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गोरख बाणी 02 । How is the divine । बस्ती न शुन्यं शुन्य न बस्ती । भावार्थ सहित।

महायोगी गोरखनाथ की वाणी / 02

    प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "संतवाणी सटीकअनमोल कृति है। इस कृति मैं बहुत से संतो के वाणियों को एकत्रित किया गया है, जिससे यह सिद्ध हो सके कि सभी संतों के सार विचार एक ही हैं। उन सभी वाणियों का टीकाकरण किया गया है। आज 

महायोगी गोरखनाथ की वाणी "बस्ती न शुन्यं शुन्य न बस्ती,...' भजन का भावार्थ पढेंगे। 

महायोगी गोरखनाथ जी महाराज की इस God भजन (कविता, गीत, भक्ति भजन,भजन कीर्तन, पद्य, वाणी, छंद) "बस्ती न शुन्यं शुन्य न बस्ती।,..." में बताया गया है कि- ईश्वर भक्ति का असली भेद जो वेदों-पुराणों में, सभी पहुंचे हुए संत-महात्माओं की वाणियों में और गीता-रामायण आदि धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है। वह असली भेद क्या है? उस भेद की प्राप्ति कैसे होगी? ईश्वर का स्वरूप, परमात्मा कौन है? ईश्वर भक्ति का असली भेद,ईश्वर का स्वरूप,ईश्वर का स्वरूप,ईश्वर का शाब्दिक अर्थ,ईश्वर कौन है,वेदों में ईश्वर का स्वरूप,सबसे बड़ा ईश्वर कौन है,वेदों के अनुसार ईश्वर कौन है,ईश्वर एक है,ईश्वर का रहस्य आदि बातें।

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महायोगी गोरखनाथ जी महाराज, ईश्वर स्वरूप पर प्रवचन करते महायोगी गोरखनाथ जी महाराज।
महायोगी गोरखनाथ जी महाराज

How is the divine  "बस्ती न शुन्यं शुन्य न बस्ती

महायोगी संत श्रीगोरखनाथ जी महाराज ने कहते है कि ' हे ! अवधूत, हे महात्माओं ! बुद्धि के परे और इन्द्रियों के ज्ञान के परे परम प्रभु परमात्मा ऐसा है , जो न भरती है और न खाली है । और उसका शब्द आकाश की चोटी पर बालक के स्वर के सदृश सुरीला होता है ; उसका किस प्रकार नाम धरोगे ? अर्थात् उसका किसी प्रकार नाम नहीं धर सकोगे ।..? इस संबंध में विशेष जानकारी के लिए इस पद्य का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है। उसे पढ़ें-

महायोगी गोरखनाथजी महाराज की वाणी

 ॥ मूल पद्य ॥

बस्ती  न  शुन्यं  शुन्य  न बस्ती ,   अगम   अगोचर  ऐसा।
गगन सिखर मँहि बालक बोलहि, वाका नाँव धरहुगे कैसा।१॥
सप्त धातु का काया प्यंजरा , ता माहिं ' जुगति ' बिन सूवा ।  सत्गुरु।  मिले त  उबरे    बाबू ,      नहिं  तौ  परलै।  हूवा ॥२ ॥

शब्दार्थ - बस्ती - निवास , भरती , भाव , सत् । शुन्य - शून्य , खाली , रिक्त , रीता , अनिवास , अभाव , असत् । सिखर ( शिखर ) -चोटी , सिरा । गगन - सिखर - आकाश की चोटी , आकाश के ऊपर का अन्त , आकाश की सूक्ष्मता का अन्तिम अंश । बालक बोलहिं बालक बोलता है , बालक के स्वर का शब्द या ध्वनि होती है । कैसा ? यह शब्द निषेधार्थक प्रश्न के रूप में है । सप्त सात । धातु - शरीर को बनाये रखनेवाले पदार्थ - रक्त , रस , मांस , मेद , अस्थि ( हड्डी ) , मज्जा और वीर्य।।प्यंजरा - पिंजरा । काया - शरीर । सूवा - सुग्गा ( जीवात्मा ) । परलै ( प्रलय ) विनाश , अत्यन्त दुःख ।

पद्यार्थ - बुद्धि के परे और इन्द्रियों के ज्ञान के परे परम प्रभु परमात्मा ऐसा है , जो न भरती है और न खाली है । और उसका शब्द आकाश की चोटी पर बालक के स्वर के सदृश सुरीला होता है ; उसका किस प्रकार नाम धरोगे ? अर्थात् उसका किसी प्रकार नाम नहीं धर सकोगे ।।1।।

