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P01क पदावली भजन -सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर-- अर्थ सहित || Morning prayer of Santmat Satsang

महर्षि मेँहीँ पदावली / 01 (क)

     प्रभु प्रेमियों ! संतवाणी अर्थ सहित में आज हम लोग जानेंगे- संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "महर्षि मेँहीँ पदावली" जो हम संतमतानुयाइयों के लिए गुरु-गीता के समान अनमोल कृति है। इस कृति के  01 ला पद्य  "सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर,....''  का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी के  बारे में ।  जिसे पूज्यपाद लालदास जी महारा नेे लिखा है। 


पदावली भ़जन नंबर 01 भावार्थ सहित
ईश्वर स्वरूप का वर्णन करते हुए गुरुदेव और टीकाकार

संतमत सत्संग की प्रात:कालीन ईश-स्तुति में ईश्वर स्वरूप का अद्भुत वर्णन

     प्रभु प्रेमियों  ! इस  ईश्वर संबंधित पदावली भजन ( कविता, पद्य, वाणी, गीत) की ऐसी विशेषता या महिमा है कि- अगर आप ईश्वर का स्वरूप कैसा है? इसे बुद्धि से भी समझ जाते हैं, तो यह आपको हमेशा  मनुष्य का ही शरीर दिलाएगा, जबतक आपको मोक्ष (मुक्ति) नहीं मिल जाती । अतः इस भजन को बहुत ही सावधानी और मनोयोग पूर्वक समझते हुए इसके शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणियों का पाठ करें। 
     इस पद्य में ईश्वर स्वरूप का ऐसा वर्णन किया गया है जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। मानो गागर में सागर समाया हो । इस छोटे से शब्द में सृष्टि के सभी मुख्य- मुख्य स्थानों का वर्णन करके उनसे परमात्मा या ईश्वर स्वरूप की तुलना करके बताया गया है कि वो ईश्वर इसके जैसा भी नहीं है. तो वास्तव में ईश्वर कैसा है? इसको वही अनुभव कर सकता है, जो संत सद्गुरु की आज्ञाकारी और समर्पित शिष्य होगा । अधिक क्या कहा जाय आप इसके शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी  पढ़कर स्वयं इन बातों को समझें--


महर्षि मेँहीँ - पदावली

शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी - सहित  

 (  १  ) 

 ईश - स्तुति

 
परिव्राजक सदगुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ध्यान अवस्था में
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी
सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर , औरु अक्षर पार में ।
निर्गुण सगुण के पार में , सत् असत् हू के पार में ॥ १ ॥
सब नाम रूप के पार में , मन बुद्धि वच के पार में ।
गो गुण विषय पँच पार में , गति भाँति के हू पार में ॥ २ ॥
 सूरत निरत के पार में ,   सब  द्वन्द्व  द्वैतन्ह पार में ।
 आहत   अनाहत  पार में ,   सारे  प्रपंचन्ह  पार  में ॥ ३ ॥
 सापेक्षता के पार में ,   त्रिपुटी  कुटी  के  पार   में ।
 सब कर्म काल के पार में ,   सारे जंजालन्ह पार में ॥ ४ ॥
 अद्वय अनामय अमल अति, आधेयता गुण पार में ।
 सत्तास्वरूप   अपार   सर्वाधार   मैं - तू   पार   में ॥ ५ ॥
 पुनि ओ३म् सोऽहम् पार में , अरु सच्चिदानन्द पार में ।
 हैं अनन्तं व्यापक व्याप्य जो, पुनि व्याप्य
                                                  व्यापक पार में ॥६ ॥
 हैं हिरण्यगर्भहु खर्व जासों , जो हैं सान्तन्ह पार में ।
 सर्वेश  हैं  अखिलेश  हैं ,   विश्वेश   हैं सब पार में ॥ ७ ॥
 सत्शब्द धरकर चल मिलन , आवरण सारे पार में ।
 सद्गुरु करुण कर तर ठहर, धर ‘मेँहीँ' जावे पार में ॥ ८ ॥


