महर्षि मेँहीँ पदावली / 12
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सद्गुरु महर्षि मेंहीं और टीकाकार लाल दास जी महाराज |
ईश्वर कैसा है ? What is the nature of god.
शब्दार्थकार |
टिप्पणीकार |
तुम बिलकुल ही कंपायमान न होनेवाले और क्षर-अक्षर (जड़-चेतन प्रकृतियों) से भिन्न हो । तुम्हीं निर्विकार तथा माया-रहित आत्मतत्त्व और नित्य सुख के भंडार हो ॥२॥
तुम सर्वव्यापक या अगोचर, जन्म-रहित (उत्पत्ति-विहीन), सबसे बड़े, बुद्धि की पहुँच से बाहर और अपार हो । सत्य पुरुष और सत्नाम भी तुम्हीं कहलाते हो ॥३॥
तुम सीमा - रहित (असीम ), आदि-रहित ( अनादि), मध्य-रहित, अन्त-रहित (अनन्त), सबसे परे और अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं को पूर्ण कर देनेवाले हो ॥४॥
तुम सत्त्व, रज और तम - इन त्रय गुणों से विहीन, प्रकृति-पुरुष (जड़-चेतन प्रकृतियों) से परे, स्थूल या सूक्ष्म दृष्टि से भी न दिखलाई पड़नेयोग्य, अद्वितीय (एक-ही-एक, एकमात्र, बेजोड़ ) और विशेष वास-स्थान से रहित हो ॥६॥
तुम निर्गुण (चेतन प्रकृति अथवा निर्गुण ब्रह्म) और सगुण (जड़ प्रकृति अथवा सगुण ब्रह्म ) - दोनों से ऊपर या भिन्न हो; सच्चिदानन्द भी तुम्हारा नाम नहीं है॥ ७ ॥
सम्पूर्ण विश्व ( सब ब्रह्माण्ड ), विश्वरूप ( विराट् रूप, विश्ववास रूप ) और फिर अणोरणीयान् रूप ( अणु से अणु रूप- ज्योतिर्मय विन्दु ) - ये सभी तुम्हारे ही अन्दर अवस्थित हैं ॥ ८ ॥
हे प्रभो ! सब कुछ तुम्हारे अन्दर छोटा पड़ता हुआ ही अँटता है; परन्तु तुम पूरे के पूरे कहीं अँट सको, ऐसा कोई स्थान नहीं है ॥९॥
तुम अत्यन्त आश्चर्यमय, परम अलौकिक और उपमा-रहित (बेजोड़ ) हो; तुम्हारे गुणसमूह का कथन कौन कर सकता है अर्थात् कोई नहीं ॥१०॥
तुम त्रिपुटी (ज्ञाता - ज्ञेय - ज्ञान के तिहरे भेद ) और द्वन्द्व - द्वैत ( सुख-दुःख जैसे परस्पर विरोधी भावों के जोड़े ) से ऊपर हो। तुममें माया (अविद्या, अज्ञानता, धोखे) का नामोनिशान तक नहीं है ॥ ११ ॥
तुम कुछ नहीं करते हो अर्थात् तुम निष्क्रिय हो; परन्तु तुम्हारे किये बिना कुछ होता भी नहीं है । तुम्हीं सबके अन्तिम और परम अविनाशी विश्राम स्थल हो ॥ १२ ॥
तुम्हारी महिमा और स्वरूप बुद्धि से नहीं जाननेयोग्य, अपार और अत्यन्त अकथनीय है, उसको समझने में बड़े-बड़े विद्वानों की भी बुद्धि परेशान हो जाती है ॥१३॥
हे प्रभो ! तुम मुझे सदा एक समान स्थिर रहनेवाली अपनी भक्ति प्रदान करके मेरे मन की इच्छा ( तुम्हें प्राप्त करने की इच्छा पूरी कर दो ॥१४॥
भावार्थकार |
१. किसी पदार्थ का नाम कोई शब्द ही होता है। जहाँ तक सृष्टि है, वहाँ तक शब्द की स्थिति है। अकंपायमान अनन्तस्वरूपी परमात्मा में शब्द की स्थिति संभव नहीं, इसीलिए परमात्मा अनाम ( अशब्द, शब्दातीत, अध्वनि ) कहलाता है । परमात्मा और शब्दातीत पद वा परम पद में कोई अन्तर नहीं है ।
