'सद्गुरु महर्षि मेंहीं, कबीर-नानक, सूर-तुलसी, शंकर-रामानंद, गो. तुलसीदास-रैदास, मीराबाई, धन्ना भगत, पलटू साहब, दरिया साहब,गरीब दास, सुंदर दास, मलुक दास,संत राधास्वामी, बाबा कीनाराम, समर्थ स्वामी रामदास, संत साह फकीर, गुरु तेग बहादुर,संत बखना, स्वामी हरिदास, स्वामी निर्भयानंद, सेवकदास, जगजीवन साहब,दादू दयाल, महायोगी गोरक्षनाथ इत्यादि संत-महात्माओं के द्वारा किया गया प्रवचन, पद्य, लेख इत्यादि द्वारा सत्संग, ध्यान, ईश्वर, सद्गुरु, सदाचार, आध्यात्मिक विचार इत्यादि बिषयों पर विस्तृत चर्चा का ब्लॉग'
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P06 संतमत सिद्धांत- जो परम तत्व आदि का शब्दार्थ और मूल पाठ || ईश्वर प्राप्ति का गारेंटेड मार्ग
प्रभु प्रेमियों ! संतवाणी अर्थ सहित में आज हम लोग जानेंगे- संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "महर्षि मेँहीँ पदावली" जो हम संतमतानुयाइयों के लिए गुरु-गीता के समान अनमोल कृति है। इसी कृति के 6 ठे गद्य "जो परम तत्व आदि-अंत रहित....'' का मूल वाणी और शब्दार्थ के बारे में। जिसे पूज्यपाद लालदास जी महाराज नेे किया है।
इस गद्य को संतमत सत्संग के प्रातःकालीन स्तुति-प्रार्थना में पाठ करते हैं। इस गद्य के पहले पाठ होने वाले पद्य "अव्यक्त अनादि अनन्त अजय..." को शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित पढ़ने के लिए 👉 यहाँ दवाएँ.
परमात्म प्राप्ति के उपाय पर चर्चा करते हुए गुरुदेव
प्रभु प्रेमियों ! सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज ने ईश्वर प्राप्ति का सच्चा एवं सरल रास्ता ( जो कि सभी संतो के द्वारा प्रमाणित है, जिन लोगों ने ईश्वर की प्राप्ति किया है उनके विचारों पर आधारित हैं,) को संतमत सिद्धांत के रूप में हम लोगों को रोजाना पाठ कराते हैं, जिससे कि ईश्वर प्राप्ति के मार्ग से हम लोग मायावी लोगों की बातों में ना फंसकर सच्चा मार्ग को पकड़े रहे ं. क्योंकि केवल ईश्वर-प्राप्ति से ही सभी तरह की अविनाशी सुख-शांति की प्राप्ति होती है और ईश्वर को प्राप्त करने का सिद्धांत सभी संतो ने इसी निम्नांकित तरह से ही बताया है-
१- जो परम तत्त्व आदि - अन्त - रहित , असीम , अजन्मा , अगोचर , सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है , उसे ही सर्वेश्वर ' सर्वाधार मानना चाहिये तथा अपरा ( जड़ ) और परा ( चेतन ) ; दोनों प्रकृतियों के पार में अगुण और सगुण पर , अनादि - अनन्त स्वरूपी अपरम्पार शक्तियुक्त , देशकालातीत , शब्दातीत , नाम रूपातीत , अद्वितीय , मन - बुद्धि और इन्द्रियों के परे जिस परम सत्ता पर यह सारा प्रकृति मण्डल एक महान् यन्त्र की नाईं परिचालित होता रहता है , जो न व्यक्ति है और न व्यक्त है , जो मायिक विस्तृतत्व - विहीन है , जो अपने से बाहर कुछ भी अवकाश नहीं रखता है , जो परम सनातन , परम पुरातन एवं सर्वप्रथम से विद्यमान है , सन्तमत में उसे ही परम अध्यात्म - पद वा परम अध्यात्मस्वरूपी परम प्रभु सर्वेश्वर ( कुल्ल मालिक ) मानते हैं ।
२- जीवात्मा सर्वेश्वर का अभिन्न अंश है ।
