P12 पदावली भजन 12 प्रभु अटल अकाम अनाम, अर्थ सहित || ईश्वर कैसा है || What is the nature of god

महर्षि मेँहीँ पदावली / 12

      प्रभु प्रेमियों ! संतवाणी अर्थ सहित में आज हम लोग जानेंगे- संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "महर्षि मेँहीँ पदावली" जो हम संतमतानुयाइयों के लिए गुरु-गीता के समान अनमोल कृत है। इस कृति के 12वें, पद्य- "प्रभु अटल अकाम अनाम,..." का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी के बारे में । जिसे पूज्यपाद लालदास जी महाराज नेे किया है। आइये इसके लेखक और कवि संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के साथ वाणी के टीकाकार का दर्शन करें--

इस पद्य के पहले वाले पद्य पदावली भजन नंबर 11 "तुम साहब रहमान हो..," को शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित पढ़ने के लिए  👉 यहां दबाएं

P12, What is the nature of god "प्रभु अटल अकाम अनाम,..." महर्षि मेंहीं पदावली भजन अर्थ सहित । सद्गुरु महर्षि मेंहीं और टीकाकार लाल दास जी महाराज
सद्गुरु महर्षि मेंहीं और टीकाकार लाल दास जी महाराज

ईश्वर कैसा  है ? What is the nature of god. 

प्रभु प्रेमियों ! सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस भजन में बताया है कि- ईश्वर कौन हैं? कहाँ हैं? कैसे मिलेंगे? परमात्मा कैसा है? क्या परमात्मा हिलता - डुलता है? उसमें किसी प्रकार के बिकार है ं? क्या परमात्मा किसी सीमा के अन्तर्गत है? क्या परमात्मा जन्म लेते हैं? क्या परमात्मा के रंग- रूप है? क्या परमात्मा में किसी प्रकार के गुण है? परमात्मा कौन सी दृष्टि से देखा जा सकता है? परमात्मा के कौन-कौन से नाम है? परमात्मा में क्या समा सकता है? परमात्मा के गुण-धर्म और आकर कैसा है? परमात्मा की भक्ति क्यों करनी चाहिए? इत्यादि बातें. इसके साथ ही आपको निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान मिलेगा --- संसार क्या है,ईश्वर कैसा है,ईश्वर एक है,सबसे बड़ा ईश्वर कौन है,क्या ईश्वर सत्य है,ईश्वर को कैसे देख सकते हैं,वैदिक ईश्वर,ईश्वर का स्वरूप कैसा है, ईश्वर ईश्वर,भगवान कौन है,ईश्वर की सच्चाई,ईश्वर हमसे क्या चाहता है,ईश्वर शक्ति,ईश्वर किसे कहते हैं, शास्त्र के अनुसार ईश्वर की परिभाषा आदि।." इस विषय में पूरी जानकारी के लिए इस भजन का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है। उसे पढ़ें-

 
 ( १२ )

प्रभु   अटल  अकाम  अनाम,  हो साहब  पूर्ण धनी    ॥ १ ॥ 
सद्गुरु महर्षि मेंहीँ
संत कवि

