कबीर वाणी 10, Identity of self । अपनपौ आपुहि तें बिसरो । भावार्थ सहित महर्षि मेंहीं

संत कबीर साहब के वाणी / 10

प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज "संतवाणी सटीक"  भारती (हिंदी) पुस्तक में बहुत से संतों की वाणीओं का संग्रह कर उसका शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी द्वारा प्रमाणित करते हुए  लिखते हैं कि सभी संतों का मत (विचार) एक ही है। इन्हीं वाणीयों में से संत कबीर साहब की वाणी  "अपनपौ आपुहि तें बिसरो,...." के बारे में पढ़ेंगे।

संत सद्गुरु कबीर साहब जी महाराज की इस गुरु भजन (कविता, गीत, भक्ति भजन,भजन कीर्तन, पद्य, वाणी, छंद) में बताया गया है कि-  आत्म स्वरूप की पहचान । स्वरूप को जानना ही अपने आप की सच्ची पहचान है, आत्म-ज्ञान की प्राप्ति संत समागम से होती है। ज्ञानी की कृपा से अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होता है। यदि खुद के स्वरूप को पहचान लिया तो फिर वह दर्शन ईश्वर स्वरूप का ज्ञान करा देता है  । इन बातों के साथ-साथ निम्नलिखित बातों पर भी कुछ-न-कुछ चर्चा मिलेगा। जैसे कि-     गुरु Kabir दे शब्द, गुरु Kabir दास जी के भजन, Book by Kabir Das, कबीर वाणी लेखक,कबीर वाणी के दोहे,कबीर वाणी के बारे में,कबीर साहिब की वाणी,संत कबीर की वाणी,आत्मा, आत्मज्ञान, ज्ञानी पुरुष की पहचान, संत कबीर में आत्मा का स्वरूप, आदि बातें। इन बातों को समझने के पहले, आइए ! संत कबीर साहब के दर्शन करें।

सदगुरु कबीर साहब के इस भजन के पहले वाले भजन "मैं तो आन पड़ी चोरन के नगर...'  को अर्थ सहित पढ़ने के लिए    यहां दबाएं।

अपनपौ आपुहि तें बिसरो, संत कबीर साहब के भजन का विस्तार से व्याख्या सद्गुरु महर्षि मेंही द्वारा।
अपनपौ आपुहि तें बिसरो

Identity of self

महान ज्ञानी संत श्री गुरु कबीर दास जी महाराज कहते है कि '"आईने के घर में कुत्ता जिस ओर देखता है , अपने शरीर का प्रतिबिम्ब देखता है । उसको धोखा होता है कि उसके चारो तरफ दूसरे - दूसरे कुत्ते हैं । उनको देख - देखकर वह भूंक - भूंककर मरता है । वह इस बात को भूल जाता है कि सब तरफ मेरा ही प्रतिबिम्ब है । इसी तरह मनुष्य अपने आत्म - स्वरूप को भूलकर आईने - सदृश मायामय संसार में भ्रम से अनेकत्व का ज्ञान ग्रहण करता है और यह जानकर कि मुझसे भिन्न - अलग - अलग आत्माएँ हैं , राग - द्वेष तथा काम क्रोधादिक विकारों में फँसकर मृत्यु का दुःख भोगता है । ....."  इस संबंध में विशेष जानकारी के लिए इस पद्य का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है। उसे पढ़ें-


कबीर बानी भावार्थ सहित

॥ मूल पद्य ॥

 अपनपौ आपुहि तें बिसरो ॥ टेक ॥
 जैसे स्वान काँच मन्दिर में , भ्रम से भूकि मरो ॥१ ॥
 ज्यों केहरि बपु निरखि कूप जल , प्रतिमा देखि गिरो ॥२ ॥   वैसे ही गज फटिक सिला में , दसनन आनि अड़ो ॥३ ॥
 मरकट मुठि स्वाद नहिं बहरै , घर घर रटत फिरो ॥४ ॥ 
 कहै कबीर नलनी के सुगना , तोहि कवन पकरो ।।५।।