३. प्रकृति आदि - अन्त - सहित है और सृजित है ।
४- मायाबद्ध जीव आवागमन के चक्र में पड़ा रहता है । इस प्रकार रहना जीव के सब दुःखों का कारण है । इससे छुटकारा पाने के लिए सर्वेश्वर की भक्ति ही एकमात्र उपाय है ।
५- मानस जप , मानस ध्यान , दृष्टि साधन और सुरत - शब्द - योग द्वारा सर्वेश्वर की भक्ति करके अन्धकार , प्रकाश और शब्द के प्राकृतिक तीनों परदों से पार जाना और सर्वेश्वर से एकता का ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पा लेने का मनुष्य - मात्र अधिकारी है ।
६- झूठ बोलना , नशा खाना , व्यभिचार करना , हिंसा करनी अर्थात् जीवों को दुःख देना वा मत्स्य - मांस को खाद्य पदार्थ समझना और चोरी करनी ; इन पाँचो महापापों से मनुष्यों को अलग रहना चाहिये ।
७- एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास , पूर्ण भरोसा तथा अपने अन्तर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना , सद्गुरु की निष्कपट सेवा , सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास , इन पाँचो को मोक्ष का कारण समझना चाहिये । .
परम तत्त्व = सबसे पहले का तत्त्व या पदार्थ , आदितत्त्व , सर्वोपरि तत्त्व , मूलतत्त्व जिससे समस्त सृष्टि हुई है । आदि - अन्त - रहित = जिसका कहीं न ओर हो , न छोर । असीम ( अ + सीम ) = सीमा - रहित , अपार , अनन्त । अजन्मा ( अ + जन्मा ) = अज , जो किसी से जनमा हुआ ( उत्पत्र ) नहीं है , जो कभी जन्म नहीं लेता है । अगोचर (अ+गो+चर) = जो किसी भी इन्द्रिय का विषय नहीं है , जो किसी भी इन्द्रिय की पकड़ में नहीं आता । ( गो = इन्द्रिय । गोचर = जिसमें इन्द्रिय विचरण करे , जो किसी इन्द्रिय की पकड़ में आए , जो किसी इन्द्रिय का विषय हो । चर = चलनेवाला , जानेवाला । ) सर्वव्यापक = जो सबमें ( समस्त प्रकृति - मंडलों में ) अत्यन्त सघनता से फैला हुआ हो । ( व्यापक = फैला हुआ । ) सर्वव्यापकता के भी परे = समस्त प्रकृति - मंडलों में व्यापक होकर उनसे बाहर भी अपरिमित रूप से विद्यमान रहनेवाला । सर्वेश्वर ( सर्व + ईश्वर ) = सबका स्वामी , सबका शासक । सर्वाधार ( सर्व + आधार ) = सबका आधार , जिसपर सब कुछ टिका हुआ है । अपरा ( अ+परा ) = अपरा प्रकृति , निम्न कोटि की प्रकृति , जड़ प्रकृति ( देखें- गीता , अध्याय ७ , श्लोक 5 ) । परा = परा प्रकृति , उच्च कोटि की प्रकृति , चेतन प्रकृति ( देखें- गीता , अध्याय ७ , श्लोक 5 ) । अगुण ( अ + गुण ) = निर्गुण ; सत्त्व , रज और तम - इन तीनों गुणों से जो विहीन है , चेतन प्रकृति । सगुण ( स + गुण ) = जो त्रयगुणों से युक्त है , जो त्रयगुणों से बना हुआ है , जड़ प्रकृति । पर = श्रेष्ठ , ऊपर , बाहर । परा ( स्त्री ० विशेषण ) = श्रेष्ठ । अनादि ( न + आदि ) = जिसका कहीं आरंभ नहीं है , जिसके पहले उससे भित्र दूसरा कुछ नहीं है , जो उत्पत्ति - रहित है । अनादि - अनन्तस्वरूपी = आदि - अन्त - रहित स्वरूपवाला । अपरम्पार ( संस्कृत अरंपर ) = जिसका वारापार ( हद , सीमा , वार - पार ) नहीं है , असीम । शक्ति - युक्त = शक्ति - सहित , शक्तिवाला , शक्तिमान् । देशकालातीत ( देश + काल + अतीत ) = स्थान और समय से ऊपर ( अतीत = बीता हुआ , अलग , परे , बाहर ) । शब्दातीत ( शब्द + अतीत ) = शब्द - मंडल से ऊपर , शब्द - विहीन , नि : शब्द ।