अति अलोल अक्षर क्षर न्यारा,   शुद्धातम  सुखधाम   ॥ २ ॥ 
                                                       हो साहब० ॥
अविगत अज विभु अगम अपारा, सत्य पुरुष सतनाम ॥ ३ ॥ 
                                                       हो साहब० ॥ 
सीम आदि मध अन्त विहीना, सब  पर   पूरन   काम  ॥ ४ ॥ 
                                                        हो साहब० ॥ 
बरन विहीन, न रूप न रेखा, नहिं रघुवर नहिं श्याम ॥५॥ 
                                                        हो साहब० ॥ 
सत रज तम पर पुरुष प्रकृति पर, अलख अद्वैत अधाम ॥ ६ ॥ 
                                                        हो साहब ० ॥ 
अगुण सगुण दोऊ  तें न्यारा,  नहिं  सच्चिदानन्द  नाम   ॥ ७ ॥ 
                                                         हो साहब० ॥ 
अखिल विश्व पुनि विश्वरूप अणु,   तुममें  करें  मुकाम   ॥ ८ ॥ 
                                                         हो साहब० ॥
सब तुममें प्रभु अँटै होइ तुछ,  तुम अँटो सो नहिं  ठाम   ॥ ९ ॥ 
                                                         हो साहब० ॥
अति आश्चर्य अलौकिक अनुपम, को कहि सक गुण ग्राम॥१०॥                                                             हो साहब० ॥
त्रिपुटी   द्वन्द्व  द्वैत  से   न्यारा,   लेश  न  माया  नाम    ॥ ११ ॥ 
                                                        हो साहब० ॥
करो न कछु कछु होय न तुम बिनु, सबका अचल विराम॥१२॥ 
                                                       हो साहब० ।। 
महिमा अगम अपार  अकथ अति,  बुद्धि  होत  हैरान ।। १३ ।। 
                                                      हो साहब० ।। 
अविरल अटल स्वभक्ति मोहि को,  दे पुरिये मन काम ॥ १४ ॥ 
                                                      हो साहब० ॥

शब्दार्थ

बाबा लालदास जी महाराज
शब्दार्थकार
अटल = जो टले नहीं, जो चले नहीं, जो कुछ भी हिले-डुले नहीं, बिल्कुल स्थिर । अकाम = कामना - रहित, इच्छा-रहित। अनाम = नाम-रहित, कोई वर्णात्मक शब्द जिसका सच्चा नाम नहीं हो, अशब्द, निःशब्द, शब्दातीत, शब्द-रहित । साहब (अ०) = स्वामी, मालिक । पूर्ण धनी = पूरा धनवान्, सर्वसमर्थ, सर्वशक्तिसम्पन्न, सब प्रकार से अपने आपमें पूर्ण । अलोल (अ+लोल ) = अडोल, अकंप, जो चंचल नहीं हो, जो कंपायमान नहीं हो । अक्षर = चेतन प्रकृति । क्षर = जड़ प्रकृति मंडल | न्यारा = भिन्न, अलग, विलक्षण । शुद्धातम = शुद्धात्म, शुद्ध आत्मतत्त्व, निर्विकार और माया - रहित परम प्रभु परमात्मा । सुख धाम = अविनाशी सुख के घर या भंडार । अविगत ( अ + विगत ) = जिससे कोई स्थान खाली नहीं हो, सर्वव्यापक, अज्ञेय, जो इन्द्रियों से न जाना जा सके, अगोचर; देखें- “अविगत गति कछु कहत न आवै ।" (सूरदासजी) विभु = महान्, बहुत बड़ा, सर्वव्यापक । अगम = अगम्य, बुद्धि की पहुँच से बाहर, बुद्धि से न जाननेयोग्य, अथाह । सत्य पुरुष = परम अविनाशी पुरुष, परमात्मा, सत्-चित्-आनन्दमयी परा प्रकृति में व्याप्त परमात्म- अंश । सत्नाम = अविनाशी ( अपरिवर्तनशील ) नाम, सारशब्द जो परमात्मा का वास्तविक नाम है और जो परमात्मा का स्वरूप ही माना जाता है। रघुवर = जो रघुकुल में श्रेष्ठ हो, रामचन्द्र । श्याम = श्रीकृष्ण । सब पर = सबसे परे, सबसे श्रेष्ठ । पूरन काम = सभी इच्छाओं को पूरा करनेवाला । बरन = वर्ण, जाति, रंग, प्रकार । रेखा = चिह्न, वह जिससे किसी की पहचान हो जाए, रूप । रूपरेखा = रूप, रूप और चिह्न । पुरुष = चेतन प्रकृति । प्रकृति = जड़ प्रकृति । अद्वैत = अद्वितीय, एक ही एक, एकमात्र, अनुपम, बेजोड़, जिसके समान दूसरा कुछ वा कोई नहीं हो । अधाम = जिसके रहने का घर नहीं हो, जो पूरा का पूरा किसी स्थान में नहीं अँट सके । अगुण = निर्गुण, आदिनाद, चेतन प्रकृति, चेतन प्रकृति में व्याप्त परमात्म-अंश--निर्गुण ब्रह्म । सगुण = जड़ प्रकृतिमंडल, त्रय गुणों से बने पदार्थ या रूप में व्याप्त परमात्म- अंश - सगुण ब्रह्म । सच्चिदानन्द =  सच्चिदानन्द ब्रह्म, सच्चिदानन्दमयी परा प्रकृति में व्याप्त परमात्म-अंश । अखिल विश्व = संपूर्ण ब्रह्मांड । विश्वरूप = विश्व तक व्यापक रूप, विराट् रूप जिसे भगवान् ने नारद, बलि, अर्जुन आदि को दिखाया था ( गीता, अध्याय ११ में भी इस रूप का वर्णन है ) अणु = अणु से अणु रूप,अणोरणीयान् रूप (देखें गीता, अ० ८, श्लोक ९ एवं मनुस्मृति, अ० १२, श्लोक १२२), श्वेत ज्योतिर्मय विन्दु जो परमात्मा का छोटे-से-छोटा सगुण-साकार रूप माना जाता है। मुकाम (अरबी) = ठहरने का स्थान, पड़ाव, निवास । तुछ = तुच्छ, छोटा, थोड़ा । अनुपम = उपमा-रहित, जिसके बारे में उपमा के द्वारा भी कुछ कहा नहीं जा सके। गुणग्राम = गुणसमूह । त्रिपुटी = ज्ञाता ज्ञेय-ज्ञान, ध्याता-ध्येय-ध्यान अथवा भक्त- भगवन्त-भक्ति का तिहरा भेद ( पारस्परिक अन्तर ) । लेश = निशान, चिह्न, लगाव, संबंध, थोड़ा। माया = जड़ात्मिका मूल प्रकृति, अविद्या, अज्ञानता, धोखा, मिथ्या ज्ञान । अचल = जो कभी चले नहीं, सदा स्थिर रहनेवाला, नित्य, अविनाशी । विराम = ठहराव, स्थिरता, सुख, शान्ति, विश्राम स्थल । अविरल = घना, अटूट, निरन्तर, लगातार । 



