P07 || श्री सद्गुरु की सार शिक्षा का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी || संतमत सत्संग की प्रातःकालीन स्तुति-प्रार्थना
महर्षि मेँहीँ पदावली / 07
श्री सद्गुरू की सार शिक्षा की विशेषता क्या है?
शब्दार्थ -
शब्दार्थकार-- बाबा लालदास |
भावार्थकार- संतजी |
मृगजल ( मरुभूमि में सूर्य की तीक्ष्ण किरणों के आधार पर दूर में प्रतीत होनेवाले जलाशय ) की भाँति सबकुछ ( सारा संसार ) झूठा है और पंच विषयों के सुख परिणाम में दु ख देनेवाले हैं । संसार के पंच विषयों से अपनी सुरत को हटाकर ईश्वर - भक्ति में लगाना । चाहिए ॥२ ॥
जो इन्द्रियों के ग्रहण में नहीं आनेयोग्य , सर्वव्यापक ( समस्त प्रकृति - मंडलों में अंश - रूप से फैला हुआ ) और व्याप्य से परे ( समस्त प्रकृति - मंडलों से बाहर , सर्वव्यापकता के परे ) अपरिमित रूप से विद्यमान है , उस अजन्मा और आदि - अन्त - रहित परमात्मा से प्रेम करना चाहिये ॥३ ॥
जैसे घटाकाश ( घड़े के अन्दर का आकाश ) और मठाकाश ( घर के अन्दर का आकाश ) महदाकाश ( बड़े आकाश , आवरण - रहित विस्तृत आकाश ) के अटूट अंश हैं , उसी तरह जीवात्मा परमात्मा का अटूट अंश है । जैसे घट - मठरूप आवरणों के हट जाने पर घटाकाश और मठाकाश महदाकाश के अंश नहीं कहलाकर महदाकाश ही कहलाने लगते हैं , उसी तरह शरीर - रूप आवरणों के हट जाने पर जीवात्मा भी परमात्मा का अंश न कहलाकर परमात्मा ही कहलाने लगता है ।।४ ।।
जड़ और चेतन - ये दोनों प्रकृतियाँ परम प्रभु परमात्मा की मौज ( आदिशब्द ) से उत्पत्ति और लय को प्राप्त होती रहती हैं । ये दोनों प्रकृतियाँ उत्पत्ति - विहीन , अनाद्या ( जिनके पूर्व और कुछ नहीं हो ) और अपने - आपमें स्वतंत्र हैं - ऐसा कदापि नहीं मानना चाहिए ।।५ ॥
जनमने और मरने के दुःख के समान संसार में और कोई दुःख नहीं है अथवा जनमने और मरने के समान दुःख का सबसे बड़ा कारण दूसरा कुछ नहीं है । जनमने - मरने के चक्र को रोकने के लिए परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए ।।६ ।।
मनुष्य - शरीर धारण किये हुए जितने प्राणी हैं , सभी परमात्मा को भक्ति करने के अधिकारी हैं । अन्तर और बाहर की भक्ति करके शरीर के अन्दर जीवात्मा पर पड़े हुए आवरणों को हटाना चाहिए ।।७ ।।
गुरु - मंत्र का मानस जप और गुरु के देखे हुए स्थूल रूप का मानस ध्यान मजबूती अपनाकर कीजिए । पहले मानस जप और मानस ध्यान का अभ्यास करके अपनी सुरत को निर्मल कर लेना चाहिए ॥ ८ ॥
अंधकार , प्रकाश और शब्द - ये तीन आवरण शरीर के अन्दर जीवात्मा पर छाये हुए हैं । दृष्टियोग और शब्दयोग के साधन करके इन आवरणों को हटाना चाहिए ॥९ ॥
इन आवरणों के हट जाने पर माया हट जाएगी और जीवात्मा को परमात्मा से एकता हो जाएगी । फिर जीवात्मा और परमात्मा के बीच कुछ भी द्वैतता ( अलगाव - भेद - अन्तर ) नहीं रह जायगी - ऐसा मजबूत विचार सदा अपनाये रखना चाहिए अर्थात् सदा ऐसा अटल विश्वास रखना चाहिए ॥१० ॥
पाखंड ( दिखावे के आचरण ) और अहंकार ( घमंड ) को छोड़कर , कपट - रहित और नम्र होकर तथा सब कुछ के समर्पण भाव से गुरु की भक्ति करनी चाहिये ॥११॥
प्रतिदिन पूरी संलग्नता के साथ सत्संग और ध्यानाभ्यास करते रहिए । इसके लिए व्यभिचार ( पुरुष के लिए परस्त्रीगमन और सी के लिए परपुरुष - गमन ) , चोरी , नशा - सेवन , हिंसा ( जीवों को किसी भी प्रकार से कष्ट पहुँचाना ) और झूठ ( असत्य भाषण ) का परित्याग करना चाहिए ।।१२ ।।
