महायोगी गोरखनाथ की वाणी / 04
प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "संतवाणी सटीक" अनमोल कृति है। इस कृति में बहुत से संतो के वाणियों को एकत्रित किया गया है, जिससे यह सिद्ध हो सके कि सभी संतों के सार विचार एक ही हैं। उन सभी वाणियों का टीकाकरण किया गया है। आज महायोगी गोरखनाथ की वाणी "ऐसा जाप जपो मन लाई।...' भजन का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी पढेंगे।
महायोगी गोरखनाथ जी महाराज की इस God भजन (कविता, गीत, भक्ति भजन,भजन कीर्तन, पद्य, वाणी, छंद) "आवै संगै जाइ अकेला।,..." में बताया गया है कि- नाम जप से अष्ट सिद्धियों की प्राप्ति संभव है, परंतु वह नाम जप कैसे करना चाहिए? उसे किस विधि से करना चाहिए? मानसिक जप कैसे करे?सवा लाख जप करें या अधिक, राम नाम का अजपा जाप,भगवान का नाम जप की प्रक्रिया कैसे बड़े,अजपा जप क्या है?गायत्री मंत्र का मानसिक जप,ॐ का मानसिक जप,माला जाप कैसे करें,राम हमारा जप करे। जैसे कई सवाल है, जिसका उत्तर महायोगी गोरखनाथ जी महाराज ने इस पद्य में दिया है।
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How to chant Sumiran
महायोगी संत श्रीगोरखनाथ जी महाराज कहते है कि '"हे अवधूतों ! हे महात्माओं !! ऐसा जप मन लगाकर जपो कि सोऽहं - सोऽहं की वाणी के उपयोग के बिना अजपा जप हो जाए । आसन दृढ़ कर ध्यान धरो और दिन - रात ब्रह्मज्ञान का स्मरण करो ।.." इस संबंध में विशेष जानकारी के लिए इस पद्य का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है। उसे पढ़ें-
महायोगी गोरखनाथ जी महाराज की वाणी
।। मूल पद्य ।।
ऐसा जाप जपो मन लाई । सोऽहं सोऽहं अजपा गाई ।। आसन दृढ़ करि घरो धियान । अहनिसि सुमिरो ब्रह्मगियान ।। नासा अग्र निज ज्यों बाई । इड़ा प्यंगुला मधि समाई ।। छह सै सहँस इकीसौ जाप । अनहद उपजै आप आप ॥ बंक नालि में ऊगै सूर । रोम रोम धुनि बाजै तूर ॥ उलटै कमल सहस्रदल वास । भ्रमर गुफा में ज्योति प्रकाश ॥६ ॥ खाये भी मरिये अणखाये भी मरिये । गोरख कहै पूता संजमि ही तरिये ॥७ ॥ धाये न खाइबा , भूखे न मरिबा । अहिनिसि लेबा ब्रह्म अगिनि का भेवं ॥ हठ न करिबा , पड़े न रहिबा । यूं बोल्या गोरख देवं ॥८ ॥ कैचलिबा पंथा , के सीवा कंथा ।कै धरिबा ध्यान , कै कथिबा ज्ञान ॥९ ॥ हबकि न बोलिबा , ठबकि न चलिबा , धीरे धरिबा पावं ॥ गरब न करिबा , सहजै रहिबा , भणंत गोरख रावं ॥१० ॥ गोरख कहै सुनहु अबधू , जग में ऐसे रहणा । आँखे देखिबा , काने सुणिबा , मुख थैं कछू न कहणा ॥ नाथ कहै तुम आपा राखौ , हठ करि बाद न करणा । यह जग है काँटे की बाड़ी , देखि दृष्टि पग धरणा ॥११ ॥ मन में रहना , भेद न कहना , बोलिबा अमृत वाणी । आगिका अगिनी होइबा अबधू , आपण होइबा पाणी ॥१२ ॥