( अन्य शब्दों की जानकारी के लिए "महर्षि मेँहीँ + मोक्ष-दर्शन का शब्दकोश" देखें ) 






भावार्थ -
टिप्पणीकार, बाबा लाल दास जी महाराज, संतमत के वेदव्यास
टिप्पणीकार
     हे परम प्रभु परमात्मा ! तुम कभी नहीं टलनेवाले ( सदा स्थिर रहनेवाले - नित्य, अविनाशी ), इच्छा-रहित, नाम-रहित या शब्द-रहित, सबके स्वामी और सब प्रकार से अपने आपमें पूर्ण हो ॥१ ॥ 

     तुम बिलकुल ही कंपायमान न होनेवाले और क्षर-अक्षर (जड़-चेतन प्रकृतियों) से भिन्न हो । तुम्हीं निर्विकार तथा माया-रहित आत्मतत्त्व और नित्य सुख के भंडार हो ॥२॥ 

     तुम सर्वव्यापक या अगोचर, जन्म-रहित (उत्पत्ति-विहीन), सबसे बड़े, बुद्धि की पहुँच से बाहर और अपार हो । सत्य पुरुष और सत्नाम भी तुम्हीं कहलाते हो ॥३॥ 

     तुम सीमा - रहित (असीम ), आदि-रहित ( अनादि), मध्य-रहित, अन्त-रहित (अनन्त), सबसे परे और अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं को पूर्ण कर देनेवाले हो ॥४॥

     तुम्हारा न कोई रंग है और न कोई आकृति, न कोई चिह्न । रघुवंशियों में श्रेष्ठ रामचन्द्रजी और यदुवंशमणि श्रीकृष्णचन्द्रजी आदि अवतारी पुरुषों में से भी कोई तुम नहीं हो ॥५॥

