शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी - सहित
( १ )
ईश - स्तुति
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सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी |
सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर , औरु अक्षर पार में । निर्गुण सगुण के पार में , सत् असत् हू के पार में ॥ १ ॥
सब नाम रूप के पार में , मन बुद्धि वच के पार में ।
गो गुण विषय पँच पार में , गति भाँति के हू पार में ॥ २ ॥
सूरत निरत के पार में , सब द्वन्द्व द्वैतन्ह पार में ।
आहत अनाहत पार में , सारे प्रपंचन्ह पार में ॥ ३ ॥
सापेक्षता के पार में , त्रिपुटी कुटी के पार में ।
सब कर्म काल के पार में , सारे जंजालन्ह पार में ॥ ४ ॥
अद्वय अनामय अमल अति, आधेयता गुण पार में ।
सत्तास्वरूप अपार सर्वाधार मैं - तू पार में ॥ ५ ॥
पुनि ओ३म् सोऽहम् पार में , अरु सच्चिदानन्द पार में ।
हैं अनन्तं व्यापक व्याप्य जो, पुनि व्याप्य
व्यापक पार में ॥६ ॥
हैं हिरण्यगर्भहु खर्व जासों , जो हैं सान्तन्ह पार में ।
सर्वेश हैं अखिलेश हैं , विश्वेश हैं सब पार में ॥ ७ ॥
सत्शब्द धरकर चल मिलन , आवरण सारे पार में ।
सद्गुरु करुण कर तर ठहर, धर ‘मेँहीँ' जावे पार में ॥ ८ ॥
शब्दार्थ--
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शब्दार्थकार-- बाबा लालदास |
क्षेत्र = खेत, शरीररूपी खेत, शरीर । ( देखें- गीता , अध्याय १३ श्लोक १) [ शरीर पाँच प्रकार के हैं - स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण और कैवल्य । गीता , अध्याय १३ में पाँच स्थूल तत्त्वों , पाँच सूक्ष्म तत्त्वों , कर्म और ज्ञान की दस इन्द्रियों , मन , अहंकार , बुद्धि , जड़ात्मिका मूल प्रकृति , चेतना , संघात ( कहे गयं का संघरूप ) , धृति ( धारण करने की शक्ति ) , इच्छा , द्वेष , सुख और दु : ख - इन इकतीस तत्त्वों के समुदाय को स-विकार क्षेत्र कहा गया है । अन्तिम चार तत्त्व ही क्षेत्र के विकार हैं । गीता के इस क्षेत्र के अन्दर उक्त पाँचो शरीर आ जाते हैं । ] क्षर = नाशवान् , परिवर्तनशील , जड़ प्रकृति मंडल ( देखें , गी ० , अ ० १५ ) । अपरा (स्त्री ० वि० ) = अपरा प्रकृति , निम्न कोटि की प्रकृति , अज्ञानमयी प्रकृति , जड़ प्रकृति मंडल ( देखें , गी ० , अ ० ७ ) । परा (स्त्री ० वि० ) = प्रकृति , उच्च कोटि की प्रकृति , ज्ञानमयी प्रकृति , चंतन प्रकृति ( देखें , गी ० , अ ० ७) । निर्गुण = गुण - रहित , जो त्रय गुणों ( सत्त्व , रज और तम ) सं विहीन हो , चेतन प्रकृति ।
सगुण =
१ . त्रय गुण - सहित ,
२. त्रय गुणों से बना हुआ , जड़ प्रकृति मंडल । सत् जो अविनाशी या अपरिवर्तनशील है , चेतन प्रकृति ।
असत् = जो अविनाशी नहीं है , जो विनाशशील या परिवर्तनशील है , जड़ प्रकृति मंडल ।
हू = भी ।
पार = पर , परे , बाहर , ऊपर , विहीन , श्रेष्ठ , भित्र ।
नाम -
रूप = पदार्थ के नाम , रूप ( रंग और आकृति ) , गंध , स्पर्श , शब्द , स्वाद , अन्य कोई गुण , माप - तौल , संख्या , विस्तार ( लम्बाई - चौड़ाई - मुटाई वा गहराई ) आदि ।
मन = भीतर की चार इन्द्रियों में से एक जिसकी मुख्य वृत्ति है प्रस्ताव करना , गुनावन करना या संकल्प - विकल्प करना । ( जाग्रत् और स्वप्न - अवस्थाओं में धाराप्रवाह उलटी - सीधी बातों का मन में आते रहना , मन का संकल्प - विकल्प करना है । )
