सूरदास 21, Where is the inner happiness । अपुनपौ आपुन ही में पायो । भजन भावार्थ सहित -स्वामी लालदास

संत सूरदास की वाणी  / 21

प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज प्रमाणित करते हुए "संतवाणी सटीक"  भारती (हिंदी) पुस्तक में लिखते हैं कि सभी संतों का मत एक है। इसके प्रमाण स्वरूप बहुत से संतों की वाणीओं का संग्रह कर उसका शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया हैं। इसके अतिरिक्त भी "सत्संग योग" और अन्य पुस्तकों में संतवाणीयों का संग्रह है। जिसका टीकाकरण पूज्यपाद लालदास जी महाराज और अन्य टीकाकारों ने किया है। यहां "संतवाणी-सुधा सटीक" में प्रकाशित भक्त  सूरदास जी महाराज  की वाणी "अपुनपौ आपुन ही में पायो,...'  का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणियों को पढेंगे। 

इस भजन (कविता, गीत, भक्ति भजन, पद्य, वाणी, छंद) में बताया गया है कि-   संसार में बहुत से लखपती हैं, करोड़पति भी है क्या वे सभी सुखी है? क्या उन्हें आन्तरिक शान्ति है? पृथ्वी पर हर एक जीव सुख की इच्छा करता है।  सुख एक मानसिक स्थिति है और यह एक अनुभूति है जो स्वयं अंदर से महसूस होती है।  आज का इंसान अपने दुख से बहुत कम दुखी है, परंतु दूसरे के सुख को देखकर ज्यादा दुखी है।    ऐसे में हमें कष्ट और दुख भोगना पड़ता है। स्थाई सुख तब मिलता है, जब हम अपने जीवन में ही इस जन्ममरण के बंधन से छूटकर अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लें । जब मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है, तब फिर उसे इस संसार में आकर जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती । इन बातों के साथ-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान पायेंगे। जैसे कि-  सच्चा सुख क्या है, सुख कैसे मिलता है, भौतिक सुख क्या होता है, जीवन का सुख, आंतरिक सुख, Sampuran Soorsagar Lokbharti Tika, राग बिलावल, अपुनपौ आपुन ही मैं पायो, सूरदास के पद - कविता कोश, सूर विनय पत्रिका, सूरदास के भाव पक्ष की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए, काव्य खंड सूरदास, सूरदास और कृष्ण, किंधौ सूर को सर लग्यो, सूरदास के पद, इत्यादि बातों को समझने के पहले, आइए ! भक्त सूरदास जी महाराज का दर्शन करें। 

इस भजन के पहले वाले पद्य  "अपुनपौ आपुन ही विसर्यो," को भावार्थ सहित पढ़ने के लिए  यहां दबाएं।

भक्त सूरदास जी महाराज भजन गाते हुए और साथ में टीकाकार लाल दास जी महाराज।
भक्त सूरदास जी महाराज भजन गाते हुए।

Where is the inner happiness

भक्त सूरदास जी महाराज कहते हैं कि " अपने भूले हुए आत्मस्वरूप को पुनः अपने ही शरीर के अंदर पाया । सद्गुरु की बतायी युक्ति के अनुसार शब्दयोग का अभ्यास करते - करते ही अंतर्योति प्रकट हो आयी ।..."   इसे अच्छी तरह समझने के लिए इस शब्द का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है; उसे पढ़ें-

भक्त सूरदास जी महाराज की वाणी

 ॥ स्कन्ध ४ , राग बिलावल ॥

 ।। मूल पद्य ।।

अपुनपौ आपुन ही में पायो ।
शब्दहिं शब्द भयो उजियारो , सतगुरु भेद बतायो ।
ज्यों कुरंग नाभी कस्तूरी , ढूँढ़त फिरत भुलायो ।
फिर चेत्यो जब चेतन है करि , आपुन ही तन छायो ।
राज कुँआर कंठे मणि भूषण , भ्रम भयो कह्यो गवायो । दियो बताइ और सत जन तब , तनु को पाप नसायो । सपने माहिं नारि को भ्रम भयो , बालक कहूँ हिरायो । जागि लख्यो ज्यों को त्यों ही है , ना कहुँ गयो न आयो ॥ सूरदास समुझे की यह गति , मन ही मन मुसकायो ।
कहि न जाय या सुख की महिमा, ज्यों गूंगो गुर खायो ।