ये सभी सन्तमत - सिद्धान्त सभी सन्तों ने निश्चित कर दिये हैं । इन त्रुटि - विहीन और सत्य सिद्धान्तों को मजबूती के साथ याद रखना चाहिए अर्थात् मजबूती के साथ अपनाना चाहिए ।।१३ ।।
सन्त सद्गुरु की सेवा करना यह सभी सिद्धान्तों का सार है । सद्गुरु महर्षि में ही परमहंसजी महाराज कहते हैं कि गुरु - सेवा किये बिना कुछ भी आध्यात्मिक लाभ नहीं होगा । इसलिए अनिवार्य रूप से गुरु की सेवा करनी चाहिए ॥१४ ॥
टिप्पणी -
टिप्पणीकार- बाबा लालदास जी |
१. घड़े के अन्दर का आकाश घटाकाश , घर के अन्दर का आकाश मठाकाश और जो सुविस्तृत आकाश किसी आवरण में नहीं है , वह महाकाश या महदाकाश कहलाता है । घटाकाश और मठाकाश महदाकाश के अट अंश हैं । ऐसा नहीं समझना चाहिए कि घट - मठरूप आवरणों के कारण घटाकाश और मठाकाश महदाकाश से अलग हो जाते हैं । ( आकाश तो घट - मठरूप अवारणों में भी व्यापक होता है । ) जब घट - मठरूप आवरण नष्ट हो जाते हैं , तब घटाकाश और मठाकाश महदाकाश के अंश नहीं कहलाकर महदाकाश ही कहलाने लगते हैं । इसी तरह शरीर - स्थित आत्मतत्त्व जीवात्मा कहलाता है , जो परमात्मा का अटूट अंश है ; परन्तु शरीरों के नष्ट हो जाने पर वह आत्मतत्त्व परमात्मा का अंश ( जीवात्मा ) न कहलाकर परमात्मा ही कहलाने लगता है ।
२. जड़ और चेतन - दोनों प्रकृतियाँ परमात्मा से स्फुटित आदिनाद से उत्पन्न होती हैं और जब इन दोनों प्रकृतियों से आदिनादं निकल जाता है , तब ये दोनों प्रकृतियाँ नष्ट हो जाती हैं । वेदान्त मानता है कि जड़ और चेतन - दोनों प्रकृतियों का मूलकारण ब्रह्म ( परमात्मा ) ही है । दोनों प्रकृतियाँ ब्रह्म के अधीन हैं - अपने - आपमें स्वतंत्र नहीं । प्रकृति देश - काल में नहीं उपजी है ; प्रकृति के बनने पर ही देश - काल बने हैं । प्रकृति कहाँ ( किस स्थान पर ) और कब ( किस समय ) उत्पन्न हुई - यह नहीं बताया जा सकता , इसलिए प्रकृति देश - काल की दृष्टि से अनादि है । प्रकृति के पहले से ब्रह्म है , अतएव उत्पत्ति की दृष्टि से प्रकृति अनादि नहीं , सादि ( आदि - सहित , जिसके पूर्व कुछ हो ) है । यहाँ ' अनादि ' का अर्थ है जिसके पूर्व दूसरा कुछ नहीं हो । सांख्य - दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कपिल सृष्टि के मूल में दो तत्त्वों को अनादि ( अपूर्व और उत्पत्ति - रहित ) मानते हैं , वे दो तत्व हैं - पुरुष और प्रकृति । उनको मान्यता है कि पुरुष और प्रकृति से श्रेष्ठ तथा पहले का तीसरा कोई तत्त्व नहीं है । ये दोनों किसी से उत्पन्न नहीं हुए हैं , एक - दूसरे से भिन्न और अपने आपमें स्वतंत्र हैं । पुरुष अनेक , चेतन , साक्षी , निर्गुण , सर्वव्यापक , निष्क्रिय , निर्विकार और नित्य ( अविनाशी ) है । दूसरी ओर प्रकृति जड़ और त्रयगुणस्वरूप है । यह भी नित्य है ; परन्तु पुरुष की तरह नहीं । पुरुष सदा एकरस रहता है , कभी बदलता नहीं लेकिन प्रकृति कार्यरूप में परिणत होनेवाली है । पुरुप से किसी पदार्थ की उत्पत्ति नहीं होती । प्रकृति पुरुष के सान्निध्य में जगत् की रचना करती है । महर्षि कपिल जिनको पुरुष और प्रकृति कहते हैं , उनको वेदान्त क्रमश : चेतन प्रकृति और जड़ प्रकृति मानता है और इन दोनों से श्रेष्ठ तथा पहले का परब्रह्म को स्वीकार करता है ।
महर्षि मेँहीँ पदावली.. |
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