'सद्गुरु महर्षि मेंहीं, कबीर-नानक, सूर-तुलसी, शंकर-रामानंद, गो. तुलसीदास-रैदास, मीराबाई, धन्ना भगत, पलटू साहब, दरिया साहब,गरीब दास, सुंदर दास, मलुक दास,संत राधास्वामी, बाबा कीनाराम, समर्थ स्वामी रामदास, संत साह फकीर, गुरु तेग बहादुर,संत बखना, स्वामी हरिदास, स्वामी निर्भयानंद, सेवकदास, जगजीवन साहब,दादू दयाल, महायोगी गोरक्षनाथ इत्यादि संत-महात्माओं के द्वारा किया गया प्रवचन, पद्य, लेख इत्यादि द्वारा सत्संग, ध्यान, ईश्वर, सद्गुरु, सदाचार, आध्यात्मिक विचार इत्यादि बिषयों पर विस्तृत चर्चा का ब्लॉग'
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P01ख संतमत सत्संग की प्रातःकालीन स्तुति-प्रार्थना अर्थ सहित || Nature of God Full description
प्रभु प्रेमियों ! हमलोगों ने संतमत सत्संग की प्रातःकालीन स्तुति-प्रार्थना का प्रथम पद "सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर, औरु अक्षर पार में।" का शब्दार्थ , भावार्थ और टिप्पणी का प्रथम भाग पढ़ चुके हैं । यहां इसके आगे का भाग पढ़ेंगे-
The nature of God Full description, "सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर,...' का टिप्पणी
प्रभु प्रेमियों ! पूज्यपाद लाल दास जी महाराज या छोटेलाल बाबा की टिप्पणियां प्रमाणिक होती है । वे प्रमाण स्वरूप धर्म शास्त्रों के पद्य एवं उद्धरण भी बीच-बीच में देते रहते हैं। केवल इसी पद्य को समझाने में पूज्यपाद लालदास जी महाराज ने 112 पृष्टों की एक पुस्तक ही लिख डाली है। जो "ईश्वर का स्वरूप" नाम से प्रथम बार प्रकाशित हुआ था । अब यह पुस्तक 'संतमत दर्शन' नाम से उपलब्ध है। ईश्वर का स्वरूप तत्वत: कैसा है ? इसका संपूर्ण वर्णन इसमें किया गया है। आइए यहां The nature of God Full description, "सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर,.." के बारे में आगेेेे पढ़ें- हमलोग पिछले पोस्ट में पूरा भावार्थ पढ़ चुके हैं. अब आगे टिप्पणी पढ़ें-
१ . मिट्टी से अनेक भिन्न - भिन्न बरतन बनाये जाते हैं ; उन बरतनों की भिन्न - भिन्न आकृतियाँ होती हैं और भिन्न - भिन्न नाम भी । मिट्टी मानो नामरूप - विहीन है । जब मिट्टी से अनेक विभिन्न बरतन बनाये जाते हैं , तब मिट्टी नाम - रूप से संयुक्त हो जाती है । नाम - रूप सत्य नहीं है , सत्य है मिट्टी । बरतन के फूट नाम - रूप मिट जाते हैं और तब बच जाती है सिर्फ नामरूप - विहीन मिट्टी । इसी तरह सृष्टि के पूर्व परमात्मा नामरूप - विहीन होता है । उसके द्वारा अंशरूप से नाम - रूप को धारण कर लेना ही सृष्टि का होना है । इन्द्रियाँ नामरूप को ही ग्रहण कर पाती हैं , नामरूप से युक्त तत्त्व को नहीं । पदार्थों में पाये जानेवाले विस्तार , विशेषता ( गुण ) या लक्षण - सभी नामरूप के अन्दर माने जाते हैं । लोकमान्य बाल गंगाधर तिलकजी महोदय ' गीता - रहस्य ' के अध्यात्म - प्रकरण में लिखते हैं कि वस्तुतः देखा जाय तो देश और काल , माप और तौल या संख्या इत्यादि सब नाम - रूप के ही प्रकार हैं ।
