रकाश हैं ॥५ ॥
झलक अर्थात् प्रकाश में झाँझ , मजीरा और मृदंग की मीठी ध्वनियों को मीन - मन से अर्थात् भाठे से सिरे ( नीचे से ऊपर स्थूल से सूक्ष्म ) की ओर चढ़नेवाले मन से सुनिये ॥६ ॥
शरीर में बिखरी हुई सुरत की सब धाररूप सुगंध आकाश में उठती हुई चलती है और उस मंडल में वह भ्रमर - सदृश खेलती हुई अनहद ध्वनि से संतुष्ट होती है || ७ ||
शरीर के अंदर ज्योति जलती है । दृष्टि से दर्शन होते ही सब दोष नाश को प्राप्त होते हैं ॥८ ॥
अधर ( आकाश ) की धारा में अमृत बहकर आता है , उस धारा में सत्य धर्म के द्वार पर आरती करनेवाला अभ्यासी अमर - रस में भींजता है ॥९ ॥
उस अमर - रस को पीकर सुरत मस्त होती है और विशेष - से - विशेष चढ़ाई करके और उल्लसित होकर अमृत - रस में रीझती है | ॥ १०॥
करोड़ों सूर्य के सदृश प्रकाशमान सौंदर्य प्रकाशित है , अलख ( सारशब्द ) के पार ( शब्दातीत पद ) को लखकर संबंध लगा लीजिये || ११ ||
सुरत को क्षण - क्षण अधर पर रक्खे , तो गुरु प्रसाद से अगम रस पीवै || १२ ||
तुलसी साहब कहते हैं कि गुरुधाम ( परम पुरुष पद ) चमकता हुआ ध्वनित होता है । हे सुरत ! तुम अलल पक्षी की भाँति उलटकर अर्थात् बहिर्मुख से अंतर्मुख होकर तीनों शरीरों को छोड़ दो ॥१३ ॥ "
टिप्पणी -
टिप्पणीकार- बाबा लालदास |
१. मीन भाटे से सिरे की ओर चढ़ जाता है । जो मन दृष्टियोग के अभ्यास के द्वारा पिंड ( नीचे स्थूलता ) से ब्रह्मांड ( ऊपर - सूक्ष्मता ) में पहुँच जाता है , वही ' मन - मीन ' अर्थात् मीनवृत्तिवाला मन है ; वही प्रकाश मंडल में होनेवाली ध्वनियों को सुन पाता है ।
२. कबीर पंथ की एक पुस्तक ' अनुराग - सागर ' के अनुसार , अलल पक्षी आकाश में बहुत ऊँचाई पर अंडा देता है । वह अंडा नीचे गिरते - गिरते फूट जाता है , उससे बच्चा निकल आता है । नीचे गिरते - गिरते ही उस बच्चे की आँखें खुल जाती हैं और पंख उग आते हैं , तब वह उलटकर अपनी माता के पास चला जाता है ।
३. बाहर में पूजा करने के लिए थाल , प्रज्वलित दीपक , फल - फूल , कलश , अच्छत , पुष्पमाल , पान , मिष्टान्न , मिठाई , चंदन , धूप और झाँझ , मजीरे , मृदंग वाद्य यंत्रों के वादन की व्यवस्था करनी पड़ती है ; परंतु दृष्टियोग के द्वारा अंतर्मुख हुए साधक के लिए बाह्य पूजा की इन सब चीजों का कोई अर्थ नहीं रह जाता । संत तुलसी साहब ने अपनी इस आध्यात्मिक आरती में यही बतलाया है ।
४. आरती के इस पद्य के प्रत्येक चरण में ३२ मात्राएँ हैं ; १६-१६ पर यति और अन्त में दो गुरु वर्ण । ∆
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