बुद्धि = निश्चय या विचार करनेवाली भीतर की एक इन्द्रिय ।
वच = वचन , वाणी , वाक्य ।
गो = इन्द्रिय ।
गुण = त्रय गुण , धर्म , स्वभाव , विशेषता ।
विषय = रूप , रस , गंध , शब्द और स्पर्श ।
गति = गमन , जाना , चाल , चलने की क्रिया , एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने की क्रिया , हिलने - डोलने की क्रिया , कंपन ।
भाँति = प्रकार , विविधता , अनेकता ।
सूरत = सुरत , चेतन आत्मा , चेतन - वृत्ति ।
निरत= संलग्न ; यहाँ अर्थ है संलग्नता । ( सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने अपनी पुस्तक ' सन्तवाणी सटीक ' में सन्तवाणियों में आये ' निरत ' का अर्थ प्रायः संलग्नता ही किया है । )
द्वन्द्व = सुख - दुःख , शीत - उष्ण जैसे परस्पर विरोधी दो भाव ; देखें- "
शीत उष्णादि द्वन्द्व पर प्रभु की । " (
१४१ वाँ पद्य )
द्वैत = दो होने का भाव , दोहरा होने का भाव , जोड़ा , द्वन्द्व , विविधता , अनेकता , भिन्नता , अलग होने का भाव , अन्तर , भेद ।
आहत = चोट खाया हुआ , जिसपर आघात किया गया हो ; यहाँ अर्थ है आहत शब्द अर्थात् वह शब्द जो किसी पदार्थ के आहत होने पर उत्पन्न हुआ हो , जड़ात्मक प्रकृतिमंडलों के शब्द ।
अनाहत ( न + आहत ) = जो आहत नहीं हुआ हो , जिसपर आघात नहीं किया गया हो ; यहाँ अर्थ है अनाहत शब्द अर्थात् वह शब्द जो किसी पदार्थ के आहत होने पर उत्पन्न नहीं हुआ हो . आदिनाद , सारशब्द । ( आदिनाद अत्यन्त अचल अकंप अनन्तस्वरूपी परमात्मा से अलौकिक रीति से उत्पन्न हुआ है । )
प्रपंच = फैलाव , विस्तार , माया , विविधता , उलझन , सृष्टिः देखें -
विधि प्रपंच गुन अवगुन साना । कहहिं वेद इतिहास पुराना ।। " ( रामचरितमानस . बालकाण्ड )
सापेक्षता के पार में = जो सापेक्ष नहीं है , जो परस्पर सापेक्ष भावों या पदार्थों में से भी नहीं कहा जा सकता ( सापेक्षता सापेक्षा होने का भाव ।
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सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी |
सापेक्ष = स + अपेक्ष ।
स = साथ , सहित , गुप्त ।
अपेक्ष = अपेक्षा ।
अपेक्षा = चाहना , आवश्यकता , आसरा , सहारा , भरोसा , तुलना में , अनुपात में ।
सापेक्ष = अपेक्षा साहित , जो कोई चाहना रखता हो . जिसे कोई आवश्यकता हो , जो किसी दूसरे पर आधारित हो , जो अपने आपमें स्वतंत्र नहीं - दूसरे के अधीन हो , जो किसी से प्रभावित होता हो , जो किसी की तुलना में किसी प्रकार का हो , जिसका किसी के साथ आनुपातिक संबंध हो ।
परस्पर सापेक्षा भाष-
१. वे दो पदार्थ जिनका आपस में कारण कार्य या आधार- आधेय का संबंध हो; जैसे- पिता-पुत्र और मिट्टी - घड़े में कारण - कार्य का तथा आकाश - बादल में आधार - आधेय का संबंध है ।
२. उलटे गुण रखनेवाले दो पदार्थ : जैसे- अंधकार - प्रकाश , शीत - उष्ण , जन्म - मरण , जड़ - चेतन आदि । )
त्रिपुटी = ज्ञाता - ज्ञेय- नान , ध्याता - ध्येय - ध्यान अथवा भक्ति - भक्त भगवन्त - जैसे परस्पर संबद्ध तीन पदार्थ अथवा इन तीनों का पारस्परिक अन्तर ।
त्रिपुटी कुटी = वह स्थान जहाँ तक ज्ञाता - ज्ञेय और ज्ञान - इन तीनों में अन्तर बना रहता है , कैवल्य मंडल । (
त्रि = तीन ।
पुटी = जिसमें कोई चीज रखी जा सके , खोखली जगह । )
कर्म = क्रिया , जो कुछ हो अथवा जो कुछ किया जाय ।
काल = समय ।
जंजाल = जग - जाल , प्रपंच , उलझन , फँसाव , बंधन , आवरण ।