     तुम सत्त्व, रज और तम - इन त्रय गुणों से विहीन, प्रकृति-पुरुष (जड़-चेतन प्रकृतियों) से परे, स्थूल या सूक्ष्म दृष्टि से भी न दिखलाई पड़नेयोग्य, अद्वितीय (एक-ही-एक, एकमात्र, बेजोड़ ) और विशेष वास-स्थान से रहित हो ॥६॥ 

     तुम निर्गुण (चेतन प्रकृति अथवा निर्गुण ब्रह्म) और सगुण (जड़ प्रकृति अथवा सगुण ब्रह्म ) - दोनों से ऊपर या भिन्न हो; सच्चिदानन्द भी तुम्हारा नाम नहीं है॥ ७ ॥ 

     सम्पूर्ण विश्व ( सब ब्रह्माण्ड ), विश्वरूप ( विराट् रूप, विश्ववास रूप ) और फिर अणोरणीयान् रूप ( अणु से अणु रूप- ज्योतिर्मय विन्दु ) - ये सभी तुम्हारे ही अन्दर अवस्थित हैं ॥ ८ ॥

      हे प्रभो ! सब कुछ तुम्हारे अन्दर छोटा पड़ता हुआ ही अँटता है; परन्तु तुम पूरे के पूरे कहीं अँट सको, ऐसा कोई स्थान नहीं है ॥९॥ 

     तुम अत्यन्त आश्चर्यमय, परम अलौकिक और उपमा-रहित (बेजोड़ ) हो; तुम्हारे गुणसमूह का कथन कौन कर सकता है अर्थात् कोई नहीं ॥१०॥

     तुम त्रिपुटी (ज्ञाता - ज्ञेय - ज्ञान के तिहरे भेद ) और द्वन्द्व - द्वैत ( सुख-दुःख जैसे परस्पर विरोधी भावों के जोड़े ) से ऊपर हो। तुममें माया (अविद्या, अज्ञानता, धोखे) का नामोनिशान तक नहीं है ॥ ११ ॥ 

     तुम कुछ नहीं करते हो अर्थात् तुम निष्क्रिय हो; परन्तु तुम्हारे किये बिना कुछ होता भी नहीं है । तुम्हीं सबके अन्तिम और परम अविनाशी विश्राम स्थल हो ॥ १२ ॥ 

     तुम्हारी महिमा और स्वरूप बुद्धि से नहीं जाननेयोग्य, अपार और अत्यन्त अकथनीय है, उसको समझने में बड़े-बड़े विद्वानों की भी बुद्धि परेशान हो जाती है ॥१३॥ 

     हे प्रभो ! तुम मुझे सदा एक समान स्थिर रहनेवाली अपनी भक्ति प्रदान करके मेरे मन की इच्छा ( तुम्हें प्राप्त करने की इच्छा पूरी कर दो ॥१४॥


टिप्पणी

भावार्थकार बाबा लालदास जी महाराज, संतमत के वेदव्यास
भावार्थकार

     १. किसी पदार्थ का नाम कोई शब्द ही होता है। जहाँ तक सृष्टि है, वहाँ तक शब्द की स्थिति है। अकंपायमान अनन्तस्वरूपी परमात्मा में शब्द की स्थिति संभव नहीं, इसीलिए परमात्मा अनाम ( अशब्द, शब्दातीत, अध्वनि ) कहलाता है । परमात्मा और शब्दातीत पद वा परम पद में कोई अन्तर नहीं है ।