बाबा साहब और ध्यान में गुरुदेव
नामरूपातीत ( नाम + रूप + अतीत ) = नामरूप - विहीन , कोई वर्णात्मक नाम जिसका सच्चा नाम नहीं है और जिसमें रूप , रस , गंध , स्पर्श तथा शब्द गुणों में से कोई गुण नहीं है , जिसमें कोई विशेषता या लक्षण नहीं है , जिसका विस्तार , माप - तौल या संख्या नहीं बतायी जा सके । अद्वितीय ( अ + द्वितीय ) = जिसके समान दूसरा कोई या कुछ नहीं है , बेजोड , उपमा रहित , एकमात्र , अकेला । इन्द्रिय = कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ । परम सत्ता = परम अस्तित्ववान् , जो व्यावहारिक और प्रातिभासिक सत्ताओं से उच्चतर पारमार्थिक सत्ता है , जिसकी अपनी निजी स्थिति है । महान् यंत्र = बड़ी मशीन , बड़ा कल । नाई ( संस्कृत न्याय ) = तरीका , रीति , पद्धति , भाँति , तरह , समान । परिचालितहोता रहता है = चलाया जाता रहता है । जो न व्यक्ति है = जो साधारण मनुष्यों में से और राम - कृष्ण आदि जैसे विशेष धर्मवान् और अवतारी पुरुषों में से कोई भी नहीं है- " बरन विहीन , न रूप न रेखा , नहिं रघुवर नहिं श्याम । " ( १२ वाँ पद्य ) न व्यक्त है = जो इन्द्रियों के ग्रहण में आनेयोग्य पदार्थों में से कुछ भी नहीं है । जो मायिक विस्तृतत्व - विहीन है = माविक पदार्थों में पाये जानेवाले विस्तृतत्व ( विस्तृत + त्व ) , विस्तृति या विस्तार ; जैसे लंबाई - चौड़ाई - मुटाई वा ऊँचाई - गहराई , माप - तौल , संख्या आदि जिसके नहीं बताये जा सकें । ( लंबाई - चौड़ाई - मुटाई वा ऊँचाई - गहराई , माप - तौल , संख्या आदि मायिक पदार्थों के ही बताये जा सकते हैं । परमात्मा परमालौकिक तत्त्व है , उसमें विस्तार नहीं है । ) अवकाश = खाली जगह । परम सनातन = जो अत्यन्त प्राचीन और अत्यन्त अविनाशी है , जो सदा से विद्यमान ही है । परम पुरातन = जो अत्यन्त प्राचीन काल से अपना अस्तित्व रखता हुआ आ रहा है , जिससे पुराना और कोई वा कुछ नहीं है । ( सनातन = नित्य , शाश्वत , स्थायी , स्थिर , प्राचीन । पुरातन = प्राचीन , पुराना । ) सर्वप्रथम से = सबके पहले से । अध्यात्म = आत्मा से संबंध रखनेवाला , आत्मा , परमात्मा ।
सद्गुरुमहर्षि मेँहीँ परमहंस
पद = स्थान , आधार । ( परमात्मा में स्थान और स्थानीय का भेद नहीं होता । ) अध्यात्मस्वरूपी = जो आत्मा या परमात्मा का स्वरूप ( मूलरूप ) हो । परम प्रभु = जिससे बड़ा दूसरा कोई शासक नहीं हो । कुल्ल मालिक = कुल मालिक ( अरबी ) , सबका स्वामी , सर्वेश्वर । जीवात्मा = प्राणियों के शरीर में स्थित आत्मतत्त्व या चेतन आत्मा । अभिन्न ( अ + भिन्न ) = जो भिन्न नहीं है , जो अलग नहीं है , अटूट । अंश = अवयव , हिस्सा , भाग । सृजित = रचित , जो रचा गया हो , जो बनाया गया हो ।