२. कैवल्य मंडल निर्मल ( त्रय गुण - विहीन ) चेतन मंडल है । निर्मल चेतन का जो अंश नीचे पिंड में आकर इन्द्रियों के संग मिल - जुल गया है , उसे ही सुरत ( चेतन वृत्ति , चेतन आत्मा ) कहते हैं । इस ' सुरत ' का मूलरूप ' स्रोत ' ( धारा ) है । ' सुरत ' का अर्थ मैथुन , अत्यन्त लीन , ध्यान और ख्याल भी होता है । राधास्वामीमत में ' सुरत ' का अर्थ ' अन्दर में सुनने की शक्ति ' और ' निरत ' का अर्थ ' अन्दर में देखने की शक्ति ' लिया जाता है । कुछ सन्तों की वाणियों से पता लगता है कि उन्होंने जड़ावरणों में फंसी हुई चेतनवृत्ति को सुरत और जडावरणों से ऊपर उठी हुई चेतनवृत्ति को निरत या निरति कहा है । सन्त कबीर साहब ने एक स्थल पर अन्तर्मुख मन को सुरत कहा है- " मन उलटै तो सुरत कहावै । " D किसी मंडल का केन्द्र उसस अलग नहीं हो सकता । कैवल्य मंडल का केन्द्र परमात्मा ही है । जिसका जो मंडल है , वह उसी में जाकर लीन होगा । सुरत साधना के द्वारा सिमटकर और ऊपर उठती हुई कैवल्य मंडल के केन्द्र में लीन होती है । परमात्मा कैवल्य मंडल से बाहर कितना अधिक है , कहा नहीं जा सकता । संत चरणदासजी ने भी लिखा है कि सुरति - निरति को पहुँच परमात्म - पद तक नहीं है- " सुरति - निरति को गम नहीं सजनी , जहाँ मिलन को अटक । "
मिट्टी के वर्तन
३. वे दो शब्द जो अर्थ की दृष्टि से आपस में किसी - न - किसी प्रकार का संबंध रखते हों , परम्पर सापेक्ष शब्द कहलात हैं । आकाश और बादल , मिट्टी -और घड़ा , पिता और पुत्र - ये सापेक्ष शब्द हैं ; क्योंकि आकाश और बादल में आधार - आधेय का , मिट्टी और घड़े में तथा पिता और पुत्र में कारण - कार्य का संबंध है । लोकमान्य बालगंगाधर तिलकजी महोदय ने उलटे अर्थ रखनेवाले दो शब्दों को भी परस्पर सापेक्ष शब्द कहा है ; जैसे - अंधकार - प्रकाश , सुख - दुख , पाप - पुण्य , अमृत - विष , जड़ - चेतन , सत् - असत् , निर्गुण - सगुण आदि । ऐसे सापेक्ष भावों से संसार ओतप्रोत है । इनसे विहीन सृष्टि की कल्पना नहीं हो सकती । ये परस्पर सापेक्ष भाव एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह आपस में जुड़े हुए हैं । सृष्टि में दुःख भी रहेगा ; सुख नहीं रहेगा तो दुःख भी नहीं रहेगा । सृष्टि के पूर्व एक - ही - एक परमात्मा था , उससे भिन्न या उसकी बराबरी का दूसरा कुछ नहीं था । यदि सृष्टि के पूर्व के परमात्मा को अंधकार कहें तो तुरंत शंका होगी कि तब उस समय प्रकाश भी होगा । इसी तरह यदि सृष्टि - पूर्व परमात्मा को आकाश कहें , तो तुरन्त मन में अनुमान होगा कि तब उस समय बादल भी होंगे ; क्योंकि हम आकाश में