 बिशेष टिप्पणी-   अन्य संतों का भी विचार है कि उस परमेश्वर का नाम ही कैसे रखा जा सकता है ? देखिये ' जाका नाम अकहुआ भाई । ताकर कहा रमैनी गाई । ' -कबीर - बीजक ' जो कोई चाहै नाम , सौ नाम अनाम है । लिखन - पढ़न में नाहिं , नि : अच्छर काम है । ' -संत पलटू साहब ' तुलसी तोल बोल अबोल बानी , बूझि लखि बिरले लई ॥ ' -संत तुलसी साहब '"एक अनीह अरूप अनामा । अज सच्चिदानन्द परधामा ।। ' -गोस्वामी तुलसीदासजी ' अघोषम् अव्यञ्जनम् अस्वरं च अकण्ठताल्वोष्ठम् अनासिकं च । अरेफ जातम् उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।। ' -अमृतनाद उपनिषद।


सद्गुरु महर्षि मेंहीं, महायोगी गोरखनाथ जी महाराज की वाणी के भावार्थकार सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज।
सद्गुरु महर्षि मेंहीं

      परमात्मा केवल चैतन्य आत्मा से जाननेयोग्य है । वह ऐसा है कि न उसे हम बस्ती कह सकते हैं और न शून्य । न यह कह सकते हैं कि वह कुछ है ( बस्ती ) और न यह कि वह कुछ भी नहीं ( शून्य ) है। भाव ( बस्ती ) , अभाव ( शून्य ) , सत् और असत् दोनों से परे है । वह अलौकिक है । उसका शब्द अर्थात् नाम आकाश की चोटी - सृष्टि के आदि - अंश से अत्यन्त मधुर स्वर में ध्वनित होता है । अतएव वह वर्णात्मक नहीं है । वह ध्वन्यात्मक है और अकह है । आकाश - मण्डल में बोलनेवाला इसलिए कहा कि शून्य अथवा प्राकृतिक तत्त्वों से हीन भाव के पद में ही ब्रह्मा का निवास माना जाता है । वहीं पहुँचने पर ब्रह्म का साक्षात्कार हो सकता है । वहीं आत्मा को ढूँढ़ना चाहिए । बालक इसलिए कि जिस प्रकार बालक पाप - पुण्य से अछूता होता है , उसी प्रकार परमात्मा भी है । शब्द की साधना करते हुए साधक अपने ब्रह्मरन्ध्र में ही क्रम से स्थूल ध्वनियों के मण्डल से होता हुआ सूक्ष्मतर ध्वनियों की चरम सीमा पर पहुँचता है और अंत में वह परमात्मा का साक्षात्कार कर पाता है।॥१ ॥

     यह शरीर - रूपी पिंजड़ा सात धातुओं से बना हुआ है । इसमें जीवात्मा युक्ति के न जाननेवाले सुग्गे के समान रहता है । यदि इस जीव को सद्गुरु मिलें , तो इसका उद्धार हो सकता है , नहीं तो यह जीव अत्यन्त दुःख भोगता रहेगा ।।2।।


सूग्गे की कथा, भारतीय सुग्गे जी की कथा, तोता,
सुग्गे की कथा

 एक सुग्गे की कथा - एक पिंजड़े में एक पालतू सुग्गा बन्द था । राम - राम रटा करता था । संयोगवश एक भक्त योगी पुरुष वहाँ आया । उस सुग्गे को राम - राम रटता देखकर कहा कि रे सुग्गे ! राम - राम के भजन से जीव संसार रूपी पिंजड़े से छूट जाता है , तू इस पिंजड़े से क्यों नहीं छूट जाता ? बात यह है कि तू युक्ति जाने बिना ही राम - नाम जपता है , इसलिए इस पिंजड़े से नहीं छूटता है । सुग्गे ने कहा- “ हाँ बाबा ! मैं युक्ति नहीं जानता हूँ । कृपया इसकी युक्ति मुझे बता दो । ' उस महापुरुष ने सुग्गे को प्राण - स्पन्दन बन्द करने की युक्ति बता दी और उससे कहा कि उसका थोड़ा - थोड़ा अभ्यास कर । जब इसका विशेष अभ्यास हो जाए , तब बहुत देर तक अपने प्राण - स्पन्दन को रोककर पिंजड़े में पड़ा रहना । तब तू इस पिंजड़े से निकाल दिया जाएगा । सुग्गे ने ऐसा ही किया । और एक दिन जब उसके मालिक ने देखा कि सुग्गा बिना हिले - डुले पिंजड़े में पड़ा है , तब उसने समझा कि सुग्गा मर गया है । उसने उसे पिंजड़े से निकालकर बाहर फेंक दिया । सुग्गा अपने को पिंजड़े से बाहर पाकर उड़ गया तथा सदा के लिए पिंजड़े के बन्धन से छूटकर स्वतंत्र विचरने लगा ।

