गोरख बाणी 03 । Why should you become a monk? । आवै संगै जाइ अकेला । भावार्थ सहित -सदगुरु महर्षि मेंहीं

महायोगी गोरखनाथ की वाणी / 03

    प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "संतवाणी सटीकअनमोल कृति है। इस कृति में बहुत से संतो के वाणियों को एकत्रित किया गया है, जिससे यह सिद्ध हो सके कि सभी संतों के सार विचार एक ही हैं। उन सभी वाणियों का टीकाकरण किया गया है। आज महायोगी गोरखनाथ की वाणी "आवै संगै जाइ अकेला,...' भजन का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी पढेंगे। 

महायोगी गोरखनाथ जी महाराज की इस God भजन (कविता, गीत, भक्ति भजन,भजन कीर्तन, पद्य, वाणी, छंद) "आवै संगै जाइ अकेला।,..." में बताया गया है कि- साधु बनने के लिए मनुष्य की मानसिक स्थिति कैसी होनी चाहिए? लोग किन-किन परिस्थितियों में साधु बन जाते हैं?भारत में साधुओं की मर्यादा क्या है?सबसे बड़ा साधु-संत कौन है? इन प्रश्नों के साथ-साथ निम्नलिखित बातों पर भी कुछ ना कुछ है चर्चा किया गया है।गोरखपदावली भजन, गोरख वाणी,साधु कैसे बने,साधु कितने प्रकार के होते हैं,सबसे बड़ा साधु,कुंभ में नागा साधु,जैन नागा साधु, गिरनारी नागा बाबा,नागा बाबा मंदिर,साधु के गुण,साधु कितने प्रकार के होते हैं,साधु का अर्थ,अघोरी साधु,भारत में साधुओं की संख्या,साधु का मंत्र,साधु कैसे बने, साधु-संत, भारत के साधु संत,साधु शब्द रूप,जमाना का अर्थ,साधु वीडियो आदि बातें।

इस भजन के पहले वाले पद्य को पढ़ने के लिए  यहां दबाएं


गोरख वाणी-साधु कैसे बने, महायोगी गोरखनाथ संतो के साथ,
गोरख वाणी-साधु कैसे बने?

Why should you become a monk?

महायोगी संत श्रीगोरखनाथ जी महाराज कहते है कि '"हे अवधूतों !  हे महात्माओं !!   शरीर के संग चेतन आत्मा स्थूल संसार में आता है , परन्तु स्थूल शरीर छोड़कर अकेले चला जाता है । इसलिए गोरख ( शरीर में रमना अर्थात् भोग - विलास के लिए शरीर में ठहरना छोड़कर ) राम में रमता है ।..."  इस संबंध में विशेष जानकारी के लिए इस पद्य का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है। उसे पढ़ें-

महायोगी गोरखनाथजी महाराज की वाणी

 ॥ मूल पद्य ॥

आवै  संगै  जाइ  अकेला ।  ताथै  गोरख  राम  रमेला ॥
काया हंस संगि ह्वै आवा । जाता जोगी किनहुँ न पावा ॥ जीवत जग में मुआ समाण। प्राण पुरिस कत किया पयाण
जामण मरण बहुरि बियोगी। ताथै गोरख भैला योगी॥३ ॥
गगन  मंडल में   औंधा कूवाँ,     जहाँ   अमृत का वासा ।
सगुरा होइ सो भर - भर पीया , निगुरा जाय पियासा ॥४ ॥ गोरख  बोलै  सुणहु रे अवधू , पंचौं  पसर  निवारी ।
अपनी आत्मा आप विचारो,     सोवो पाँव   पसारी ॥५ ॥


शब्दार्थ- हंस - चैतन्य आत्मा । प्राण पुरिस ( प्राणपुरुष ) -चैतन्य आत्मा । पयाण ( प्रयाण ) यात्रा । कत - कहाँ । बियोगी - त्यागी , सम्बन्ध छोड़नेवाला । ताथै ( तातें ) -इसलिए । भैला हुआ । औंधा - उलटा ; मुँह नीचे , पेंदा ऊपर । अमृत - जीवनी शक्ति , चेतन । सगुरा - गुरु के सहित । भर - पूरा । अबधू - साधु , योगी । पसर ( प्रसार ) - गहरी की हुई हथेली ( गहरी की हुई हथेली मांगने का चिह्न है ) । पंचों पसर - आँख , कान , नाक , जिह्वा और त्वचा ; पंच ज्ञानेन्द्रियों के रूप , शब्द , गंध , रस और स्पर्श की मांग निवारी रोककर । सोवो पाँव पसारी निश्चिन्त रहो ।

आवै  संगै  जाइ  अकेला ।  ताथै  गोरख  राम  रमेला ॥
काया हंस संगि ह्वै आवा । जाता जोगी किनहुँ न पावा ॥ जीवत जग में मुआ समाण। प्राण पुरिस कत किया पयाण
जामण मरण बहुरि बियोगी। ताथै गोरख भैला योगी॥३ ॥