 शब्दार्थ - अपुनपौ - अपनापा , आत्मस्वरूप । आपुन ही में अपने ही शरीर के अंदर । कुरंग - हिरन । चेतन करि - सचेत होकर । चेत्यो - विचार किया, ज्ञान किया । छायो छाया हुआ , ढका हुआ , मणि भूषण मणि का गहना , मणि - जड़ित गहना । सत जन - सज्जन , अच्छे लोग । तनु को शरीर का । पाप - कष्ट , दुःख । समुझे की यह गति - ज्ञानी ( आत्मज्ञानी ) की यह दशा । गुर - गुड़ ।

 भावार्थ - अपने भूले हुए आत्मस्वरूप को पुनः अपने ही शरीर के अंदर पाया । सद्गुरु की बतायी युक्ति के अनुसार शब्दयोग का अभ्यास करते - करते ही अंतर्योति प्रकट हो आयी ॥ जैसे हिरन की नाभि में कस्तूरी होती है ; परंतु वह इस बात को भूलकर उसकी सुगंध इधर - उधर खोजता फिरता है ; लेकिन जब वह सचेत होकर विचारता है , तो पाता है कि सुगंधित कस्तूरी तो उसी के शरीर में छिपी हुई है । किसी राजकुमार के गले में मणि - जड़ित आभूषण था । उसे भ्रम हो गया कि उसका आभूषण कहीं खो गया । जब किसी सज्जन ने उसे बताया कि आभूषण तो तुम्हारे ही गले में पड़ा हुआ है , तब उसके मन का संताप दूर हुआ । अपने बिछावन पर पड़ी हुई किसी नारी को स्वप्न में भ्रम हुआ कि उसका बालक कहीं खो गया है । लेकिन जगकर उसने देखा , तो पाया कि उसका बालक उसके पास ही ज्यों - का - त्यों है - वह न तो कहीं गया है और न कहीं से आया है । भक्त सूरदासजी महाराज कहते हैं कि आत्मज्ञानी की भी ऐसी ही दशा होती है अर्थात् जब कोई आत्मस्वरूप में आ जाता है , तब उसे पता लगता है कि उसका आत्मस्वरूप न तो खोया हुआ था और न पाया हुआ ही है । ऐसी स्थिति में वह अपनी पहले की अज्ञानता पर मन - ही - मन मुस्कुराता है । आत्मस्वरूप - प्राप्ति के आनंद की महिमा कही नहीं जा सकती , जैसे गुड़ खाकर गूंगा उसके स्वाद का वर्णन नहीं कर पाता ।।

 टिप्पणी - केवल शब्द - ध्यान से भी अंतर्योति के प्रकट हो जाने की संभावना सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंसजी महाराज ने अपने ' सत्संग - योग ' के चौथे भाग में व्यक्त की है । इति।

इस भजन के पहले वाले पद्य  "अबके माधव मोहि उघारि," को भावार्थ सहित पढ़ने के लिए  यहां दबाएं।


प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के भारती पुस्तक "संत-भजनावली सटीक" के इस भजन का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी के द्वारा आपने जाना कि आज का इंसान अपने दुख से बहुत कम दुखी है, परंतु दूसरे के सुख को देखकर ज्यादा दुखी है।    ऐसे में हमें कष्ट और दुख भोगना पड़ता है। स्थाई सुख तब मिलता है, जब हम अपने जीवन में ही इस जन्ममरण के बंधन से छूटकर अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लें ।   इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले  पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नलिखित वीडियो देखें।





भक्त-सूरदास की वाणी भावार्थ सहित
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सूरदास 21, Where is the inner happiness । अपुनपौ आपुन ही में पायो । भजन भावार्थ सहित -स्वामी लालदास सूरदास 21, Where is the inner happiness । अपुनपौ आपुन ही में पायो । भजन भावार्थ सहित -स्वामी लालदास Reviewed by सत्संग ध्यान on 7/05/2020 Rating: 5

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