शब्दार्थ- नासा नाका अग्र - आगे । ज्यों - जिस प्रकार । बाई ( वायु ) हवा । इड़ा बायीं ओर की वृत्ति । प्यंगुला ( पिंगला ) -दाहिनी ओर की वृत्ति । मधि ( मध्य ) बीच । छ से सहस इकीसो इक्कीस हजार छह सौ । अनहद - अन्तर के बहुत से ध्वन्यात्मक शब्द । बंक - टेढ़ा । नालि - नल । बंक नालि - वह नल , जिसमें कठिनाई से प्रवेश किया जाय , सुषुम्ना । सूर - सूर्य । धुनि ( ध्वनि ) -ध्वन्यात्मक शब्द । तूर - तुरही बाजा । कमल सहस्रदल ( सहस्रदल कमल ) सूक्ष्म जगत् का मण्डल , सहस्रार । भ्रमरगुफा - ब्रह्मरन्ध्र ; वह सूक्ष्म मार्ग , जिसमें सुरत को ज्योति और भौरे का गुंजार क्रमशः देखने और सुनने में आवे ; जिस होकर गति हो तो ब्रह्म की ओर जाना हो । अणख्खये - बिना खाये । संजमि - परहेजी । धाये - अघाकर , पेट पूरा - पूरा भरकर । अह - दिन । निसि - रात । ब्रह्म अगिन - ब्रह्म - ज्योति । भेवं भेद । कंथा - गुदड़ी । हबकि हड़बड़ा कर , जल्दी - जल्दी । ठबकि - उतावलेपन से , झटपट - झटपट । गरब - अहंकार । सहज - स्वाभाविक । भणंत - कहते हैं । आपा - होश - हवास , सुधबुध । बाद - तर्क , बहस । आगिका अगिनी - अत्यन्त क्रोधित । होइबा पाणी - पानी होना , ठण्ढा होना , नम्र होना ।
ऐसा जाप जपो मन लाई । सोऽहं सोऽहं अजपा गाई ।। आसन दृढ़ करि घरो धियान । अहनिसि सुमिरो ब्रह्मगियान ।। नासा अग्र निज ज्यों बाई । इड़ा प्यंगुला मधि समाई ।। छह सै सहँस इकीसौ जाप । अनहद उपजै आप आप ॥ बंक नालि में ऊगै सूर । रोम रोम धुनि बाजै तूर ॥ उलटै कमल सहस्रदल वास । भ्रमर गुफा में ज्योति प्रकाश ॥६ ॥
पद्यार्थ - ऐसा जप मन लगाकर जपो कि सोऽहं - सोऽहं की वाणी के उपयोग के बिना अजपा जप हो जाए । आसन दृढ़ कर ध्यान धरो और दिन - रात ब्रह्मज्ञान का स्मरण करो । इड़ा और पिंगला के मध्यवाली सुषुम्ना नाड़ी में समायी हुई नासाग्र तक जिसका विस्तार है , ( प्राणवायु का निवास नासारन्ध्रों से बारह - बारह अंगुल तक माना जाता है , इसी से वायु को द्वादशाङ्गुल भी कहते हैं ) ऐसी वायु द्वारा जब इक्कीस हजार छह सौ जप ( अजपा जप आठों पहर दिन - रात में निर्विघ्न - अटूट रूप से ) हो , तो अनहद ध्वनि स्वयं उत्पन्न होती है , तब सुषुम्ना ( बंक नालि ) में सूर्य उगता है और अभ्यासी के रोम - रोम में अनहद घ्वनि की तुरही बजती है । जब सुरत या चैतन्य वृत्ति उलटकर बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो पिण्डस्थ छह चक्रों से छूटती हुई सहस्रदलकमल में फिर निवास करती है , तब भ्रमरगुफा ( ब्रह्मरन्ध्र ) में आत्मज्योति का प्रकाश होता है ।।
टिप्पणी- स्वस्थ शरीर में इक्कीस हजार छह सौ श्वास एक दिन , एक रात - आठों पहर में चलते हैं । प्रति श्वास से अजपा जप करनेवाले की , वृत्ति स्थूल विषयों को छोड़कर अन्तर्मुखी होती है और उसको अच्छी एकाग्रता प्राप्त होती है , तब वह अनहद नाद क ो अपने आप सुनने लगता है । अनहद नाद तो सदैव होता ही रहता है , पर वह बहिर्वृत्ति और मन की चंचलता के कारण नहीं सुनाई पड़ता है । नाद - श्रवण के अभ्यास को नादानुसंधान , सुरत - शब्द - योग और निर्गुण नाम - भजन वा नाम का ध्यान कहते हैं । इस साधन से मन की एकाग्रता की दृढ़ता तथा सुरत - चेतन - धार की ऊर्ध्वगति होते - होते उसकी पहुँच परमात्मा तक हो जाती है अर्थात् अभ्यासी को मोक्ष प्राप्त हो जाता है । उपनिषदों में इसका अच्छा गुण - गान है । इस संबंध में नादविन्दूपनिषद् के कुछ श्लोक नीचे दिये जाते हैं मकरन्दं पिबन्झंगो गन्धान्नपेक्षते यथा । नादासक्तं सदा चित्तं विषयं न हि कांक्षति । बद्धः सुनाद गन्धेन सद्यः संत्यक्त चापलः ॥ ' जिस प्रकार मधुमक्खी मधु को पीती हुई उसकी सुगंध की चिन्ता नहीं करती है , उसी प्रकार जो चित्त नाद में सर्वदा लीन रहता है , वह विषय - चाहना नहीं करता है । क्योंकि वह नाद की मिठास में वशीभूत है तथा अपनी चंचल प्रकृति को त्याग चुका है । " नादग्रहणतश्चित्तमन्तरंग भुजंगमः । विस्मृत्य विश्वमेकानः कुत्रचिन्न हि धावति ।। ' नाग - रूप चित्त नाद का अभ्यास करते - करते पूर्ण रूप से उसमें लीन हो जाता है और सभी विषयों को भूलकर नाद में अपने - आपको एकाग्र करता है । ' मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः । नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः ।। ' नाद मदान्ध हाथी - रूप चित्त को , जो विषयों की आनन्द - वाटिका में विचरण करता है , रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है । 'नादोऽन्तरंग सारंग बन्धने वागुरायते । अन्तरंगसमुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा ॥ ' मृग - रूपी चित्त को बाँधने के लिए यह नाद जाल का काम करता है । समुद्र - तरंग - रूपी चित्त के लिए नाद तट का काम करता है । ' नास्ति नादात्परो मंत्रो न देवः स्वात्मनः परः । नानुसन्धेः परा पूजा न हि तृप्ते परं सुखम् ।। -योगशिखोपनिषद् , अ ०२ ' नाद से बढ़कर कोई मंत्र नहीं है , अपनी आत्मा से बढ़कर कोई देवता नहीं है , नाद वा ब्रह्म की अनुसंधि ( अन्वेषण वा खोज ) से बढ़कर कोई पूजा नहीं है तथा तृप्ति से बढ़कर कोई सुख नहीं है । ' सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा । नाद एवानुसन्धेयो योगसाम्रज्यमिच्छता ।। -वराहोपनिषद् , अ ०२ ' योग - साम्राज्य की इच्छा रखनेवाले मनुष्यों को सब चिन्ता त्यागकर सावधान होकर नाद की ही खोज करनी चाहिए । ' बीजाक्षरं परं विन्दं नादं तस्योपरि स्थितम् । । सशब्दं चाक्षरे क्षीणे नि : शब्दं परमं पदम् ॥ -योगशिखोपनिषद् ' परम विन्दु ही बीजाक्षर है । उसके ऊपर नाद है । नाद जब अक्षर ( अविनाशी ब्रह्म ) में लय हो जाता है , तब निःश्वब्द परम पद है । ' अक्षरं परमो नादः शब्दब्रोति कथ्यते ॥ -योगशिखोपनिषद् , अ ०३ ' अक्षर ( अविनाशी ) परम नाद को शब्दब्रह्म कहते हैं । ' द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत् । शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ -ब्रह्मविन्दूपनिषद् ' दो विद्याएँ समझनी चाहिए ; एक तो शब्दब्रह्म और दूसरी परब्रह्म । शब्दब्रह्म में जो निपुण हो जाता है , वह परब्रह्म को प्राप्त करता है । ' शब्द खोजि मन वश करै , सहज योग है येहि । सत्त शब्द निज सार है , यह तो झूठी देहि ।। यही बड़ाई शब्द की , जैसे चुम्बक भाय । बिना शब्द नहिं ऊबरै , केता करै उपाय ।। -संत कबीर साहब ' साकत नरि सबद सुरति किउ पाइऔ । सबद सुरति बिनु आइझ जाइऔ ॥ ' ' धुनि अनंदु अनाहदु गुरि सबदि निरंजनु पाइआ ॥ ' -गुरु नानकसाहब
केवल अजपा जाप के द्वारा ही अनाहत नाद नहीं सुना जा सकता , बल्कि ध्यानविन्दूपनिषद् से उद्धृत श्लोकों से यह विदित होता है कि इसके लिए विन्दुध्यान भी एक विशेष उत्तम साधन है । विन्दु - ध्यान दृष्टियोग के द्वारा किया जाता है । देखने की शक्ति को दृष्टि कहते हैं । दृष्टियोग में केवल इसी शक्ति का प्रयोग होना चाहिए । आँख , डीम और पुतलियों को किसी प्रकार का कष्ट नहीं हो , इसके लिए सावधान रहना चाहिए । इसके साधन की क्रिया किसी अच्छे गुरु की सेवा करके जान लेनी चाहिए ॥६ ॥
