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P10 || सत्य पुरुष की आरति कीजै पदावली भजन अर्थ सहित || संतमत आरती || Best aarti of saints

महर्षि मेँहीँ पदावली / 10

      प्रभु प्रेमियों ! संतवाणी अर्थ सहित में आज हम लोग जानेंगे- संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "महर्षि मेँहीँ पदावली" जो हम संतमतानुयाइयों के लिए गुरु-गीता के समान अनमोल कृति है। इस कृति के 10 वें, पद्य- "सत्य पुरुष की आरति कीजै,..."  का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी के  बारे में । जिसे पूज्यपाद लालदास जी महाराज नेे लिखा है।

इस पद्य के पहले वाले पद्य 'अपराह्न एवं सायंकालीन विनती' का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी पढ़ने के लिए   
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P10, Best aarti of saints "सत्य पुरुष की आरति कीजै,..." महर्षि मेंहीं पदावली भजन अर्थ सहित । सद्गुरु महर्षि मेंही और टीकाकार लाल दास जी
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ और टीकाकार लाल दास जी

Best aarti of saints

     प्रभु प्रेमियों ! सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज  "सत्य पुरुष की आरति कीजै,..." पद्य में कहते हैं- "अपने शरीर के अंदर आरती कैसे करें? मनोमय आरती करने के लिए क्या-क्या करना चाहिए?  मानसिक आरती कैसे करते हैं? मानसिक पूजा में किन बातों का ख्याल रखना चाहिए? मानसिक पूजा और बाहरी पूजा में क्या अंतर है? आंतरिक आरती में क्या-क्या दिखलाई पड़ता है? अलौकिक आरती कैसे करते हैं? अलौकिक आरती करने से क्या-क्या फल प्राप्त होता है? परम प्रभु परमात्मा को भोग कैसे लगाते हैं? परमात्मा को भोग लगाने से क्या क्या फल प्राप्त होता है ? परमात्मा को भोग क्यों लगाना चाहिए? इत्यादि बातें."  इस विषय की पूरी जानकारी के लिए इस भजन का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है। उसे पढ़ें-

( १० ) 
आरती

सत्यपुरुष की आरति कीजै।
           हृदय- अघर को थाल सजीजै ॥ १ ॥ 
सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज पदावली लेखक
काव्यकार- गुरुदेव
दामिनि जोति झकाझक जाये।
           तारे पद अलौकिक तामे ।। २ ।।
आरति करत होत अति उज्ज्वल ।
           ब्रह्म की जोति अलौकिक उज्ज्वल ।। ३ ।। 
सम्मुख बिन्दु में दृष्टि समावे।
           अचरज आरति देखन पावे ॥ ४ ॥
दिव्य चक्षु सो अचरज पेखे ।
           या जग-सुख तुच्छ करि लेखे ।। ५ ।।
होत महापुन अनहद केरा। 
           सुनत सुरत सुख लहत घनेरा ।। ६ ।।
सूरत सार शब्द में लागी । 
           पिण्ड-ब्रह्माण्ड देइ सब त्यागी ।। ७ ।। 
आतम अरपि के भोग लगावे ।
           सेवक सेव्य भाव छुटि जावे ।। ८ ।।
हम प्रभु, प्रभु हम एकहि होई ।
           बन्द अरु द्वैत रहे नहिं कोई ।। ९ ।।
"मेंहीं" ऐसी आरति कीजै।
           भव महँ जनम बहुरि नहिं लीजै ।। १० ।।