     २. अनन्तस्वरूपी परमात्मा के निज स्वरूप को ही शुद्ध आत्मतत्त्व कहते हैं । 

       ३. जिस आदिशब्द से सृष्टि हुई है, उसे सत्नाम भी कहते हैं और परम प्रभु परमात्मा प्रायः सत्पुरुष कहा ही जाता है; क्योंकि वह परम अविनाशी पुरुष (तत्त्व) है; लेकिन कभी-कभी विशेष अर्थ में सत्-चित्-आनन्दमयी परा प्रकृति में व्याप्त परमात्म-अंश भी सत्पुरुष कहा जाता है । सन्तों में किन्हीं-किन्हीं ने परमात्मा को सत्पुरुष के साथ-साथ सत्नाम भी कहा है; जैसे- “अजर लोक सत्पुरुष धाम । सोइ सन्त सुझावत सत्नाम ॥” (शब्दावली : सन्त तुलसी साहब) “गरीबदास सतपुरुष बिदेही, साँचा सतगुरु दरसावै ।" (सन्त गरीबदासजी) सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंसजी महाराज ने अपने एक प्रवचन में भी परमात्मा को सत्नाम कहा देखें- “ वही सत्नाम, सत्साहब और कर्त्ता पुरुष है, वही आत्मा है, वही परमात्मा है ।" (सत्संग-सुधा, द्वितीय भाग, पृ० ३९-४० ) ईसा मसीह आदिशब्द और परमात्मा को अभिन्न मानते हैं। इसी तरह भर्तृहरि ने भी अपने शब्दाद्वैतवाद में आदिशब्द और परमात्मा का एक ही स्वरूप माना है । सन्तों का कथन है कि आदिशब्द परमात्म स्वरूप की पहचान करा देता है, इसीलिए वह परमात्मा का स्वरूप कहा जाता है; परन्तु वह परमात्मा नहीं है- “आदिसब्द ओंकार है, बोले सब घट माहिं । दादू माया बिस्तरी, परम तत्तु यह नाहिं |” ( सन्त दादू दयालजी) 

     ४. रूप के अन्दर रंग और आकृति- दोनों आते हैं। परमात्मा के न कोई रंग (जैसे काला, पीला, लाल, उजला) है, न कोई आकृति (जैसे गोल, चौकोर, तिकोन आदि)। 

     . कुछ शास्त्रों का कथन है कि परमात्मा निष्क्रिय है, उसके द्वारा कोई क्रिया या कर्म नहीं होता । जैसे इच्छा-विहीन सूर्य के उदित होने पर संसार के सब व्यवहार होने लगते हैं; जैसे रत्न में प्रकाश करने की इच्छा नहीं रहने पर भी उसकी स्थिति मात्र से स्वतः प्रकाश होता है और जैसे इच्छा-विहीन चुम्बक के सामीप्य में जड़ लोहा क्रियाशील हो 'उठता है, उसी प्रकार इच्छा-विहीन और निष्क्रिय परमात्मा की निकटता में उसी से स्फूर्ति पाकर सारा कर्म (सृष्टि-प्रलय का व्यापार) मूल प्रकृति करती है । विचारक कहते हैं कि मूल प्रकृति जड़ है, वह अपने-आप कुछ नहीं कर सकती । परमात्मा के सान्निध्य में उसी से प्रेरणा पाकर मूल प्रकृति द्वारा किया गया कर्म अन्ततः परमात्मा द्वारा ही किया गया कर्म मानना पड़ेगा। ऐसे विचारक मानते हैं कि प्रकृति अनाद्या है अर्थात् प्रकृति कभी उत्पन्न ही नहीं हुई है, वह सदा से है ही । ऐसे विचारक यह भी मानते हैं कि अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं हो सकती अर्थात् जो वस्तु पहले से अस्तित्व में नहीं है, उससे दूसरी कोई अस्तित्ववाली वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती । इस बात को दूसरे वाक्य में इस तरह कहा जा सकता है कि अस्तित्ववान् पदार्थ से ही अस्तित्ववान् पदार्थ उत्पन्न हो सकता है, शून्य से नहीं; जैसे मिट्टी के बिना घड़ा नहीं हो सकता।