खाये भी मरिये अणखाये भी मरिये । गोरख कहै पूता संजमि ही तरिये ॥७ ॥ धाये न खाइबा , भूखे न मरिबा । अहिनिसि लेबा ब्रह्म अगिनि का भेवं ॥ हठ न करिबा , पड़े न रहिबा । यूं बोल्या गोरख देवं ॥८ ॥
भावार्थ- बहुत खाने से मृत्यु होती है तथा न खाने से भी मृत्यु होती है । गोरखनाथजी कहते हैं - ' हे पुत्र ! संयम करनेवाले ही - मध्यम मार्ग - न अधिक खाना और न कम खाना का अनुसरण करनेवाले दुःख से छूटते हैं ॥७ ॥ अघाकर भर पेट मत खाओ , भूखे मत मरो , दिन - रात ब्रह्मज्योति का भेद या रहस्य लेते रहो अर्थात् ऐसी गुप्त युक्ति का अभ्यास करते रहो , जिससे ब्रह्म - ज्योति प्राप्त होती है ॥८ ॥ '
कै चलिबा पंथा , के सीवा कंथा ।कै धरिबा ध्यान , कै कथिबा ज्ञान ॥९ ॥
गोरखनाथजी कहते हैं - ' शरीर के साथ हठ या जिद्द मत करो और न बेकाम - निठल्ले बैठो रहो । या मार्ग पर चलो , या गुदड़ी सीओ , या ध्यान करो , या ज्ञान का कथन करो - इस भाँति सर्वदा अपने को संयम में रखो । '
हबकि न बोलिबा , ठबकि न चलिबा , धीरे धरिबा पावं ॥ गरब न करिबा , सहजै रहिबा , भणंत गोरख रावं ॥१० ॥
हड़बड़ाकर मत बोलो , उतावलेपन से मत चलो । मार्ग चलने में धीरे - धीरे पैर रखो । अहंकार मत करो । सहज स्वाभाविक स्थिति में रहो - गोरखनाथजी महाराज ऐसा कहते हैं।
गोरख कहै सुनहु अबधू , जग में ऐसे रहणा । आँखे देखिबा , काने सुणिबा , मुख थैं कछू न कहणा ॥
गोरखनाथजी कहते हैं - ' हे अवधूत ! सुनो , संसार में ऐसे ( तमाशबीन बनकर ) रहो - आँख से देखो , कान से सुनो ; पर मुख से कुछ मत कहो ( स्वयं उस प्रपञ्च में मत पड़ो ) ।'
नाथ कहै तुम आपा राखौ , हठ करि बाद न करणा । यह जग है काँटे की बाड़ी , देखि दृष्टि पग धरणा ॥११ ॥ मन में रहना , भेद न कहना , बोलिबा अमृत वाणी । आगिका अगिनी होइबा अबधू , आपण होइबा पाणी ॥१२ ॥
गोरखनाथजी कहते हैं - ' तुम होश - हवास ( सुध - बुध ) रखो , हठ करके तर्क ( बहस ) मत करो । यह संसार काँटे की बाड़ी है , दृष्टि से देखकर पैर रखो अर्थात् समझ - बूझकर व्यवहार करो । मन में रहो अर्थात् मौन रहो , भेद मत कहो , मीठा वचन बोलो । अबुद्ध लोग अत्यन्त क्रोधित होंगे , तुम अपने को ठण्ढा - नम्र बनाये रखना ।।इति।।
गुरु गोरखनाथ जी महाराज के इस भजन के बाद वाले पद्य को पढ़ने के लिए यहां दबाएं।
प्रभु प्रेमियों ! "संतवाणी-सटीक" नामक पुस्तक से इस भजन के शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी द्वारा आपने जाना कि नाम जप से अष्ट सिद्धियों की प्राप्ति संभव है, परंतु वह नाम जप कैसे करना चाहिए? उसे किस विधि से करना चाहिए? मानसिक जप कैसे करे?सवा लाख जप करें या अधिक, इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद्य का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नांकित वीडियो देखें।
संतवाणी-सटीक |
गोरख वाणी भावार्थ सहित
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गोरख बाणी 04 । How to chant Sumiran । ऐसा जाप जपो मन लाई । भावार्थ सहित -महर्षि मेंहीं
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
6/21/2020
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