महायोगी बाबा गोरखनाथ जी महाराज, बाबा गोरखनाथ, नवनाथों में एकनाथ
बाबा गोरखनाथजी

       बाबा गोरखनाथजी महाराज कहते हैं कि हे शरीर में बद्ध जीव ! तू प्राण - स्पन्दन रोकने का - बंद करने का अभ्यास करते हुए परमात्मा का भजन कर । तू शरीर के बंधन से रहित हो जाएगा । नहीं तो इस शरीर में रहते हुए अनेक जन्मों तक अत्यन्त दुःख भोगेगा । इसकी युक्ति जानने के लिए सद्गुरु की खोज कर और उनकी शरण ले । यदि सद्गुरु की कृपा होगी , तो दया करके वे कोई ऐसी युक्ति बता देंगे , जिससे बेड़ा पार लग जाएगा । प्राण को स्पन्दन - रहित करने की दो युक्तियाँ हैं । हठयोग में वर्णित प्राणायाम की युक्ति सापद ( विघ्न , विपत्ति और कष्टवाली ) है यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्य : शनैः शनैः । तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ।। -शाण्डिल्योपनिषद् 

      ' जैसे सिंह , हाथी और बाघ धीरे - धीरे काबू में आते हैं , इसी तरह प्राणायाम अर्थात् वायु का अभ्यास कर वश में करना भी किया जाता है। प्रकारान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है ।
      ' संतमत में संतों ने दृष्टियोग - साधन की जो युक्ति बतलायी है , उसके अनुसार प्राण - स्पन्दन का जो निरोध होता है , वह निरापद ( विघ्न , विपत्ति एवं कष्ट रहित ) युक्ति है । शाण्डिल्योपनिषद् के कुछ श्लोकों को देखिये-- "द्वादशाङ्गुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे संविदृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥ " जब ज्ञान - दृष्टि ( सुरत , चेतन - वृत्ति ) नासाग्र से बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में स्थिर हो , तो प्राण का स्पन्दन रुद्ध हो जाता है । भ्रूमध्ये तारकालोकशान्तावन्तमुपागते । चेतनैकतने बद्धे प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।। " जब चेतन अथवा सुरत भौंओं के बीच के तारक - लोक अर्थात तारा - मंडल में पहुंचकर स्थिर होती है , तो प्राण की गति बन्द हो जाती है । ' चिरकालं हृदेकान्त व्योम संवदनान्मुने । अवासनमनोध्यानात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥ ' हृदयाकाश में संकल्प - विकल्प और वासनाहीन मन से बहुत दिनों तक ध्यान करने से प्राण की गति रुक जाती है । ' दृष्टि - योग - साधन की युक्ति के संबंध में विशेष जानकारी के लिए किसी सच्चे गुरु की शरण में जाकर उनकी भक्ति करनी चाहिए ; क्योंकि श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है-- "तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।" -अध्याय ४ , श्लोक ३४ ।
ध्यान में रख कि प्रणिपात से , प्रश्न और सेवा से तत्त्ववेत्ता ज्ञानी पुरुष तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे ।।

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प्रभु प्रेमियों !  "संतवाणी-सटीक" नामक पुस्तक  से इस भजन के शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी द्वारा आपने जाना कि यह शरीर - रूपी पिंजड़ा सात धातुओं से बना हुआ है । इसमें जीवात्मा युक्ति के न जाननेवाले सुग्गे के समान रहता है । यदि इस जीव को सद्गुरु मिलें , तो इसका उद्धार हो सकता है , नहीं तो यह जीव अत्यन्त दुःख भोगता रहेगा इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने।  इससे आपको आने वाले  पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद्य का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नांकित वीडियो देखें।




संतवाणी-सटीक
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गोरख बाणी 02 । How is the divine । बस्ती न शुन्यं शुन्य न बस्ती । भावार्थ सहित। गोरख बाणी 02 । How is the divine । बस्ती न शुन्यं शुन्य न बस्ती । भावार्थ सहित। Reviewed by सत्संग ध्यान on 6/20/2020 Rating: 5

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