महर्षि मेँहीँ पदावली / 08
प्रभु प्रेमियों ! संतवाणी अर्थ सहित में आज हम लोग जानेंगे- संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "महर्षि मेँहीँ पदावली" जो हम संतमतानुयाइयों के लिए गुरु-गीता के समान अनमोल कृति है। इस कृति के 8 वां गद्य के बारे में । जिसका हेडिंग संतमत की परिभाषा है, इसके शब्दार्थ को पूज्यपाद लालदास जी महाराज नेे किया है। इस गद्य को संतमत सत्संग के प्रातः कालीन स्तुति विनती के लास्ट में पढ़ते हैं।
इसके पहले वाले पद्य "श्री सद्गुरु की सार शिक्षा..." को शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित पढ़ने के लिए 👉 यहां दबाएं।
ग्रंथपाठ सुनते हुए गुरुदेव |
संतमत की परिभाषा में क्या है?
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज "संतमत की परिभाषा" में बताते हैं कि- सन्तमत की परिभाषा क्या है? संतमत किसे कहते हैं? संतमत में भिन्नता क्यों दिखाई पड़ता है? क्या सभी संतों का मत एक नहीं है? संतो का सार मत क्या है? संतमत सत्संग की प्रातः कालीन स्तुति-विनती में परिभाषा का महत्व क्या है? संतमत की परिभाषा का शब्दार्थ, इत्यादि बातें। इन बातों को समझने के लिए इस पोस्ट को पूरा मनोयोग पूर्वक पढ़ें-
२. शान्ति को जो प्राप्त कर लेते हैं , सन्त कहलाते हैं ।
३. सन्तों के मत वा धर्म को सन्तमत कहते हैं ।
४. शान्ति प्राप्त करने का प्रेरण मनुष्यों के हृदय में स्वाभाविक ही है । प्राचीन काल में ऋषियों ने इसी प्रेरण से प्रेरित होकर इसकी पूरी खोज की और इसकी प्राप्ति के विचारों को उपनिषदों में वर्णन किया । इन्हीं विचारों से मिलते हुए विचारों को कबीर साहब और गुरु नानक साहब आदि सन्तों ने भी भारती और पंजाबी आदि भाषाओं में सर्वसाधारण के उपकारार्थ वर्णन किया, इन विचारों को ही सन्तमत कहते हैं । परन्तु सन्तमत की मूलभित्ति तो उपनिषद् के वाक्यों को ही मानने पड़ते हैं; क्योंकि जिस ऊँचे ज्ञान का तथा उस ज्ञान के पद तक पहुँचाने के जिस विशेष साधन - नादानुसन्धान अर्थात् सुरत - शब्द - योग का गौरव सन्तमत को है , वे तो अति प्राचीन काल की इसी भित्ति पर अंकित होकर जगमगा रहे हैं । भिन्न - भिन्न काल तथा देशों में सन्तों के प्रकट होने के कारण तथा इनके भिन्न - भिन्न नामों पर इनके अनुयायियों द्वारा सन्तमत के भिन्न - भिन्न नामकरण होने के कारण सन्तों के मत में पृथक्त्व ज्ञात होता है ; परन्तु यदि मोटी और बाहरी बातों को तथा पन्थाई भावों को हटाकर विचारा जाय और सन्तों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाय , तो यही सिद्ध होगा कि सब सन्तों का एक ही मत है ।
शब्दार्थ -
स्थिरता= स्थिर होने का भाव , मन का ठहराव , मन का निरोध । निश्चलता ( निः + चलता )= मन की अचलता , मन का चलायमान न होना । ( मन की पूरी स्थिरता वा निश्चलता विषयों की आसक्ति का त्याग करने पर होती है और आसक्ति का त्याग शब्द - साधना की पूर्णता होने पर होता है । ) मत = विचार , मान्यता , विश्वास, धर्म, माननेयोग्य विचार , अपनानेयोग्य विचार , उपदेश , शिक्षा , कर्त्तव्य कर्म । प्रेरण - प्रेरणा , प्रवृत्ति , झुकाव , भाव , इच्छा, प्रेरित होकर, प्रेरणा पाकर , उत्तेजित होकर , उकसाया गया होकर , बाध्य होकर , बल पाकर । ऋषि - प्राचीन काल के वे आत्मज्ञ महापुरुष जिन्होंने अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियों को संस्कृत भाषा में अभिव्यक्त किया , जो वेद - उपनिषद् आदि ग्रंथों में संकलित हैं । भारती - हिन्दी भाषा ( सद्गुरु महर्षि में