     शब्दार्थ--  
शब्दार्थकार-- पूज्यपाद बाबा लालदास जी महाराज
शब्दार्थकार-- बाबा लालदास
      क्षेत्र = खेत, शरीररूपी खेत, शरीर । ( देखें-  गीता , अध्याय १३ श्लोक १) [ शरीर पाँच प्रकार के हैं - स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण और कैवल्य । गीता , अध्याय १३ में पाँच स्थूल तत्त्वों , पाँच सूक्ष्म तत्त्वों , कर्म और ज्ञान की दस इन्द्रियों , मन , अहंकार , बुद्धि , जड़ात्मिका मूल प्रकृति , चेतना , संघात ( कहे गयं का संघरूप ) , धृति ( धारण करने की शक्ति ) , इच्छा , द्वेष , सुख और दु : ख - इन इकतीस तत्त्वों के समुदाय को स-विकार क्षेत्र कहा गया है । अन्तिम चार तत्त्व ही क्षेत्र के विकार हैं । गीता के इस क्षेत्र के अन्दर उक्त पाँचो शरीर आ जाते हैं । ] क्षर = नाशवान् , परिवर्तनशील , जड़ प्रकृति मंडल ( देखें , गी ० , अ ० १५ ) । अपरा (स्त्री ० वि० ) = अपरा प्रकृति , निम्न कोटि की प्रकृति , अज्ञानमयी प्रकृति , जड़ प्रकृति मंडल ( देखें , गी ० , अ ० ७ ) । परा (स्त्री ० वि० ) = प्रकृति , उच्च कोटि की प्रकृति , ज्ञानमयी प्रकृति , चंतन प्रकृति ( देखें , गी ० , अ ० ७) । निर्गुण = गुण - रहित , जो त्रय गुणों ( सत्त्व , रज और तम ) सं विहीन हो , चेतन प्रकृति । सगुण = . त्रय गुण - सहित , . त्रय गुणों से बना हुआ , जड़ प्रकृति मंडल । सत् जो अविनाशी या अपरिवर्तनशील है , चेतन प्रकृति । असत् = जो अविनाशी नहीं है , जो विनाशशील या परिवर्तनशील है , जड़ प्रकृति मंडल । हू = भी । पार = पर , परे , बाहर , ऊपर , विहीन , श्रेष्ठ , भित्र । नाम - रूप = पदार्थ के नाम , रूप ( रंग और आकृति ) , गंध , स्पर्श , शब्द , स्वाद , अन्य कोई गुण , माप - तौल , संख्या , विस्तार ( लम्बाई - चौड़ाई - मुटाई वा गहराई ) आदि । मन = भीतर की चार इन्द्रियों में से एक जिसकी मुख्य वृत्ति है प्रस्ताव करना , गुनावन करना या संकल्प - विकल्प करना । ( जाग्रत् और स्वप्न - अवस्थाओं में धाराप्रवाह उलटी - सीधी बातों का मन में आते रहना , मन का संकल्प - विकल्प करना है । ) बुद्धि = निश्चय या विचार करनेवाली भीतर की एक इन्द्रिय । वच = वचन , वाणी , वाक्य । गो = इन्द्रिय । गुण = त्रय गुण , धर्म , स्वभाव , विशेषता । विषय = रूप , रस , गंध , शब्द और स्पर्श । गति = गमन , जाना , चाल , चलने की क्रिया , एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने की क्रिया , हिलने - डोलने की क्रिया , कंपन । भाँति = प्रकार , विविधता , अनेकता । सूरत = सुरत , चेतन आत्मा , चेतन - वृत्ति । निरत= संलग्न ; यहाँ अर्थ है संलग्नता । ( सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने अपनी पुस्तक ' सन्तवाणी सटीक ' में सन्तवाणियों में आये ' निरत ' का अर्थ प्रायः संलग्नता ही किया है । ) द्वन्द्व = सुख - दुःख , शीत - उष्ण जैसे परस्पर विरोधी दो भाव ; देखें- " शीत उष्णादि द्वन्द्व पर प्रभु की । " ( १४१ वाँ पद्य ) द्वैत = दो होने का भाव , दोहरा होने का भाव , जोड़ा , द्वन्द्व , विविधता , अनेकता , भिन्नता , अलग होने का भाव , अन्तर , भेद । आहत = चोट खाया हुआ , जिसपर आघात किया गया हो ; यहाँ अर्थ है आहत शब्द अर्थात् वह शब्द जो किसी पदार्थ के आहत होने पर उत्पन्न हुआ हो , जड़ात्मक प्रकृतिमंडलों के शब्द । अनाहत ( न + आहत ) = जो आहत नहीं हुआ हो , जिसपर आघात नहीं किया गया हो ; यहाँ अर्थ है अनाहत शब्द अर्थात् वह शब्द जो किसी पदार्थ के आहत होने पर उत्पन्न नहीं हुआ हो . आदिनाद , सारशब्द । ( आदिनाद अत्यन्त अचल अकंप अनन्तस्वरूपी परमात्मा से अलौकिक रीति से उत्पन्न हुआ है । ) प्रपंच = फैलाव , विस्तार , माया , विविधता , उलझन , सृष्टिः देखें - विधि प्रपंच गुन अवगुन साना । कहहिं वेद इतिहास पुराना ।। " ( रामचरितमानस . बालकाण्ड ) सापेक्षता के पार में = जो सापेक्ष नहीं है , जो परस्पर सापेक्ष भावों या पदार्थों में से भी नहीं कहा जा सकता ( सापेक्षता सापेक्षा होने का भाव । 
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी 