३. जिस आदिशब्द से सृष्टि हुई है, उसे सत्नाम भी कहते हैं और परम प्रभु परमात्मा प्रायः सत्पुरुष कहा ही जाता है; क्योंकि वह परम अविनाशी पुरुष (तत्त्व) है; लेकिन कभी-कभी विशेष अर्थ में सत्-चित्-आनन्दमयी परा प्रकृति में व्याप्त परमात्म-अंश भी सत्पुरुष कहा जाता है । सन्तों में किन्हीं-किन्हीं ने परमात्मा को सत्पुरुष के साथ-साथ सत्नाम भी कहा है; जैसे- “अजर लोक सत्पुरुष धाम । सोइ सन्त सुझावत सत्नाम ॥” (शब्दावली : सन्त तुलसी साहब) “गरीबदास सतपुरुष बिदेही, साँचा सतगुरु दरसावै ।" (सन्त गरीबदासजी) सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंसजी महाराज ने अपने एक प्रवचन में भी परमात्मा को सत्नाम कहा देखें- “ वही सत्नाम, सत्साहब और कर्त्ता पुरुष है, वही आत्मा है, वही परमात्मा है ।" (सत्संग-सुधा, द्वितीय भाग, पृ० ३९-४० ) ईसा मसीह आदिशब्द और परमात्मा को अभिन्न मानते हैं। इसी तरह भर्तृहरि ने भी अपने शब्दाद्वैतवाद में आदिशब्द और परमात्मा का एक ही स्वरूप माना है । सन्तों का कथन है कि आदिशब्द परमात्म स्वरूप की पहचान करा देता है, इसीलिए वह परमात्मा का स्वरूप कहा जाता है; परन्तु वह परमात्मा नहीं है- “आदिसब्द ओंकार है, बोले सब घट माहिं । दादू माया बिस्तरी, परम तत्तु यह नाहिं |” ( सन्त दादू दयालजी)
४. रूप के अन्दर रंग और आकृति- दोनों आते हैं। परमात्मा के न कोई रंग (जैसे काला, पीला, लाल, उजला) है, न कोई आकृति (जैसे गोल, चौकोर, तिकोन आदि)।
५. कुछ शास्त्रों का कथन है कि परमात्मा निष्क्रिय है, उसके द्वारा कोई क्रिया या कर्म नहीं होता । जैसे इच्छा-विहीन सूर्य के उदित होने पर संसार के सब व्यवहार होने लगते हैं; जैसे रत्न में प्रकाश करने की इच्छा नहीं रहने पर भी उसकी स्थिति मात्र से स्वतः प्रकाश होता है और जैसे इच्छा-विहीन चुम्बक के सामीप्य में जड़ लोहा क्रियाशील हो 'उठता है, उसी प्रकार इच्छा-विहीन और निष्क्रिय परमात्मा की निकटता में उसी से स्फूर्ति पाकर सारा कर्म (सृष्टि-प्रलय का व्यापार) मूल प्रकृति करती है । विचारक कहते हैं कि मूल प्रकृति जड़ है, वह अपने-आप कुछ नहीं कर सकती । परमात्मा के सान्निध्य में उसी से प्रेरणा पाकर मूल प्रकृति द्वारा किया गया कर्म अन्ततः परमात्मा द्वारा ही किया गया कर्म मानना पड़ेगा। ऐसे विचारक मानते हैं कि प्रकृति अनाद्या है अर्थात् प्रकृति कभी उत्पन्न ही नहीं हुई है, वह सदा से है ही । ऐसे विचारक यह भी मानते हैं कि अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं हो सकती अर्थात् जो वस्तु पहले से अस्तित्व में नहीं है, उससे दूसरी कोई अस्तित्ववाली वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती । इस बात को दूसरे वाक्य में इस तरह कहा जा सकता है कि अस्तित्ववान् पदार्थ से ही अस्तित्ववान् पदार्थ उत्पन्न हो सकता है, शून्य से नहीं; जैसे मिट्टी के बिना घड़ा नहीं हो सकता।
दूसरे अधिकांश विचारकों का कहना है कि उक्त सिद्धान्त केवल प्राकृतिक जगत् के लिए सत्य है; परन्तु परमात्मा प्राकृतिक तत्त्व नहीं, परमालौकिक सर्वशक्तिसम्पन्न अप्राकृतिक तत्त्व है; वह उक्त सिद्धान्त (नियम) से बँधा हुआ नहीं है । उसके पास पहले से कुछ नहीं रहता है, फिर भी कुछ बना लेता है । ( “तदि अपना आपु आप ही उपाया। नाँ किछु ते किछु करि दिखलाया ॥” - गुरु नानकदेवजी ) सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति परमात्मा द्वारा ही सृजित है । परमात्मा अनन्तस्वरूपी होने के कारण अकम्प और अडोल है, तथापि उसी के द्वारा विलक्षण और अत्यन्त चमत्कारपूर्ण ढंग से सृष्टि-प्रलय का कर्म होता रहता है और कर्म-बंधन भी उसे नहीं लगता। कर्म बंधन का नहीं लगना कर्म नहीं करने के जैसा है।
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