 
शब्दार्थअपनपौ - आत्मस्वरूप । बिसरो- भूल गया । स्वान ( श्वान ) -कुत्ता । काँच - मंदिर - आईने का घर । भ्रम - मिथ्या ज्ञान , ' भ्रान्ति ,धोखा । केहरि - सिंह । बपु - शरीर । निरखि - देखकर । प्रतिमा प्रतिमूर्ति , परछाई , परिछाहीं । गज - हाथी । फटिक स्फटिक , बिल्लौर , मर्मर पत्थर , संगमर दसनन - दाँत । आनि आकर , लाकर । अड़ो - अड़ गया , लड़ गया , हठ का गया । मरकट - बन्दर । बहुरै लौटे । रटत - घूमता है । नलनी- छोटी पतली नली।

 पद्यार्थ - अपनी आत्मा को अपने से भूल गये । जिस तरह से आईने के घर में कुत्ता धोखे से झूक - दूंककर मरता है , जैसे सिंह कुएँ के पानी में अपने शरीर की परिछाहीं को देखकर गिर गया , उसी तरह हाथी आकर मर्मर पत्थर में अपने दाँतों से अर्थात् अपने दाँतों के द्वारा लड़ गया । बन्दर स्वाद के कारण मुट्ठी को नहीं लौटाता अर्थात् मुट्ठी को नहीं खोलता और घर - घर घूमता - फिरता है । कबीर साहब कहते हैं कि अरे नलनी के सुगना ! तुझे किसने पकड़ा है ? अर्थात् तुझे किसी ने नहीं पकड़ा है ।

भावार्थकार- सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज।
सद्गुरु महर्षि मेंहीं

 भावार्थ - आईने के घर में कुत्ता जिस ओर देखता है , अपने शरीर का प्रतिबिम्ब देखता है । उसको धोखा होता है कि उसके चारो तरफ दूसरे - दूसरे कुत्ते हैं । उनको देख - देखकर वह दूंक - दूंककर मरता है । वह इस बात को भूल जाता है कि सब तरफ मेरा ही प्रतिबिम्ब है । इसी तरह मनुष्य अपने आत्म - स्वरूप को भूलकर आईने - सदृश मायामय संसार में भ्रम से अनेकत्व का ज्ञान ग्रहण करता है और यह जानकर कि मुझसे भिन्न - अलग - अलग आत्माएँ हैं , राग - द्वेष तथा काम क्रोधादिक विकारों में फँसकर मृत्यु का दुःख भोगता है ।