सापेक्ष = स + अपेक्ष । = साथ , सहित , गुप्त । अपेक्ष = अपेक्षा । अपेक्षा = चाहना , आवश्यकता , आसरा , सहारा , भरोसा , तुलना में , अनुपात में । सापेक्ष = अपेक्षा साहित , जो कोई चाहना रखता हो . जिसे कोई आवश्यकता हो , जो किसी दूसरे पर आधारित हो , जो अपने आपमें स्वतंत्र नहीं - दूसरे के अधीन हो , जो किसी से प्रभावित होता हो , जो किसी की तुलना में किसी प्रकार का हो , जिसका किसी के साथ आनुपातिक संबंध हो । परस्पर सापेक्षा भाष- . वे दो पदार्थ जिनका आपस में कारण कार्य या आधार- आधेय का संबंध हो; जैसे- पिता-पुत्र और मिट्टी - घड़े में  कारण - कार्य का तथा आकाश - बादल में आधार - आधेय का संबंध है । २. उलटे गुण रखनेवाले दो पदार्थ : जैसे- अंधकार - प्रकाश , शीत - उष्ण , जन्म - मरण , जड़ - चेतन आदि । ) त्रिपुटी = ज्ञाता - ज्ञेय- नान , ध्याता - ध्येय - ध्यान अथवा भक्ति - भक्त भगवन्त - जैसे परस्पर संबद्ध तीन पदार्थ अथवा इन तीनों का पारस्परिक अन्तर । त्रिपुटी कुटी = वह स्थान जहाँ तक ज्ञाता - ज्ञेय और ज्ञान - इन तीनों में अन्तर बना रहता है , कैवल्य मंडल । ( त्रि = तीन । पुटी = जिसमें कोई चीज रखी जा सके , खोखली जगह । ) कर्म = क्रिया , जो कुछ हो अथवा जो कुछ किया जाय । काल = समय । जंजाल = जग - जाल , प्रपंच , उलझन , फँसाव , बंधन , आवरण । अद्वय = जा दो नहीं हो , जो अनेक नहीं हो , अद्वितीय , जो एक - ही - एक हो , अनुपम , बेजोड़, जिसके समान दूसरा कुछ वा कोई नहीं हो । अनामय (न + आमय = अन् + आमय ) = रोग - रहित , रिकार - रहित , परिवर्तन - रहित , क्षय - रहित । अमल ( अ + मल ) = निर्मल , मल - रहित , पवित्र , शुद्ध , निर्दोष , निर्विकार । आधेयता = किसी पर आधारित रहने का गुण , किसी पर टिके रहन का स्वभाव , किसी के सहारे रहने का भाव । ( आधेय = जो किसी पर आधारित हो . जो किसी पर टिका हुआ हो । ) सत्तास्वरूप = सत्तारूप , सबकी सत्ता ( अस्तित्व ) का कारण  (करै न कछु कछु होय न ता बिन । सबको सत्ता कहै अनुभव जिन।।" --14 वां पद्य), सबकी सत्ता का मूल आधार , जिसके अस्तित्व पर सबका अस्तित्व कायम हो , परम सत्ता , वास्तविक सत्ता , जिसकी अपनी वास्तविक स्थिति हो , जो अपनी निजी स्थिति से विद्यमान हो , जो अपना आधार आप हो । ( सत्ता = अस्तित्व , विद्यमानतः , वास्तविकता । ) अपार = जिसका वार - पार या ओर - छोर नहीं हो , जिसकी सीमा नहीं हो , असीम , आदि - मध्य - अन्त - रहित । सर्वाधार ( सर्व + आधार ) = सबका आधार , जिसपर सबकुछ टिका हुआ हो , समस्त प्रकृतिमंडलों का आधार । मैं - तू = द्वैतता , अनेकता , विविधता , अलगाव , सृष्टि के पदार्थों के भिन्न - भित्र होने का भाव । ओम् = आदिनाद , सारशब्द । ( सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ओम् को त्रिकुटी का शब्द नहीं , कैवल्य मंडल का शब्द मानते हैं । ) सोऽहम् = ( १ ) अन्तर्नाद , अनहद नाद ; अजपा जप , ( २ ) आदिनाद , ( ३ ) भंवरगुफा का शब्द । सच्चिदानन्द = सच्चिदानन्द ब्रह्म । ( कुछ विचारक परम सत्ता को सत् - चित् - आनन्दमयी मानते हैं ; परन्तु कुछ अन्य विचारका का कहना है कि परम सत्ता सच्चिदानन्दमयी नहीं , परा प्रकृति सच्चिदानन्दमयी है । सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने परा प्रकृति में व्याप्त परमात्म - अंश को सच्चिदानन्द ब्रह्म कहा है । ) व्यापक = जो किसी में फैला हुआ हो ; यहाँ अर्थ है - समस्त प्रकृतिमंडलों में फैला हुआ परमात्म - अंश । व्याप्य = जिसमें कुछ फैलकर रह सके ; यहाँ अर्थ है - समस्त प्रकृतिमंडल जिसमें परमात्मा अंश - रूप से फैला हुआ है । ( किसी लोहे के गोले को गर्म करने पर गर्मी उसमें सर्वत्र व्याप्त हो जाती है । यहाँ गोला व्याप्य और गर्मी व्यापक कही जायगी । ) हिरण्यगर्भ = १ . ब्रह्मा , २. सारशब्द ; देखें “ हिरण्यगर्भ सूक्ष्मं तु नादं बीजत्रयात्मकम् । " ( योगशिखोपनिषद् ) अर्थात् हिरण्यगर्भ सूक्ष्म है । वही तो नाद है , जो त्रयात्मक ( त्रय गुणों के सम्मिश्रण से बनी हुई मूल प्रकृति ) का बीज है  ।  खर्व = छोटा ; देखें- " रुद्धं नहीं नाहिं दीर्घं न खर्वं । " ( १३ वाँ पद्य ) सान्त ( स + अन्त ) = जिसके आदि - अन्त हों , सीमा - सहित , ससीम , सीमा रखनेवाला पदार्थ , हददार चीज । सर्वेश ( सर्व + ईश ) = सबका स्वामी , समस्त प्रकृतिमंडलों में व्यापक परमात्म - अंश । अखिलेश ( अखिल + ईश ) = अखिल विश्व का स्वामी , संपूर्ण ब्रह्माण्डों में व्याप्त परमात्म - अंश । विश्वेश ( विश्व + ईश ) = एक विश्व का स्वामी , एक विश्व ( ब्रह्माण्ड ) में व्याप्त परमात्म - अंश । सत्शब्द = अपरिवर्तनशील शब्द , आदिनाद । आवरण = स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण और कैवल्य अथवा अंधकार , प्रकाश और शब्द । करुण कर = करुणामय हाथ , दयामय हाथ । तर = नीचे । धर = धरकर , पकड़कर । 





