गुरु नानक साहब की वाणी / 46
भक्तों के कर्तव्य बताते हुए गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज |
सन्यासी की जीवन और दिनचर्या
प्रभु प्रेमियों ! सतगुरु बाबा नानक साहब जी महाराज इस भजन (कविता, गीत, भक्ति भजन, पद्य, वाणी, छंद) द्वारा कहते हैं कि- सन्यासी का मन कैसा रहना चाहिए? सन्यास कौन ले सकता है? सन्यासी के घटा का क्या मतलब है? सन्यासी का नख कैसा होना चाहिए? सन्यासी स्नान किस तरह करता है? सन्यासी शिक्षा किसको दे? सन्यासी का गुरु कैसा होना चाहिए? सन्यासी का खाना-पीना, सोना और जगत व्यवहार कैसा होना चाहिए? सन्यासी कैसे दूरविकारों से बचें और ईश्वर भजन करें? आत्म-दर्शन का लाभ कौन उठा सकता है? आदि बातें। अगर आपको इन सारी बातों को अच्छी तरह समझना है तो इस पोस्ट को पूरी अच्छी तरह समझते हुए पढ़ें-
नानक वाणी 46
॥ रामकली , पातशाही १० ॥
संनिआसा- संन्यास , त्याग । वन = जंगल। सदन = घर । सभै करि - समै करि, बराबर करके , एक समान । उदासा - उदास , विरक्त , उदासीन । जत - यतिपन , त्याग , वैराग्य | मज्जन = स्नान । नेम = नियम , संयम , यम - नियम ( सत्य , अहिंसा , अस्तेय , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को यम कहते हैं । शौच , संतोष , तप , स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये नियम कहलाते हैं । ) आतम= अपने को। विभूत = विभूति , भभूत , भस्म। सुलप सी - स्वल्प - सी , बहुत थोड़ी , बहुत कम । तन - से निरवाहबो = निर्वाह करो । हैवो- हो जाओ । सिऊ = से । लयावे = लय लावे, ख्याल करें । कह = को । ( अन्य शब्दों की जानकारी के लिए "संतमत+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोश" देखें )
भावार्थ -
अरे मन ! तुम इस तरह का संन्यास धारण करो । जंगल से लेकर घर तक को एक जैसा समझो और मन में संसार से विरक्त रहो ॥ रहाउ ॥
थोड़ा भोजन करो ; बहुत कम सोओ और दया - क्षमा से प्रेम करो । शीलता ( नम्र तथा उत्तम व्यवहार ) और संतोष से सदा निर्वाह करो ; इस तरह त्रय गुणों ( त्रिगुणात्मिका मूल प्रकृति ) से बाहर हो जाओ || २ ||
काम , क्रोध , अहंकार , लोभ , हठ ( दुराग्रह ) और मोह के भाव मन ( ख्याल ) में नहीं लाओ , तभी आत्मतत्त्व के दर्शन करोगे और तभी परम पुरुष परमात्मा को पाओगे ॥३ ॥ ∆
आगे है-
॥ रामकली , पातशाही १० ।।
रे मन इहि विधि जोग कमाउ । सिंगी साँच अकपट कंठला , धिआन विभूत चढ़ाउ || रहाट ॥ ताती गहु आतम बसि कर की , भिंछा नाम अधारं । आज बाजे परम तार तत हरि को , उपजै राग रसारं ॥ १ ॥ उघटै तान तरंग रंगि अति , गिआन गीत बंधानं । चकि चकि रहे देव दानव मुनि , छकि छकि व्योम विवानं ॥२ ॥ आतम उपदेश भेष संयम को , जाप सु अजपा जापै । सदा रहै कंचन सी काया , काल न कबहूँ व्यापै ॥३॥४ ॥ ....
इस भजन के बाद वाले भजन ''रे मन इहि विधि जोग कमाउ....'' को भावार्थ सहित पढ़ने के लिए 👉 यहां दबाएं।
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संतवाणी-सुधा सटीक |
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