बादल देखते हैं ; परन्तु इस प्रकार का अनुमान या शंका गलत होगी ; क्योंकि सृष्टि - पूर्व जब एक - ही - एक परमात्मा था , तब दूसरी चीज की कल्पना हम कैसे कर सकते हैं ! इसलिए परमात्मा को न अंधकार कह सकते हैं , न प्रकाश ; न आकाश कह सकते हैं , न बादल । जड़ - चेतन , सगुण - निर्गुण , अंधकार - प्रकाश , शीत - उष्ण , ज्ञाता - ज्ञेय , दूर - निकट , व्यापक - व्याप्य , व्यक्त - अव्यक्त , क्षर - अक्षर जैसे समस्त सापेक्ष भाव सृष्टि होने पर ही हो सकते हैं । सृष्टि होने पर भी परमात्मा के सदृश या उससे उलटा गुण रखनेवाला दूसरा कुछ नहीं है । इसीलिए किसी वस्तु के साथ तुलना करके भी परमात्मा के बारे में बताया जा सकता । सृष्टि में जो कुछ भी है , सब परमात्मा का ही रूप है- " सर्व खल्वमिदं ब्रह्म । " सब परमात्मा से बने हैं और सबमें परमात्मा व्याप्त है । इसी दृष्टि से कभी - कभी परमात्मा को सत् - असत् , सगुण - निर्गुण , दूर - निकट - दोनों कहा जाता है ।
टेबुल और पुस्तक
४. जिसपर कोई वस्तु टिकी रहती है , उसे आधार कहते हैं और जो वस्तु टिकी रहती है , उसे आधेय कहते हैं ; जैसे टेबुल पर पुस्तक रखी हो , तो टेबुल को आधार और पुस्तक को आधेय कहेंगे । संसार की हर वस्तु किसी - न - किसी आधार पर टिकी हुई है और सब कुछ अन्ततः परमात्मा पर टिका हुआ है ; परन्तु परमात्मा किसी पर भी टिका हुआ नहीं है , वह अपना आधार आप ही है ; उसमें स्थान और स्थानीय का अन्तर नहीं है । इसीलिए परमात्मा को ' आधेयता गुण पार में ' कहा गया है । आधेयता - आधेय होने का भाव , किसी पर आधारित रहने का गुण ( स्वभाव , विवशता , बाध्यता ) । आधेयता गुण पार में जिसमें किसी पर आधारित होकर रहने का स्वभाव नहीं है ।
सद्गुरु कबीर साहेब
५. संत कबीर साहब ने भी कहा है कि परमात्मा ओम् - सोऽहम् शब्द नहीं है- " आंअं सोहं अर्ध उर्ध नहिं , स्वासा लेख न को है । " " सोहंगम नाद नहिं भाई , न बाजै संख सहनाई । " सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज ओम् को कैवल्य मंडल ( सत्लोक ) का शब्द मानते हैं । कुछ संत ओम् को सहस्रदल कमल से ठीक - ऊपर स्थित त्रिकुटी का शब्द मानते हैं । " त्रिकुटी महल में विद्या सारा , घनहर गरजें बजे नगारा । लाल बरन सूरज उजियारा , चत्र कवल मझार शब्द ओकारा है । " ( कबीर - शब्दावली , भाग १ ) “ ओं शब्द वेद बतलाये । त्रिकुटी मद्ध माहिं सं आवं ।। " ( घटरामायण ) " लाल सूर जहँ गुरु का रूपा । ओंकार पद त्रिकुटी भूपा ।। " ( संत राधास्वामी ) साँस लेते समय ' सो ' जैसी ध्वनि हाती है और साँस छोड़ते समय ' ह ' जैसी । इस तरह साँस के साथ बिना मुँह से जपे ही रात - दिन ' साहं ' शब्द ध्वनित होता । समस्त अन्तर्नादों को भी साहं शब्द या अजपा जप इसीलिए कहा जाता है . कि वे भी बिना मुँह से जपे ही साँस द्वारा होनेवालं ' साह ' शब्द की तरह निरन्तर ध्वनित हो रहे हैं ; परन्तु प्रायः सन्तों ने आदिनाद को ही साहं शब्द कहा है । कुछ लोग कहते हैं कि आदिनाद को सोहं ( सोऽहम्स : + अहम् वह मैं हूँ ) इसलिए कहते हैं कि वह साधक की सुरत को खींचकर अपने निज मंडल - कैवल्य मंडल में पहुँचा दंता है , जहाँ साधक अनुभव करता है कि जो परमात्मा है , वही मैं हूँ । कुछ संत साहं को भँवरगुफा का शब्द मानते हैं ; देखें- " भँवर गुफा में सोहं राजे , मुरली अधिक बजाया है । " ( संत कबीर साहब ) " भँवर गुफा के बीच , उठत है सोहं बानी । " ( संत पलटू साहब ) “ भँवर गुफा ढिग सोहं बंसी , रीझ रही मैं सुन - सुन तान । " ( संत राधास्वामी ) अपने एक पद में संत कबीर साहब ने ओम् - सोऽहम् को त्रिकुटी का शब्द बताया है- " ओअं सोहं बाजा बाजै , त्रिकुटी सुरत समानी । "
घड़ा और मिट्टी पानी
६. परमात्मा अंश - रूप से प्रकृति - मंडल में फैला हुआ है , इसलिए वह व्यापक और प्रकृति - मंडल व्याप्य हुआ । व्याप्य ( प्रकृति - मंडल ) भी परमात्मा ही है , इसको इस तरह समझाया जा सकता है - जल से बनी हुई बर्फ में जल ओतप्रोत है और बर्फ तथा जल - दोनों तत्त्वतः एक ही हैं ; फिर भी दोनों के गुणों में भिन्नता है ; जैसे जल अपेक्षाकृत सूक्ष्म है और बर्फ स्थूल ; जल से खेती की सिंचाई होती है ; परन्तु बर्फ गिरने से खेती का नाश हो जाता है । इसी प्रकार परमात्मा से बने प्रकृति - मंडल में परमात्मा ओतप्रोत है और प्रकृति - मंडल तथा परमात्मा में तात्त्विक अन्तर नहीं , गुणों का अन्तर है- " जो गुन - रहित सगुन सोइ कैसे । जलु हिम उपल विलग नहिं जैसे ।। " ( रामचरितमानस , बालकांड ) परमात्मा सूक्ष्मातिसूक्ष्म है , जबकि प्रकृति - मंडल उसकी अपेक्षा स्थूल । परमात्मा परम सनातन , परम पुरातन एवं परम अविनाशी है , जबकि प्रकृति - मंडल नवीन , परिवर्तनशील , नाशवान् और अस्वाभाविक है । परमात्मा के साक्षात्कार से जीव आवागमन के चक्र छूट जाता है ; परन्तु प्रकृति - मंडल में पड़ा हुआ जीव जन्म - मरण का दुःख भोगता रहता है । अद्वैतवाद के अनुसार , परमात्मा के सिवा दूसरा कुछ भी सत्य नहीं है , तब यही कहना पड़ेगा कि व्याप्य ( प्रकृति - मंडल ) भी परमात्मा ही है - परमात्मा का ही रूप है । रामचरितमानस , उत्तरकांड में भी परमात्मा को व्यापक और व्याप्य - दोनों कहा गया है ; देखें- " व्यापक व्याप्य अखंड अनन्ता । अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।। " परमात्मा समस्त प्रकृति - मंडलों में अंशरूप से व्यापक है और समस्त प्रकृति - मंडल परमात्मा के अन्दर हैं । इसलिए भी परमात्मा को व्यापक और व्याप्य - दोनों कह सकते । पद्य में व्यापक और व्याप्य को एक ही बताकर अद्वैतवाद का समर्थन किया गया है ।