मायाबद्ध = माया में बँधा हुआ , माया में फंसा हुआ । सर्वेश्वर की भक्ति = परमात्मा की भक्ति , शरीर के अन्दर आवरणों से छूटते हुए परमात्मा की ओर चलना । मानस जप = मन - ही - मन गुरु द्वारा बताये गये मंत्र की बारंबार या लगातार आवृत्ति करना । मानस ध्यान = इष्ट के स्थूल रूप का मन - ही - मन चिन्तन करते रहना , इष्ट के देखे हुए स्थूल रूप को ज्यों - का - त्यों मन में उगाने का प्रयत्न करना । दृष्टि - साधन = दृष्टियोग की साधना , आँखें बन्द करके दोनों दृष्टिधारों को गुरु - द्वारा बताये गये स्थान पर जोड़ने का अभ्यास करना । सुरत - शब्द - योग = ब्रह्माण्ड में होनेवाली अनहद ध्वनियों के बीच आदिनाद की परख करके उसमें सुरत को संलग्न करने का अभ्यास करना , नादानुसंधान । एकता का = एक होने का , एक हो जाने का । मात्र - समस्त , सभी , सिर्फ , केवल । व्यभिचार = परस्त्री के साथ पुरुष का और परपुरुष के साथ स्त्री का सहवास करना । हिंसा करना = मन , वचन , शरीर और कर्म से किसी प्राणी को दु : ख पहुँचाना । ( हिंसा दो प्रकार की होती है - वार्य और अनिवार्य । वार्य हिंसा से साधक को बचना चाहिए । ) मत्स्य = मछली । खाद्य पदार्थ = खाने - योग्य पदार्थ । एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास - परमात्मा एक ही है - इसपर अटल विश्वास होना । पूर्ण भरोसा - पूर्ण रूप से आश्रित होना , पूरा आसरा , पूरी आशा , पूरा विश्वास ; जो परिस्थिति हमारे समक्ष आयी हुई है , वह परमात्मा की भेजी हुई है , उससे हमें कुछ लाभ ही होगा - ऐसा विश्वास रखना । दृढ़ = पक्का , मजबूत । निश्चय = संकल्प , धारणा , विचार , विश्वास । निष्कपट = कपट - रहित , छल - रहित , दुराव - छिपाव - रहित , सच्चा । मोक्ष = परम मोक्ष , सब शरीरों और संसार से सदा के लिए छूट जाना ।∆
अति अटल श्रद्धा प्रेम से , गुरु - भक्ति करनी चाहिये ॥१ ॥ ....
प्रातःकालीन स्तुति-प्रार्थना में इसके बाद आनेवाली पदावली भजन नंबर 7 "श्री सद्गुरु की सार शिक्षा..." को शब्दार्थ,भावार्थ और टिप्पणी सहित पढ़ने के लिए 👉 यहां दबाएं।
महर्षि मेँहीँ पदावली शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी-सहित पुस्तक में उपर्युक्त पदावली भजन नंबर 6 का लेख निम्न चित्रों जैसा ही प्रकाशित है-
प्रभु प्रेमियों ! "महर्षि मेँहीँ पदावली शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित" नामक पुस्तक से इस भजन के शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी द्वारा आपने जाना कि संतमत का सिद्धांत क्या है? संतमत किन नियमों के आधार पर चलता है?इसके पालन करने से क्या लाभ होता है?इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद्य का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नांकित वीडियो देखें ।
गुरु महाराज की शिष्यता-ग्रहण 14-01-1987 ई. और 2013 ई. से सत्संग ध्यान के प्रचार-प्रसार में विशेष रूचि रखते हुए "सतगुरु सत्संग मंदिर" मायागंज कालीघाट, भागलपुर-812003, (बिहार) भारत में निवास एवं मोक्ष पर्यंत ध्यानाभ्यास में सम्मिलित होते हुए "सत्संग ध्यान स्टोर" का संचालन और सत्संग ध्यान यूट्यूब चैनल, सत्संग ध्यान डॉट कॉम वेबसाइट से संतवाणी एवं अन्य गुरुवाणी का ऑनलाइन प्रचार प्रसार।
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