      दूसरे अधिकांश विचारकों का कहना है कि उक्त सिद्धान्त केवल प्राकृतिक जगत् के लिए सत्य है; परन्तु परमात्मा प्राकृतिक तत्त्व नहीं, परमालौकिक सर्वशक्तिसम्पन्न अप्राकृतिक तत्त्व है; वह उक्त सिद्धान्त (नियम) से बँधा हुआ नहीं है । उसके पास पहले से कुछ नहीं रहता है, फिर भी कुछ बना लेता है । ( “तदि अपना आपु आप ही उपाया। नाँ किछु ते किछु करि दिखलाया ॥” - गुरु नानकदेवजी ) सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति परमात्मा द्वारा ही सृजित है । परमात्मा अनन्तस्वरूपी होने के कारण अकम्प और अडोल है, तथापि उसी के द्वारा विलक्षण और अत्यन्त चमत्कारपूर्ण ढंग से सृष्टि-प्रलय का कर्म होता रहता है और कर्म-बंधन भी उसे नहीं लगता। कर्म बंधन का नहीं लगना कर्म नहीं करने के जैसा है।

      वस्तुतः परमात्मा की महिमा अपार, अत्यन्त अकथनीय और बुद्धि की समझ में नहीं आनेयोग्य है । बुद्धि उसे समझने के प्रयास बारंबार परेशान हो जाती है, फिर भी समझ नहीं पाती। संत कबीर साहब ने ठीक ही कहा है- "जस कथिये तस होत नहिं, जस है तैसा सोइ । कहत सुनत सुख ऊपजै, अरु परमारथ होइ ॥

६. १२वें पद्म के प्रथम चरभण में २५ (१३-१२) मात्राएँ हैं और उसके नीचे के चरण सरसी छन्द के हैं । ∆  

( पदावली के सभी छंदों के बारे में विशेष जानकारी के लिए पढ़ें-- LS14 महर्षि मँहीँ-पदावली की छन्द-योजना ) 


 

      

  

आगे है--

 ( १३ )

 सर्वेश्वरं सत्य शान्ति स्वरूपं । सर्वमयं व्यापकं अज अनूपं ॥१॥ तन बिन अहं बिन बिना रंग रूपं । तरुणं न बालं न वृद्धं स्वरूपं ॥२॥....... 


पदावली भजन नंबर 13 के  शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी को पढ़ने के लिए    👉 यहां दबाएं
 

     प्रभु प्रेमियों  ! "महर्षि मेँहीँ पदावली : शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी-सहित" पुस्तक में उपरोक्त भजन नंबर 12 का लेख निम्न प्रकार से प्रकाशित है--

P12  पदावली भजन 12  प्रभु अटल अकाम अनाम, अर्थ सहित
पदावली भजन नंबर 12ख

पदावली भजन नंबर 12ग

पदावली भजन नंबर 12घ

पदावली भजन नंबर 12घ
पदावली भजन नंबर 12+13

          प्रभु प्रेमियों !  "महर्षि मेँहीँ पदावली : शब्दार्थ, पद्यार्थ सहित" नामक पुस्तक के इस भजन के शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी द्वारा आपने जाना कि ईश्वर कौन हैं? कहाँ हैं? कैसे मिलेंगे? परमात्मा कैसा है? क्या परमात्मा हिलता - डुलता है? उसमें किसी प्रकार के बिकार है ं? क्या परमात्मा किसी सीमा के अन्तर्गत है? क्या परमात्मा जन्म लेते हैं? क्या परमात्मा के रंग- रूप है? क्या परमात्मा में किसी प्रकार के गुण है? परमात्मा कौन सी दृष्टि से देखा जा सकता है? परमात्मा के कौन-कौन से नाम है? परमात्मा में क्या समा सकता है? परमात्मा के गुण-धर्म और आकर कैसा है? परमात्मा की भक्ति क्यों करनी चाहिए? इत्यादि बातें. । इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने इससे आपको आने वाले  पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद्य का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नांकित वीडियो देखें--




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P12 पदावली भजन 12 प्रभु अटल अकाम अनाम, अर्थ सहित || ईश्वर कैसा है || What is the nature of god P12  पदावली भजन 12  प्रभु अटल अकाम अनाम, अर्थ सहित  || ईश्वर कैसा  है || What is the nature of god Reviewed by सत्संग ध्यान on 12/08/2019 Rating: 5

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