शब्दार्थ--

संतमत के वेदव्यास बाबा लालदास जी महाराज
शब्दार्थकार-बाबा 
       सत्य पुरुष = परम अविनाशी पुरुष, परम प्रभु परमात्मा; देखें- " अविगत अज विभु अगम अपारा । सत्य पुरुष सतनाम ।।" (१२वाँ पद्य) आरति = आरती, पूजन के समय किसी देवमूर्ति या सन्त-महात्मा के सामने कपूर या घी का प्रज्वलित दीपक गोलाकार घुमाना, आरती के समय पढ़ा जानेवाला पद, पूजा, आराधना । हृदय अधर = योगहृदय का शून्य, आज्ञाचक्र का शून्यमंडल, आज्ञाचक्र के ऊपरी आधे भाग का आकाश जो प्रकाश मंडल में है, अन्तराकाश, शरीर के भीतर का सूक्ष्म आकाश । (अधर= आकाश, शून्य ।) दामिनि = दामिनी, (सं० सौदामिनी ) विद्युत्, बिजली, बादल में चमकने वाली बिजली । झकाझक = खूब उजला और चमकता हुआ। अलौकिक = जो इस लोक अर्थात् स्थूल जगत् का नहीं है। अति उज्ज्वल = अत्यन्त उजला, बहुत अधिक प्रकाश सन्मुख सम्मुख, सामने । दिव्य चक्षु = दिव्य आँख, दिव्य दृष्टि जो जाग्रत् दृष्टि, स्वप्नदृष्टि और मानस दृष्टि से भिन्न है और जो एकविन्दुता की प्राप्ति होने पर खुलती है तथा इसके द्वारा सूक्ष्म और स्थूल जगत् की अत्यन्त दूरस्थ वस्तु भी देखी जा सकती है। अचरज = आश्चर्य; यहाँ अर्थ है आश्चर्यमय । पेखे = देखे, देखता है। ('पेखना' का अर्थ है देखना यह संस्कृत 'प्रेक्षण' का तद्भव रूप है।) उज्ज्वल = उजला, स्वच्छ, निर्मल । तुच्छ करि = तुच्छ (असार, व्यर्थ, बेकार, ओछे) पदार्थ की तरह । लेखे = देखता है, विचारता है, समझता है, मानता है, गिनता है। महाधुन = महाध्वनि, अत्यन्त ऊँची और तीक्ष्ण (तीव्र) ध्वनि । केरा = का । घनेरा = बहुत अधिक । पिंड = स्थूल शरीर, स्थूल शरीर का दोनों आँखों के नीचे का भाग। ब्रह्माण्ड = बाह्य जगत्, आन्तरिक ब्रह्माण्ड जो कैवल्य मंडल तक है। बहुरि = फिर, लौटकर । भोग = नैवेद्य, वह खाद्य सामग्री जो देवता को चढ़ायी जाए । लहत = लाभ करता है, प्राप्त करता है। सेवक सेव्य भाव = अपने को सेवक और परमात्मा को सेव्य (सेवा करनेयोग्य) मानने का भाव ।  हम प्रभु =  जीवात्मा और परमात्मा । द्वन्द्व = सुख-दु:ख, शीत-उष्ण जैसे परस्पर विरोधी भावों का जोड़ा, दो पदार्थों के होने का भाव ।  द्वैत = द्वन्द्र, दो होने का भाव, अलगाव, जीव और ब्रह्म के भिन्न होने का भाव ।





भावार्थ

     अपने शरीर के अन्दर सत्य पुरुष (परम अविनाशी पुरुष, परम प्रभु परमात्मा) की आरती (पूजा, उपासना ) कीजिए और इसके लिए भीतर के सूक्ष्म आकाश को थाल के रूप में सजाइये || १ || 

     इस सूक्ष्म आकाशरूप थाल में अत्यन्त उजला और चमकता हुआ विद्युत्-प्रकाश दिखाई पड़ता है और अलौकिक तारे तथा चन्द्रमा आदि भी || २ || 

संतमत के वेदव्यास पूज्य पाद स्वामी लाल दास जी महाराज
भावार्थकार

    आरती करने के समय अत्यन्त तेज प्रकाश होता है। वह प्रकाश ब्रह्म (परमात्मा) का है, जो अलौकिक और निर्मल है ||३||

     ("निर्मल जोत जरत घट माहीं । " - संत तुलसी साहब, हाथरस) सामने के श्वेत ज्योतिर्मय विन्दु में (आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में दिखाई पड़नेवाले श्वेत ज्योतिर्मय विन्दु में) सिमटी हुई दृष्टि धार को समाविष्ट करने पर (एकमेक करने पर) ही अत्यन्त आश्चर्यमयी आरती देखने में आती है ।।४।। 

     यह अत्यन्त आश्चर्यमयी आरती दिव्य दृष्टि से देखने में आती है. और जो इसको देख लेता है, वह इस स्थूल जगत् के समस्त सुखों को तुच्छ पदार्थ-सा समझने लगता है ||५|| 

     आरती करते समय अत्यन्त ऊँची अनहद ध्वनियाँ (जड़ात्मक मंडलों की विविध प्रकार की असंख्य ध्वनियाँ) भी होती हैं, जिनका श्रवण करती हुई सुरत बहुत अधिक सुख प्राप्त करती है ||६|| 

     इन अनहद ध्वनियों के बीच जब सुरत सारशब्द (अनाहत नाद) में संलग्न हो जाती है, तब वह पिंड (स्थूल शरीर) और आन्तरिक ब्रह्माण्ड के सब मंडलों (सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य मंडल) से ऊपर उठकर शब्दातीत पद में पहुँच जाती है || ७ ||

    यहाँ सुरत (चेतन आत्मा) अपने आपको समर्पित करके परमात्मा को भोग लगाती है (आत्मसमर्पणरूप नैवेद्य चढ़ाती है)। इसका फल यह होता है कि सुरत अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा के बीच पहले से आ रहा सेवक और सेव्य का भाव (संबंध) सदा के लिए छूट जाता है ||८|| 

     अब जीवात्मा और परमात्मा दोनों एक ही हो जाते हैं अर्थात् जीवात्मा परमात्मा से एकत्व प्राप्त कर लेता है और तब सुख-दुःख जैसे द्वन्द्व (द्वैत) भावों में से कोई भी नहीं रह पाता ||९|| 

     सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि हे साधको! ऐसी आरती (पूजा या भक्ति) करो, जिससे कि संसार में फिर जन्म नहीं ले सको ||१०||