ही परमहंसजी महाराज हिन्दी भाषा को भारती भाषा कहना पसन्द करते थे । पंजाबी भाषा भी हिन्दी के ही अन्तर्गत है ) । सर्वसाधारण= सभी साधारण लोग । उपकारार्थ ( उपकार + अर्थ )= भलाई के लिए । मूलभित्ति - मूल - आधार ( भित्ति आधार , दीवार , स्रोत , उद्गम , उत्पत्ति स्थान ) । उपनिषद् - वेद का अन्तिम भाग ( ज्ञानकांड ) , जिसमें ब्रह्म , जीव , जगत् , प्रकृति , ब्रह्म - प्राप्ति के साधन आदि दार्शनिक बातों की सूक्ष्म विवेचना है । जिस ऊँचे ज्ञान का= जिस ऊँचे अध्यात्म - ज्ञान का । उस ज्ञान के पद तक - उस अध्यात्म - ज्ञान के अध्यात्म - पद तक । नादानुसंधान ( नाद+अनुसंधान )= वह युक्ति जिसके द्वारा अन्दर में होनेवाली विविध असंख्य ध्वनियों के बीच आदिनाद की खोज की जाती है । सुरत - शब्द - योग - वह युक्ति जिसके द्वारा अन्दर में होनेवाले आदिनाद में सुरत को संलग्न करने का अभ्यास किया जाता है । ( नादानुसंधान और सुरत - शब्द - योग - दोनों एक ही साधन के अलग - अलग नाम हैं । ) अंकित होकर= लिखित होकर , लिखा जाकर । जगमगा रहे हैं= प्रकाशित हो रहे हैं , स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रहे हैं । अनुयायी= जो किसी के पथ का अनुसरण करे , अनुगामी , शिष्य । नामकरण= नाम रखने की क्रिया । पृथक्त्व - पृथक्ता , अलगाव , भिन्नता । मोटी और बाहरी बातें= कंठी - छाप, तिलक धारण करना , छपी चादर ओढ़ना , सफेद या गैरिक वस्त्र पहनना , दाढ़ी - मूंछ - केश शिखा रखना अथवा मुंडा लेना आदि बातें । पंथाई भाव - दूसरे के पंथ को ओछा और अपने पंथ को श्रेष्ठ मानते हुए अपने ही पंथ की बातों पर अविचारपूर्वक डटे रहने का भाव , साम्प्रदायिक भाव ।
( अन्य शब्दों की जानकारी के लिए "महर्षि मेँहीँ + मोक्ष-दर्शन का शब्दकोश" देखें )
∆
आगे है-
( ९ )
॥ अपराह्न एवं सायंकालीन विनती ॥
प्रेम भक्ति गुरु दीजिये , विनवौं कर जोड़ी ।
पल - पल छोह न छोड़िये, सुनिये गुरु मोरी ॥ १ ॥...
पदावली भजन नंबर 9 "प्रेम-भक्ति गुरु दीजिये..." को शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित पढ़ने के लिए 👉 यहां दबाएं।
संतमत सत्संग की प्रातःकालीन स्तुति-प्रार्थना का सभी पद इस परिभाषा पाठ के साथ समाप्त होता है । इसके बाद कुछ ग्रंथपाठ और प्रवचन होता है । संतमत सत्संग में सुबह, अपराह्न और सायंकालीन आरती के दो ही पद्य एक संत तुलसी साहब रचित और दूसरा सद्गुरु महर्षि मेँहीँ रचित ही गायी जाती है। आरती के दोनों पदों के शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित पढ़ने के लिए 👉 यहां दबाएं ।
प्रभु प्रेमियों ! हम आशा करते हैं कि संतमत सत्संग कार्यक्रम में प्रातः कालीन सत्संग कार्यक्रम के बारे में अच्छी तरह से समझ गए होंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें । गुरु महाराज के पदावली सहित अन्य संत-महात्माओं भजनों को अर्थ सहित पढने-समझने के लिए आप हमारे इस ब्लॉग का सदस्य बन जाए। इससे आपको हमारे आने वाले पोस्ट की निशुल्क सूचना ईमेल द्वारा मिलती रहेगी । इसकी सूचना अपने इष्ट-मित्रों को भी दे दें, जिससे उन्हें भी संत-वाणियो का मर्म समझ में आये। श्री सतगुरु महाराज की जय !
महर्षि मेँहीँ पदावली.. |
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-----ओके-----
P08 संतमत की परिभाषा शब्दार्थ सहित || संतमत सत्संग की प्रातःकालीन स्तुति-प्रार्थना का अंतिम भाग
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
1/09/2018
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