भावार्थ-शरीर के संग चेतन आत्मा स्थूल संसार में आता है , परन्तु स्थूल शरीर छोड़कर अकेले चला जाता है । इसलिए गोरख ( शरीर में रमना अर्थात् भोग - विलास के लिए शरीर में ठहरना छोड़कर ) राम में रमता है ।।
      चैतन्य आत्मा शरीर के संग होकर इस स्थूल जगत् में आया । शरीर का संग छोड़कर जाते हुए योगी ( चैतन्य आत्मा ) को किसी ने नहीं पाया । वह ( योगी ) जीते - जी मृतकवत् संसार में रहता है । प्राण पुरुष ( चेतन आत्मा ) ने कहाँ यात्रा की है , इसको कोई नहीं जानता । जन्म लेना है, मरना है तथा पुनः शरीर का संबंध छोड़ना है - इसलिए गोरखनाथ योगी हो गये ।।3।।


महर्षि मेंहीं, सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज कुप्पाघाट वाले
सद्गुरु महर्षि मेंहीं

   टिप्पणी-  शरीर - सुख विषय - सुख है । इसमें अनित्यानन्द - नाशवन्त आनन्द है । इसलिए इसमें रमना छोड़कर सर्वव्यापी परमात्मा राम में रमो , इसमें नित्यानंद की प्राप्ति होगी । योगी पुरुष शरीर का संग छोड़कर चला जाता है । ' उसको देवदूत और यमदूत आदि कोई भी नहीं पा सकते । वे तो उसी को पा सकते हैं , जो योगी नहीं है । यह ( अयोगी ) मृत्यु के अधीन होकर मृत्यु - शक्ति के कारण केवल स्थूल शरीर को ही अपनी इच्छा न रहते हुए भी छोड़ता है । इसका सूक्ष्म , कारण और महाकारण जड़ शरीरों से संग नहीं छूटता है और स्थूल जड़ शरीर में रहने की इच्छा भी नहीं छूटती है । अतएव उसे पुनः पुनः जन्म - द्वारा स्थूल शरीर का संग होता रहेगा और पुन : पुनः मृत्यु के समय उसको यमदूत पाते रहेंगे । परन्तु योगी पुरुष सत्संग , गुरु - सेवा एवं परमात्मा की प्राप्ति के प्रेम और साधन से कथित सब जड़ शरीरों के भोगों की आसक्ति और इच्छा को उनके दुःखद परिणाम , नश्वरता और मलिनता को जानकर पूर्ण रूप से त्याग देता है । अतएव गुरु और परमात्मा की कृपा से स्व - वश और स्वेच्छा से शरीरों के संग को छोड़ता हुआ जब वह जाता है , तब उसे कोई नहीं पा सकता है । उसके पुनर्जन्म का कारण मिट जाता है और वह परमात्मा को प्राप्त कर परम मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।
प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव । भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।। -गीता , ८।१०
      ' जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भक्तियुक्त होकर और योगबल से भौंहों के बीच में अच्छी तरह प्राण को स्थापित करता है , वह उस दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है । '


भारत के साधु संत, साधु संतों की मंडली,
भारत के साधु संत 

      वह योगी संसार में रहते हुए भी जीवन - काल में विषयासक्ति को त्यागकर इन्द्रियों के घाटों से अपनी चेतन - धारों को खींचता हुआ उन्हें केन्द्रित करता रहता है । इस प्रकार उसकी वृत्तियों का पूर्ण सिमटाव हो जाता है तथा सिमटाव के स्वाभाविक गुण के कारण उसकी ऊर्ध्वगति होती है । स्थूल शरीर से ऊँचे उठकर वह सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करके रहता है । पुन : उस शरीर में परमात्मा के मिलन के प्रेम से प्रेरित होकर साधना में विशेष बढ़ता जाता है और सूक्ष्म , कारण तथा महाकारण शरीरों को भी पार कर जाता है । उसको इसकी आवश्यकता नहीं होती है कि कोई महान - से - महान देव अपने से या उसका कोई विशेष दूत उसके लिए कोई विमान लावे और किसी उत्तम लोक में उसको ले जाए । उनसे उसकी योग्यता और महानता विशेष हो जाती है ।  वे उसके दर्शन भी नहीं पा सकते और उनके विमान की गति से उसकी निजी गति ही - जिससे वह अप्रयास ही विचरण करता है , अत्यन्त तीव्र होती है । वह अन्त में परमात्मा - सर्वगत ब्रह्म में मिलकर सर्वगत ही हो जाता है । तब वह मैत्रेय्युपनिषद् के इस वाक्यार्थ के तद्रूप हो जाता है ।
'गन्तव्य देशहीनोऽस्मि गमनादिविवर्जितः । ' मुझे चलने के लिए स्थान नहीं है , मुझे चलना इत्यादि नहीं है । '
      यह योग की सामर्थ्य है । शरीर के त्याग को ही मरण कहते हैं । उपर्युक्त प्रकार से जीवन - काल में ही वह योगी मृतकवत् रहता है और मृत्यु होने पर उसका प्राण - पुरुष कहाँ चला जाता है , उसको दूसरा नहीं जान सकता । जो ऐसा नहीं होता है , वह बार - बार जन्म लेता और मरता है । इसलिए योगी बनना चाहिए ।


