महर्षि मेँहीँ पदावली / 11
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गुरुदेव से विनती करते हुए सद्गुरु महर्षि मेंहीं और टीकाकार |
अपने सद्गुरु महाराज से क्या मांगे? The request of Satguru Maharaj,
इस पद के द्वारा सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज हम सभी सत्संग प्रेमियों को मत लाना चाहते हैं कि जब कभी भी हमारा मन संत सतगुरु महाराज से कुछ प्रार्थना करने की हो मांगने की हो तो उनसे क्या -क्या मांगना चाहिए, संत सतगुरु स्वामी से किस तरह विनती-प्रार्थना करनी चाहिए, सतगुरु महाराज से किसलिए विनती करनी चाहिए, सतगुरु महाराज से स्तुति-विनती में किन शब्दों का उपयोग करना चाहिए इत्यादि बातें.
( ११ )
॥ विनती ( दोहा ) ॥
तुम साहब रहमान हो, रहम करो सरकार ।
भव सागर में हौं पड़ो, खेड़ उतारो पार ॥१॥
भवसागर दरिया अगम, जुलमी लहर अनन्त ।
षट् विकार की हर घड़ी, ऊठत होत न अन्त ॥२॥
इन लहरों की असर तें गई सुबुद्धी खोइ ।
प्रेम दीनता भजन सँग, तीनहु बने न कोई ॥३॥
आप अपनपौ सय भुले, लहरों के ही हेत ।
सो भूले कैसे लहौं, सुख जो शान्ती देत ॥४॥
तेहि कारण अति गरज सों, अरज करौं गुरुदेव ।
भवजल लहरन बीच में, पकड़ि बाँह मम लेव ॥५॥
बुद्धि शुद्धि कुछ भी नहीं, कहै क्या 'मेँहीँ दास ।
सतगुरु खुद जानैं सभै, बेगि पुराइय आस ॥६॥
मेरे मुअलिज जगत में, सतगुरु बिन कोइ नाहिं ।
तेहि कारण विनती करौं, हे सतगुरु तोहि पाहिं ॥७॥
शब्दार्थ -
शब्दार्थ कारण |
भावार्थ -
हे स्वामी गुरुदेव ! आप बड़े दयालु हैं, मुझपर दया कीजिये। मैं संसार-समुद्र में पड़ा हुआ दुःख पा रहा हूँ, मुझे भक्तिरूपी नाव पर चढ़ाकर शीघ्र ही संसार - समुद्र के पार उतार दीजिये ॥ १॥
( संसार समुद्र का दूसरा किनारा परमात्म-पदं है ।) संसार-समुद्र अत्यन्त कठिनाई से पार करनेयोग्य है । इसमें सदा उत्पात मचानेवाली और कभी भी अन्त न होनेवाली लहरें हर घड़ी उठती रहती हैं । ये लहरें षट् विकाररूप हैं, जिनका उठना कभी बन्द नहीं होता ॥२॥
हमेशा उठनेवाली इन षट् विकाररूपी लहरों के प्रभाव से मेरी सात्त्विकी बुद्धि खो गई है और आपके चरणों के प्रति दृढ़ प्रेम, विनम्रता तथा ध्यान भजन करने की रुचि इन तीनों में से कोई भी मेरे हृदय में जाग्रत् नहीं हो पाता है ॥ ३ ॥
इन लहरों के ही कारण मैं आत्मस्वरूप और परमात्मस्वरूप को भूल गया हूँ। हे गुरुदेव ! आप ही बतलाइये कि मैं उस भूले हुए आत्मस्वरूप और परमात्मस्वरूप को पुनः कैसे प्राप्त करूँ, जो प्राप्त हो जाने पर शान्तिमय सुख प्रदान करता है ||४||
हे गुरुदेव ! इसी कारण अत्यन्त प्रयोजनवश (आवश्यकतावश ) मैं आपसे बारंबार विनती करता हूँ कि संसार समुद्र की लहरों के बीच पड़े हुए मुझको आप मेरी भुजा पकड़कर ( मुझे सहारा देकर ) अपनी भक्तिरूपी नाव पर चढ़ा लीजिए ॥ ५ ॥
भावार्थकार-बाबा |
टिप्पणी-
१. भक्तिरूपी नौका के कर्णधार ( मल्लाह, केवट ) सद्गुरु हैं; देखें–“अति दुस्तर भवनिधि के माहीं, खेवटिया गुरुदेवजी । भक्ति नाव में लेहिं चढ़ाई, पार करें भव खेव जी ॥” ( ९२वाँ पद्)
२. ज्ञान का कारण है - एकाग्रता । इसलिए विकारग्रस्त और एकाग्रता विहीन मन में ज्ञान उपज नहीं सकता ।
३. नित प्रति साधु-संतों की संगति करते रहने पर सहज रूप से हृदय में गुरु चरणों के प्रति प्रेम, विनम्रता और ध्यान--भजन की रुचि जग जाती है ।
४. विकारों की उठनेवाली लहरों से मन विक्षुब्ध हो उठता है; विक्षुब्ध मन कभी अन्तर्मुख नहीं हो सकता और अन्तर्मुख हुए बिना आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर बढ़ा नहीं जा सकता । जिस तरह स्थिर जल में ही किसी पदार्थ की परछाहीं झलकती है, उसी तरह सुसमाहित हृदय में ही आत्म-दर्शन संभव है ।
५. काम, क्रोध, लोभ, ममता, अहंकार, ईर्ष्या, दुष्टता, कुटिलता आदि विकार मानस रोग हैं, जो मोह (अज्ञानता ) से उपजे हुए होते हैं । सद्गुरुरूपी वैद्य की युक्ति के अनुकूल आचरण करनेवाला व्यक्ति ही मानस और जन्म-मरणरूप रोगों से छुटकारा पा सकता है ।
पदावली की छंद-योजना |
६. दूसरे दोहे के प्रथम चरण में पाद - पूर्ति के लिए 'सागर' के बाद समानार्थी 'दरिया' शब्द की योजना की गयी है ।∆
( पदावली के सभी छंदों के बारे में विशेष जानकारी के लिए पढ़ें-- LS14 महर्षि मँहीँ-पदावली की छन्द-योजना )
संत कवि महर्षि मेँहीँ |
"महर्षि मेँहीँ पदावली : शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित" पुस्तक में उपर्युक्त लेख निम्न प्रकार से प्रकाशित है--
महर्षि मेँहीँ पदावली.. |
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