शेर और खरगोश की कथा संत कबीर साहब की वाणी से
शेर और खरगोश

 सिंह की कथा - एक जंगल में एक सिंह रहता था । उस जंगल के अन्य पशुओं को इच्छानुसार वह मार - मारकर खाता था । उन सब पशुओं ने उससे कहा कि आप अपने भोजन के लिए यह नियम मान प लीजिए कि हममें प्रत्येक दिन पारी - पारी से एक - एक आपके पास स्वयं आएगा और उसे आप भोजन कीजिएगा । उस सिंह ने इस नियम को मान लिया । नियमानुसार बरता जाने लगा । एक दिन एक खरहे की पारी आयी । वह बहुत विलम्ब करके उस दिन सिंह के पास गया । भोजन में विलम्ब हो जाने के कारण सिंह बहुत क्रोधित हो रहा था ।  उसने उस खरहे से बहुत डॉटकर कहा - ' क्यों रे । तूने विलम्ब क्यों किया ? ' खरहा डरते , गिड़गिड़ाते विनय करके बोलो- " महाराज ! मैं क्या करूं ? मुझको एक दूसरे सिंह ने , जो यहाँ से कुछ दूर पर बैठा है , रोक रखा था और मुझको खा जाना चाहता था ; परन्त जब मन आपका नाम उसको कहकर विश्वास दिलाया , तब उसने क्रोध करके कहा कि जाओ , उस सिंह को बुलाकर ले आओ । पहले में उसी को भार डालूंगा , पीछे तुझे खाऊँगा । " ऐसा सुनकर वह सिंह बहुत क्रोधित हुआ और खरहे से गरजकर कहा - ' चल , दिखला उस सिंह को । ' खरहा चल पड़ा और उसके बतलाये हुए मार्ग से सिंह भी चलने लगा । कुछ दूर जाकर उस खरहे ने उस सिंह को एक कुआँ दिखला दिया और उस सिंह से कहा - ' महाराज ! इसी में मुझको रोकनेवाला दूसरा सिंह रहता है । ' सिंह उस कुएँ पर जाकर गरजा और कुएं के जल में देखा , तो उसको मालूम हुआ कि कुएँ में दूसरा सिंह गरज रहा है । वह सिंह अत्यन्त क्रोधित होकर कुएं के अन्दर के सिंह से लड़ने के लिए कुएं में कूदकर गिर पड़ा और उसीमें अपने प्राण गवाये । कुएँ में कोई दूसरा सिंह था नहीं । था उसी का प्रतिबिम्ब , जो कुएं के जल में देखने में आता था ।

संत कबीर साहब
संत कबीर साहब

      संत कबीर साहब कहते हैं कि जो आत्मज्ञान - विहीन मनुष्य हैं , वे माया के कएँ में रूप की अनेकता देखते हैं । सबमें एक आत्म - रूप को भूले रहते हैं और भिन्न - भिन्न अनेक आत्माओं के मिथ्या ज्ञान में रहकर वह माया की भिन्नता - रूप संसार में दुःख पाते रहते हैं । जैसे सिंह को कुएँ के जल में दर्शित अपने प्रतिबिम्ब से दूसरे सिंह का होना भ्रम से जान पड़ा था , वैसे ही हाथी को भी मर्मर पत्थर या संगमर्मर के पहाड़ में दर्शित अपने प्रतिबिम्ब का ही दूसरा हाथी भ्रम से दरसता है । तब वह उस पहाड़ में अपने दाँतों को लगाकर लड़ता है । एकात्मज्ञान - विहीन मनुष्य को भ्रमवश अनेक आत्माओं का ज्ञान होता है और वह राग - द्वेष में फंसकर संसार में में दुःख भोगता है ।

      बन्दर पकड़नेवाले छोटे मुँह के बर्तन में मिठाई रखकर उस बर्तन को बाहर रख देते हैं । बन्दर उस बर्तन में मिठाई को देखकर उसके स्वाद के लिए ललचता है । उस बर्तन में हाथ देता है और मिठाई को अपनी मुट्ठी में पकड़ता है ; परन्तु उस बर्तन से अपनी बँधी हुई मिठाईवाली मुट्ठी को नहीं निकाल सकता ; क्योंकि बर्तन का मुँह इतना छोटा होता है कि बंदर की वैसी मुट्ठी उसमें से नहीं निकल सकती । बन्दर मिठाई के स्वाद के लालच को छोड़कर अपनी मुट्ठी खोलकर बिना मिठाई लिये ही केवल हाथ को उस बर्तन से नहीं निकालता है और कलन्दर के अधीन ही जाता है । यद्यपि बन्दर अपनी मुट्ठी खोलकर बर्तन से अपने हाथ को निकालने में और कलन्दर की अधीनता से बचने में स्वतंत्र है । परन्तु जीभ - लालच में फंसकर कलन्दर के अधीन हो जाता है ।
      कबीर साहब कहते हैं कि इसी तरह मनुष्य भी विषय - स्वाद के लालच में फंसकर विषय के अधीन हो रहा है । परन्तु यह विषय - स्वाद के लालच को छोड़ने में और माया की अधीनता से बचने में स्वतंत्र है ।