गगन  मंडल में   औंधा कूवाँ,     जहाँ   अमृत का वासा ।
सगुरा होइ सो भर - भर पीया , निगुरा जाय पियासा ॥४ ॥ 

भावार्थ-  गगन - मण्डल ( शून्य या ब्रह्मरन्ध्र ) में उलटा कुआँ है , जिसमें अमृत का वासा है । जो गुरु के सहित है , वह पूरा - पूरा पीता है और जो गुरु - सहित नहीं है , वह प्यासा ही चला जाता है ।।4।।


साधारण कुआं, ध्यान योग के विशेष कुआं और साधारण कुआं में अंतर।
साधारण कुआं 

टिप्पणी-
  मनुष्य का मस्तक आकाश - मण्डल है । वह खोपड़ी से ढंका ऊपर से बंद है । मस्तक के भीतर प्रवेश करने के लिए नीचे से द्वार है , इसमें चेतन - रूप अमृत का वास है । जिसने किसी अच्छे गुरु की शरण ली है , वही जी भर अमृत पी सकता है । क्योंकि उसे पीने का उपाय गुरु ही बता सकते हैं । सगुरा या गुरुमुख गुरु - प्रदत्त युक्ति - द्वारा अभ्यास करके उस कुएँ में प्रवेश करता है और कथित अमृत को पूर्ण रूप से पीता है - भरपूर पीता है । जिसने किसी अच्छे गुरु को धारण नहीं किया , वह इस अमृत का पान नहीं कर सकता - प्यासा ही रह जाता है । यह चेतन - अमृत प्रथम ज्योति - रूप में ग्रहण होता है और दृष्टि - द्वारा इसका पान किया जाता है ।
विद्वान् समग्रीवशिरो नासाग्र दृग्भ्रूमध्ये । शशभृद्विम्बं पश्यन्नेत्राभ्याममृतं पिवेत् ।।४ ॥ -शाण्डिल्योपनिषद् '  
    विद्वान  गला और सिर को सीधा करके नासिका के आगे दृष्टि रखते भौंहों के बीच में चन्द्रमा के बिम्ब को देखते हुए नेत्रों से अमृत का पान करे ।।


गोरख  बोलै  सुणहु रे अवधू , पंचौं  पसर  निवारी ।
अपनी आत्मा आप विचारो,     सोवो पाँव   पसारी ॥५ ॥

   भावार्थ- गोरखनाथजी कहते हैं - ' हे अवधूत ! पंच ज्ञानेन्द्रियों की माँगों को रोककर बहिर्पसार निवारण कर अपनी आत्मा का आप विचार  करो और निश्चिंत होकर रहो।।5।। इति।


गुरु गोरखनाथ जी महाराज के इस भजन के  बाद वाले पद्य को पढ़ने के लिए    यहां दबाएं।


प्रभु प्रेमियों !  "संतवाणी-सटीक" नामक पुस्तक  से इस भजन के शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी द्वारा आपने जाना कि साधु बनने के लिए मनुष्य की मानसिक स्थिति कैसी होनी चाहिए? लोग किन-किन परिस्थितियों में साधु बन जाते हैं? इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने।  इससे आपको आने वाले  पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद्य का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नांकित वीडियो देखें।



संतवाणी-सटीक, सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज द्वारा टीकाकृत संतवाणी संग्रह।
संतवाणी-सटीक
गोरख वाणी भावार्थ सहित
अगर आप 'संतवाणी सटीक' पुस्तक से महायोगी संत श्रीगोरखनाथ जी महाराज की  अन्य पद्यों के अर्थों के बारे में जानना चाहते हैं या इस पुस्तक के बारे में विशेष रूप से जानना चाहते हैं तो  यहां दबाएं। 

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की पुस्तकें मुफ्त में पाने के लिए  शर्तों के बारे में जानने के लिए यहां दवाएं
गोरख बाणी 03 । Why should you become a monk? । आवै संगै जाइ अकेला । भावार्थ सहित -सदगुरु महर्षि मेंहीं गोरख बाणी 03 । Why should you become a monk? । आवै संगै जाइ अकेला । भावार्थ सहित -सदगुरु महर्षि मेंहीं Reviewed by सत्संग ध्यान on 6/21/2020 Rating: 5

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया सत्संग ध्यान से संबंधित किसी विषय पर जानकारी या अन्य सहायता के लिए टिप्पणी करें।

Blogger द्वारा संचालित.