७. जिस आदिनाद को ओंकार , समष्टि प्राण , सारशब्द आदि कहा जाता है , उसीसे प्रकाश की उत्पत्ति हुई है ; देखें- " ओअंकार हुआ परगास । साजे धरती धउल अकास ।। " ( गुरु नानकदेवजी ) समुद्र को रत्नगर्भ कहते हैं ; क्योंकि वह अपने गर्भ में रत्न छिपाये हुए है । इसी तरह हिरण्यगर्भ वह है जो अपने गर्भ में हिरण्य छिपाये हुए हो अथवा जिससे हिरण्य को उत्पत्ति हुई हो- " हिरण्यं गर्भे यस्य सः हिरण्यगर्भः । " हिरण्य का अर्थ है - सोना ; परन्तु ' हिरण्यगर्भ ' में ' हिरण्य ' का लाक्षणिक अर्थ है - सुनहला प्रकाश । प्रकाश की उत्पत्ति सारशब्द से हुई है , इसीलिएं सारशब्द को हिरण्यगर्भ भी कहते हैं । विष्णु और महेश के साथ जिस ब्रह्मा की चर्चा की जाती है , उसे भी हिरण्यगर्भ कहते हैं ; क्योंकि पौराणिक मान्यता के अनुसार , वह सुवर्णमय अंडे से उत्पन्न हुआ था- " हिरण्यं ( हेममयं अंड ) गर्भः ( उत्पत्तिस्थानः ) यस्य सः हिरण्यगर्भः । " सांख्यशास्त्र की शब्दावली में हिरण्यगर्भ को समष्टि महत् ( सर्वव्यापी बुद्धि ) कहा जाता है ।
८. परमात्मा न उत्पन्न होता है , न विनष्ट होता है ; न घटता है , न बढ़ता है । वह सब प्रकार के विकारों से रहित है । इसीलिए वह अनामय कहा गया है ।
९ . ऋषियों और अन्य संतों ने भी परमात्म - तत्त्व को द्वैत - द्वन्द्व , सापेक्ष भावों और परस्पर सापेक्ष पदार्थों से परे बताया है ; देखें - द्वैताद्वैतविहीनोऽस्मि । भावाभावविहीनोऽस्मि । सत्यासत्यादिविहीनोऽस्मि । ( मैत्रेयी उपनिषद् ) " जहँ नहिं सुख दुख साँच झूठ नहिं , पाप न पुन पसारा । नहिं दिन रैन चन्द नहिं सूरज , बिना जोति उँजियारा ।। ( संत कबीर साहब )
१०. पहले , सातवें और सोलहवें पद्य में हरिगीतिका छन्द के चरण हैं । इस छन्द के प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती हैं ; १६-१२ या १४-१४ पर यति और अन्त में ।S = लघु - गुरु ।∆ ( पदावली के सभी छंदों के बारे में विशेष जानकारी के लिए पढ़ें-- LS14 महर्षि मँहीँ-पदावली की छन्द-योजना )
आगे हैं--
पूज्यपाद बाबा महर्षि श्री श्रीधर दास जी महाराज, पूज्यपाद बाबा महर्षि श्री संतसेवी जी महाराज तथा पूज्यपाद बाबा श्री लालदास जी महाराज द्वारा किया गया इसी भजन के टीका का चित्र जो इन सभी से विलक्षण है. उसे अवश्य पढ़ें--
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गुरु महाराज की शिष्यता-ग्रहण 14-01-1987 ई. और 2013 ई. से सत्संग ध्यान के प्रचार-प्रसार में विशेष रूचि रखते हुए "सतगुरु सत्संग मंदिर" मायागंज कालीघाट, भागलपुर-812003, (बिहार) भारत में निवास एवं मोक्ष पर्यंत ध्यानाभ्यास में सम्मिलित होते हुए "सत्संग ध्यान स्टोर" का संचालन और सत्संग ध्यान यूट्यूब चैनल, सत्संग ध्यान डॉट कॉम वेबसाइट से संतवाणी एवं अन्य गुरुवाणी का ऑनलाइन प्रचार प्रसार।
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