तोते के फंसने की कथा।
तोते की कथा
तोते की कथा
 एक पतली नली में ऐसी काठी पहनाकर , जिसपर कि वह नली धूम सके , सुग्गा पकड़नेवाला उस काठी के दोनों किनारों को दो लकड़ियों से बाँधकर जमीन से थोड़ा ऊँचा करके उन दोनों लकड़ियाँ को गाड़ देता है । वह नली तब सुग्गे के बैठने के योग्य पिंजड़े में बने ऊँचे बैठक के सदृश टाल बन जाती है । उसके नीचे सुग्गे के भोजन के योग्य पदार्थों को सुग्गा पकड़नेवाला रख देता है । सुग्गा भोजन के से उस टाल पर आकर बैठता है । जब वह नीचे पड़े भोजन को अपनी चोंच से पकड़ने के लिए नीचे की ओर झुकता है , तो वह नली घूम जाती है । सुग्गे के पैर वा चंगुल ऊपर हो जाते हैं और उसका सारा शरीर नीचे हो जाता है । सुग्गा चंगुल से उस नली को पकड़े हुए चित लटकता रहता है । भ्रम से वह बोध करता है कि उसको किसी ने पकड़ रखा है ; परन्तु किसी ने उसको पकड़ा नहीं है , बल्कि वह अपने ही चंगुल से नली की टाल को पकड़े हुए है । न वह अपने चंगुल से नली को छोड़ता है , न उस नली की टाल से छूटता है , न सुग्गा पकड़नेवाले की अधीनता से बचता है और उसके अधीन हो जाता है ।
      संत कबीर साहब कहते हैं कि हे विषयासक्त मनुष्य ! तुमको किसी ने माया से बाँध नहीं दिया है । मायिक विषय - भोग के लालच में विषयों को पकड़कर तुम माया - वश हो गये हो । जैसे सुग्गा अपन चंगुल से कथित नलीवाली टाल छोड़कर स्वतंत्रता से उड़ सकता है , उसी तरह तुम भी विषय - त्याग से माया - वश्यता से छूट सकते हो । बन्दर और सुग्गे की कथित कथाओं का भाव श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी की रामचरितमानस की चौपाई में भी झलकता है--
 ईस्वर अंस जीव अविनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
 सो मायाबस भयउ  गुसाईं ।   बँधेउ कीर मर्कट की नाईं ॥ 
( कीर सुग्गा ) इति।।

इसी आशय का पद्य संत सूरदास जी महाराज के वचन में भी हैं।


इस भजन के बाद वाले पद्य "अपुनपौ आपुन ही में पायो," को भावार्थ सहित पढ़ने के लिए  यहां दबाएं।


प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के भारती पुस्तक "संत-भजनावली सटीक" के इस भजन का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी के द्वारा आपने जाना कि आत्म स्वरूप की पहचान । स्वरूप को जानना ही अपने आप की सच्ची पहचान है, आत्म-ज्ञान की प्राप्ति संत समागम से होती है। ज्ञानी की कृपा से अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होता है। यदि खुद के स्वरूप को पहचान लिया तो फिर वह दर्शन ईश्वर स्वरूप का ज्ञान करा देता है  ।   इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले  पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नलिखित वीडियो देखें।




संतवाणी-सटीक, सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज द्वारा टीका कृत ग्रंथ
संतवाणी-सटीक
कबीर वाणी भावार्थ सहित
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कबीर वाणी 10, Identity of self । अपनपौ आपुहि तें बिसरो । भावार्थ सहित महर्षि मेंहीं कबीर वाणी 10, Identity of self । अपनपौ आपुहि तें बिसरो । भावार्थ सहित महर्षि मेंहीं Reviewed by सत्संग ध्यान on 7/05/2020 Rating: 5

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