अद्वय = जा दो नहीं हो , जो अनेक नहीं हो , अद्वितीय , जो एक - ही - एक हो , अनुपम , बेजोड़, जिसके समान दूसरा कुछ वा कोई नहीं हो ।
अनामय (न + आमय = अन् + आमय ) = रोग - रहित , रिकार - रहित , परिवर्तन - रहित , क्षय - रहित ।
अमल ( अ + मल ) = निर्मल , मल - रहित , पवित्र , शुद्ध , निर्दोष , निर्विकार ।
आधेयता = किसी पर आधारित रहने का गुण , किसी पर टिके रहन का स्वभाव , किसी के सहारे रहने का भाव । (
आधेय = जो किसी पर आधारित हो . जो किसी पर टिका हुआ हो । )
सत्तास्वरूप = सत्तारूप , सबकी सत्ता ( अस्तित्व ) का कारण (करै न कछु कछु होय न ता बिन । सबको सत्ता कहै अनुभव जिन।।" --14 वां पद्य), सबकी सत्ता का मूल आधार , जिसके अस्तित्व पर सबका अस्तित्व कायम हो , परम सत्ता , वास्तविक सत्ता , जिसकी अपनी वास्तविक स्थिति हो , जो अपनी निजी स्थिति से विद्यमान हो , जो अपना आधार आप हो । (
सत्ता = अस्तित्व , विद्यमानतः , वास्तविकता । )
अपार = जिसका वार - पार या ओर - छोर नहीं हो , जिसकी सीमा नहीं हो , असीम , आदि - मध्य - अन्त - रहित ।
सर्वाधार ( सर्व + आधार ) = सबका आधार , जिसपर सबकुछ टिका हुआ हो , समस्त प्रकृतिमंडलों का आधार ।
मैं - तू = द्वैतता , अनेकता , विविधता , अलगाव , सृष्टि के पदार्थों के भिन्न - भित्र होने का भाव ।
ओम् = आदिनाद , सारशब्द । ( सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ओम् को त्रिकुटी का शब्द नहीं , कैवल्य मंडल का शब्द मानते हैं । )
सोऽहम् = ( १ ) अन्तर्नाद , अनहद नाद ; अजपा जप , ( २ ) आदिनाद , ( ३ ) भंवरगुफा का शब्द ।
सच्चिदानन्द = सच्चिदानन्द ब्रह्म । ( कुछ विचारक परम सत्ता को सत् - चित् - आनन्दमयी मानते हैं ; परन्तु कुछ अन्य विचारका का कहना है कि परम सत्ता सच्चिदानन्दमयी नहीं , परा प्रकृति सच्चिदानन्दमयी है । सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने परा प्रकृति में व्याप्त परमात्म - अंश को सच्चिदानन्द ब्रह्म कहा है । )
व्यापक = जो किसी में फैला हुआ हो ; यहाँ अर्थ है - समस्त प्रकृतिमंडलों में फैला हुआ परमात्म - अंश ।
व्याप्य = जिसमें कुछ फैलकर रह सके ; यहाँ अर्थ है - समस्त प्रकृतिमंडल जिसमें परमात्मा अंश - रूप से फैला हुआ है । ( किसी लोहे के गोले को गर्म करने पर गर्मी उसमें सर्वत्र व्याप्त हो जाती है । यहाँ गोला व्याप्य और गर्मी व्यापक कही जायगी । )
हिरण्यगर्भ = १ . ब्रह्मा , २. सारशब्द ; देखें “
हिरण्यगर्भ सूक्ष्मं तु नादं बीजत्रयात्मकम् । " ( योगशिखोपनिषद् ) अर्थात् हिरण्यगर्भ सूक्ष्म है । वही तो नाद है , जो त्रयात्मक ( त्रय गुणों के सम्मिश्रण से बनी हुई मूल प्रकृति ) का बीज है ।
खर्व = छोटा ; देखें- "
रुद्धं नहीं नाहिं दीर्घं न खर्वं । " (
१३ वाँ पद्य )
सान्त ( स + अन्त ) = जिसके आदि - अन्त हों , सीमा - सहित , ससीम , सीमा रखनेवाला पदार्थ , हददार चीज ।
सर्वेश ( सर्व + ईश ) = सबका स्वामी , समस्त प्रकृतिमंडलों में व्यापक परमात्म - अंश ।
अखिलेश ( अखिल + ईश ) = अखिल विश्व का स्वामी , संपूर्ण ब्रह्माण्डों में व्याप्त परमात्म - अंश ।
विश्वेश ( विश्व + ईश ) = एक विश्व का स्वामी , एक विश्व ( ब्रह्माण्ड ) में व्याप्त परमात्म - अंश ।
सत्शब्द = अपरिवर्तनशील शब्द , आदिनाद ।
आवरण = स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण और कैवल्य अथवा अंधकार , प्रकाश और शब्द ।