टिप्पणी

 

विद्वता एवं साधना के मानक संत बाबा लाल दास जी महाराज
टिप्पणीकार
    १. पूजन के समय किन्हीं महापुरुष या देवमूर्ति के समक्ष कर्पूर या घी का प्रज्वलित दीपक गोलाकार घुमाना आरती करना कहा जाता है। आरती करने का लक्ष्य है- दीपक के प्रकाश में महापुरुष या देवमूर्ति के संपूर्ण अवयवों के सम्यक् रूप से दर्शन करना आवाहन, आसन, अर्घ्य, पाद्य, आचमन, मधुपर्क, स्नान, वस्त्राभरण, यज्ञोपवीत, गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, तांबूल, परिक्रमा और वंदना-ये पूजन के अंग हैं। 

 इस तरह हम देखते हैं कि आरती पूजन का ही एक अंग है। संतों ने 'आरती' शब्द का प्रयोग पूजन अथवा भक्ति के लिए भी किया है। संतों की पूजा मानसिक भी होती है, जिसमें पूजा की सारी सामग्री मनोमयी ( मन-ही-मन की बनी हुई) होती है। सन्त यह भी मानते हुए दीखते हैं कि दृष्टियोग और शब्दयोग के द्वारा साधक अपने अन्दर जो कुछ भी प्रत्यक्ष करता है, उसके लिए वही परमात्म-पूजन की सर्वश्रेष्ठ सामग्री बन जाता है। दृष्टियोग और शब्दयोग करना सन्तों की दृष्टि में परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ पूजा है।

     .  भक्त अपने को परमात्मा से भिन्न समझ कर और अपने को सेवक तथा परमात्मा को सेव्य ( स्वामी ) समझकर भक्ति आरंभ करता है । भक्ति  पूरी करके जब वह परमात्मा में पहुंच जाता है, तब उसके और परमात्मा के बीच का सेवक-सेव्य भाव मिट जाता है और दोनों में एकता स्थापित हो जाती है ।

     3.  १०वें पद्म में चौपाई के चरण हैं। ∆

( पदावली के सभी छंदों के बारे में विशेष जानकारी के लिए पढ़ें-- LS14 महर्षि मँहीँ-पदावली की छन्द-योजना ) 




आगे है-
( ११ ) 
॥ विनती (दोहा) ॥ 

तुम साहब रहमान हो, रहम करो सरकार.... 


पदावली भजन नंबर 11 'विनती' को शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित पढ़ने के लिए 👉   यहां दबाएं



   महर्षि मेँहीँ पदावली : शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित पुस्तक में उपर्युक्त लेख निम्न प्रकार से प्रकाशित है--


पदावली भजन नंबर९+ १०


पदावली भजन नंबर १०

पदावली भजन नंबर१०क

पदावली भजन नंबर१०+११

"महर्षि मेँहीँ पदावली सटीक" नामक पुस्तक में उपर्युक्त भजन के शब्दार्थ और पदार्थ निम्न प्रकार प्रकाशित हैं- इसके टीकाकरण कर्ता पूज्यपाद महर्षि संतसेवी जी महाराज के नाम से प्रकाशित  है--

मेँहीँ पदावली भजन नंबर9+10

मेँहीँ पदावली भजन नंबर10+11

मेँहीँ पदावली भजन नंबर10

"महर्षि मेँहीँ पदावली : शब्दार्थ पदार्थ सहित" नामक पुस्तक में उपर्युक्त भजन के शब्दार्थ और पदार्थ निम्न प्रकार प्रकाशित हैं- इसके टीकाकरण कर्ता पूज्यपाद महर्षि श्रश्री श्रीधर दास जी महाराज के नाम से प्रकाशित  है--

महर्षि मेँहीँ पदावली भजन नंबर९+१०
महर्षि मेँहीँ पदावली भजन नंबर१०

महर्षि मेँहीँ पदावली भजन नंबर१०+११


प्रभु प्रेमियों !  "महर्षि मेँहीँ पदावली शब्दार्थ, पद्यार्थ सहित" नामक पुस्तक  से इस भजन के शब्दार्थ, भावार्थ द्वारा आपने जाना कि संत-महात्मा, सद्गुरु, शब्द ध्यान और बिंदु ध्यान करना, संतों की दृष्टि में सर्वोत्तम आती है। अथवा ध्यान अभ्यास करना सर्वोत्तम आरती है । आदि। इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले  पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद्य का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नांकित वीडियो देखें।




महर्षि मेंहीं पदावली, शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित।
महर्षि मेँहीँ पदावली.. 
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---ओके---
P10 || सत्य पुरुष की आरति कीजै पदावली भजन अर्थ सहित || संतमत आरती || Best aarti of saints P10 || सत्य पुरुष की आरति कीजै पदावली भजन अर्थ सहित || संतमत आरती || Best aarti of saints Reviewed by सत्संग ध्यान on 12/07/2019 Rating: 5

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