कबीर वाणी 04 । Why need a true guru । बिनु गुरु ज्ञान नाम नहिं पैह़ो । भजन भावार्थ सहित

संत कबीर साहब की वाणी / 04

    प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "संतवाणी सटीक" से संत श्री कबीर साहब की वाणी "बिनु गुरु ज्ञान नाम नहिं पैहो...' भजन का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी पढेंगे। जिसे सद्गुरु महर्षि  मेंहीं परमहंस जी महाराज ने लिखा है।

गुरु एक शरीर है या ज्ञान? गुरु कहाँ मिलेंगे? कितने प्रकार के गुरु होते हैं? क्या बिना गुरू के भी ज्ञान प्राप्ति संभव है? ज्ञानी पुरुष गुरु और शिष्य तथा अध्यात्मिक गुरु इनमें आप से संबंध क्या है? आदि बातों को समझाते हुए सदगुरु कबीर साहब कहते हैं-- "बिनु गुरु ज्ञान नाम नहिं पैहो,... इस बानी का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी पढ़ते-पढ़ते हम लोग निम्नांकित बातों को भी समझ जाएंगे जैसे कि गुरु ज्ञान की बातें, एस्ट्रोलॉजी गुरु ज्ञान, गुरु ज्ञान बुक्स, गुरु कौन है? गुरु भजन, गुरु महिमा, गुरुजी का ज्ञान, गुरु ज्ञान की भांग पिलाई, गर्भ ज्ञान, गुरु मंत्र, गुरु के बिना ज्ञान नहीं कविता आदि बातें।

सदगुरु कबीर साहब के इस भजन के पहले वाले भजन को अर्थ सहित पढ़ने के लिए    यहां दबाएं।


संत कबीर साहब और टीकाकार सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज कबीर वाणी अर्थ सहित
संत कबीर साहब और टीकाकार 

Why need a true guru

संत कबीर साहब जी कहते हैं कि जो लोग संत सतगुरु से दीक्षित नहीं होते हैं, वे भवसागर से तरने की युक्ति को क्या जानेंगे? जैसे कोई जन्मांध व्यक्ति कहे कि रूप विषय कुछ नहीं होता है, तो उसे क्या कोई आंख वाले मान लेगा? इसी तरह जो ज्ञान संत सतगुरु से दीक्षा लेकर प्राप्त होता है, वह निगुरा नहीं जान सकता। इसे अच्छी तरह समझने के लिए पाठ करें-

संत सदगुरु कबीर साहब की वाणी

॥ मूल पद्य ॥

बिनु गुरु ज्ञान नाम नहिं पैहो , मिरथा जनम गंवाई हो ॥टेक ॥ जल भरि कुंभ धरे जल भीतर , बाहर भीतर पानी हो ।
उलटि कुंभ जल जलहि समैहैं , तब का करिहौ ज्ञानी हो ॥१ ॥ बिन करताल पखावज बाजै , बिनु रसना गुन गाया हो । गावनहार के रूप न रेखा , सतगुरु अलख लखाया हो ॥२ ॥
है अथाह थाह सबहिन में , दरिया लहर समानी हो।
जाल डारि का करिहौ धीमर , मीन के है गै पानी हो ॥३ ॥ पंछीक खोज व मीन कै मारग , ढूँढ़े न कोइ पाया हो ।
कहै कबीर सतगुरु मिल पूरा , भूले को राह बताया हो ॥४ ॥

शब्दार्थ - मिरथा - बिरथा , व्यर्थ । कुम्भ - घड़ा , कलश , घेला । रसना - जिह्वा । अथाह - जिसकी थाह वा पता न हो । गूढ - गुप्त , जिसके जानने में कठिनता हो ।

पद्यार्थ - गुरु के ज्ञान के बिना नाम नहीं पाओगे , व्यर्थ ही जन्म गँवाओगे । घड़े को जल से भरकर जल के अन्दर रखे , तो उस घड़े के बाहर और भीतर पानी - ही - पानी है । ( और ) कुम्भ - जल को उलटने पर जल जल में समा जाएगा , हे ज्ञानी ! तब तुम क्या करोगे ? बिना करताल और पखावज के ( करताल और पखावज का बाजा ) बजता है , बिना जिह्वा के गुण गाया जाता है । गानेवाले की रूप - रेखा नहीं है । सद्गुरु ने अलख ( परमात्मा ) लखाया है । वह परमात्मा गूढ ( गुप्त ) है , उसका पता सबमें है । लहर वा तरंग वा ढेव में समुद्र समाया हुआ है । हे धीवर ! जाल डालकर क्या करोगे ? मछली पानी हो गई है । पक्षी की खोज और मछली का रास्ता ढूँढ़ने पर ( भी ) किसी ने नहीं पाया है । कबीर साहब कहते हैं कि पूरे सद्गुरु से मिलकर भूले हुए को रास्ता बतलाया है। 


सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज, संतमत के महान प्रचारक,
सद्गुरु महर्षि मेंहीं

तात्पर्यार्थ - जैसे जल से भरा घड़ा जल में रखा हो , उसी तरह जीव - रूप चेतन आत्मा या सुरत से भरा पिण्ड परमात्मा में रहता है । जैसे कुम्भ - जल के उलटने पर वह जल घड़े - रूप आवरण से छूटकर घड़े के बाहर के जल से मिल जाता है , इसी तरह पिण्ड से आवृत्त चेतन आत्मा या सुरत उलटकर ( बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो ) पिण्ड से छूटकर परमात्मा से मिल जाएगी । तब ज्ञान - साधन का कर्म करना ज्ञानी को नहीं रहेगा । अन्तर्मुखी चेतन आत्मा को करताल और पखावज बाजे की तरह अनहद नाद की ध्वनियाँ सुनने में आती हैं । यह अन्तर्मुखगामिनी चेतन आत्मा बिना रूप - रेखा और जिह्वा के होकर सद्गुरु का गुण - गान करती है , जिन्होंने उसको अलख लखाया है । परमात्मा इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है , अतएव उसकी थाह - पता इन्द्रियों द्वारा नहीं लगता है ; परन्तु वह अपरम्पार - स्वरूपी और सर्वव्यापी है । इसलिए जैसे समुद्र अपनी लहर में है , उसी तरह अपनी लहर - रूप चेतन आत्मा में वह समाया हुआ है । इसी तरह उसका पता ज्ञान - गम्य रूप से सबके अन्दर है । अन्तर्मुख हुई चेतन आत्मा जब आत्म - ज्ञान - द्वारा परमात्म - स्वरूप को पहचान जाती है , तब उसकी लहर - रूप जीवत्व - दशा छूट जाती है और वह काल जाल में फंसनेयोग्य नहीं रहती है । कबीर साहब विहंगम और मीनमार्ग से चलने का आदेश देते हैं । जो सदगुरु से मिलेगा , उसको ऊपरकथित अन्तर्मार्ग मिलेगा और तब वह दूसरे को भी रास्ता बता सकेगा ।

 टिप्पणी - अनहद ध्वनियाँ विविध प्रकार की होती हैं , केवल करताल और पखावज की तरह नहीं । वहाँ करताल और पखावज सब कहकर अनहद ध्वनियों का संकेत किया गया है । शून्य- ध्यान से पक्षी वा विहंगम की तरह शून्य - पथ पर चला जाता है , इसको विहंगम - मार्ग कहते हैं । इसपर दृष्टियोग - द्वारा यात्रा की जाती है । पक्षीवत् देखना और आकाश में गमन होना , इस यात्रा में होता रहता है । इसीलिए यह विहंगम - मार्ग कहलाता है । जैसे मछली भाठे से सिरे की ओर जल की उलटी धारा पर सुगमता से चलती है , इसी तरह शब्द - धारों पर सुरत नीचे से ऊँचे - से - ऊँचे की ओर अर्थात् स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर ( शब्द - धार के प्रवाह की ओर से उसके उद्गम की ओर अर्थात् शब्द की उलटी धार पर ) सुगमता से चल सकती है । इसलिए नादानुसंधान या सुरत - शब्द - योग को मीन - मार्ग कहते हैं । शून्य - ध्यान और शब्द - ध्यान का वर्णन तो कबीर साहब की तरह अन्य संतों की वाणियों में भी भरा हुआ है । संस्कृत - ग्रंथों में भी इसका कम वर्णन देखने में नहीं आता । प्रमाण के लिए ' सत्संग - योग ' पढ़कर देखिये ।


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      प्रभु प्रेमियों ! संतवाणी अर्थ सहित में आज हम लोगों ने संत कबीर साहब की बाणी से जाना कि जीवन में गुरु की आवश्यकता कितनी है। इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले  पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। निम्न वीडियो मेंं प्रयुक्त लेेेख का पाठ किया गया है।




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कबीर वाणी 04 । Why need a true guru । बिनु गुरु ज्ञान नाम नहिं पैह़ो । भजन भावार्थ सहित कबीर वाणी 04 । Why need a true guru । बिनु गुरु ज्ञान नाम नहिं पैह़ो । भजन भावार्थ सहित Reviewed by सत्संग ध्यान on 6/24/2020 Rating: 5

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