करुण कर = करुणामय हाथ , दयामय हाथ ।
तर = नीचे ।
धर = धरकर , पकड़कर ।
भावार्थ -
परमात्मा सब शरीरों ( स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण और कैवल्य ) से विहीन है । वह क्षर , अपरा , सगुण और असत् कही जानेवाली जड़ प्रकृति तथा अक्षर , परा , निर्गुण और सत् कही जानेवाली चेतन प्रकृति से भी श्रेष्ठ और ऊपर है ।।१ ।।
वह सब नाम - रूपों से विहीन , मन - बुद्धि आदि अन्त : करणों के ग्रहण में नहीं आनेयोग्य , कथन में नहीं आ सकनेवाला और कर्म - ज्ञान की बाहरो दस इन्द्रियों की पकड़ से भी बाहर है । इसी तरह वह सत्त्व , रज और तम - प्रकृति के इन तीनों गुणों से रहित या ऊपर और रूप - रसादि पंच विषयों से रहित अथवा भिन्न है । वह कुछ भी चलायमान नहीं है , उसके प्रकार ( भेद ) भी नहीं हैं ।।२ ।।
जिस कैवल्य मंडल ( सत्लोक ) में सुरत की संलग्नता या लीनता होती है , परमात्मा उससे भी ऊपर है । वह सुख - दु : ख , शीत - उष्ण जैसे सभी द्वन्द्व भावों से बिल्कुल रहित है । वह आहत शब्द , अनाहत शब्द और सब सृष्टियों के पार विद्यमान है ॥३ ।।
वह अंधकार - प्रकाश , सत् - असत् , अगुण - सगुण , आकाश - बादल , पिता - पुत्र जैसे परस्पर सापेक्ष भावों में से कुछ भी कहा नहीं जा सकता । जहाँ तक ( कैवल्य मंडल तक ) ज्ञाता - ज्ञेय और ज्ञान - इन तीनों में अन्तर ( त्रिपुटी ) बना रहता है , परमात्मा उस त्रिपुटी कुटी ( कैवल्य मंडल ) से भी ऊपर है । वह सब प्रकार की क्रियाओं , देश - काल - दिशाओं और सारे बंधनों से मुक्त है ॥४ ।।
उसकी बराबरी का या उससे श्रेष्ठ दूसरा कोई वा कुछ नहीं है । वह अत्यन्त निर्विकार - निर्दोष और विशुद्ध है । वह किसी पर आधारित रहने का गुण नहीं रखता । सबके अस्तित्व का मूलकारण वही है । वह सीमा - रहित , समस्त प्रकृति - मंडलों का आधार और मैं - तू ( सृष्टि के पदार्थों की अनेकता ) के पार है ।।५ ।।
फिर वह ओम् अजपा जप अथवा ओम् तथा सोऽहम् नामक ध्वन्यात्मक शब्दों के पार में और सच्चिदानन्द ब्रह्म से भी श्रेष्ठ वा ऊपर है । ऐसा जो परमात्मा आदि - अन्त - रहित है , अंश - रूप से प्रकृति - मंडलों में अत्यन्त सघनता से व्यापक है और जो स्वयं व्याप्य ( प्रकृति - मंडल ) ही है , वही फिर व्याप्य ( प्रकृति - मंडल ) से और प्रकृति - मंडल में व्यापक अपने अंश से बाहर भी है ।।६ ।।
ब्रह्मा या समष्टि प्राण ( आदिनाद ) भी जिससे बहुत छोटा ( निम्न दर्जे का ) है , जो सीमा रखनेवाले सभी पदार्थों के पार में है , वह अंशरूप से सर्वेश ( समस्त प्रकृति - मंडलों का स्वामी ) , अखिलेश ( संपूर्ण ब्रह्मांडों का स्वामी ) और विश्वेश ( एक विश्व या ब्रह्मांड का स्वामी ) कहलानेवाला परमात्मा सबके पार में है ।।७ ।।
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सद्गुरु देव मेँहीँ बाबा |
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि सत्शब्द को पकड़कर अंधकार , प्रकाश और शब्द - इन सारे आवरणों के पार में उस परमात्मा से मिलने के लिए चलो । फिर कहते हैं कि सन्त सद्गुरु के दयामय हाथ के नीचे रहकर और उसे पकड़कर ही कोई उक्त आवरणों के पार जा सकता है ; तात्पर्य यह कि संवा के द्वारा सद्गुरु की कृपा प्राप्त करके और उनका आशा - भरोसा रखकर ही कोई शिष्य उक्त आवरणों के पार जा सकता है ।।८ ।।.....
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