भावार्थ - 

भावार्थ कार पूज्य पाद स्वामी श्री लाल दास जी महाराज।
भावार्थकार- स्वामी लालदास 
परमात्मा सब शरीरों ( स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण और कैवल्य ) से विहीन है । वह क्षर , अपरा , सगुण और असत् कही जानेवाली जड़ प्रकृति तथा अक्षर , परा , निर्गुण और सत् कही जानेवाली चेतन प्रकृति से भी श्रेष्ठ और ऊपर है ।।१ ।।

वह सब नाम - रूपों से विहीन , मन - बुद्धि आदि अन्त : करणों के ग्रहण में नहीं आनेयोग्य , कथन में नहीं आ सकनेवाला और कर्म - ज्ञान की बाहरो दस इन्द्रियों की पकड़ से भी बाहर है । इसी तरह वह सत्त्व , रज और तम - प्रकृति के इन तीनों गुणों से रहित या ऊपर और रूप - रसादि पंच विषयों से रहित अथवा भिन्न है । वह कुछ भी चलायमान नहीं है , उसके प्रकार ( भेद ) भी नहीं हैं ।।२ ।। 

जिस कैवल्य मंडल ( सत्लोक ) में सुरत की संलग्नता या लीनता होती है , परमात्मा उससे भी ऊपर है । वह सुख - दु : ख , शीत - उष्ण जैसे सभी द्वन्द्व भावों से बिल्कुल रहित है । वह आहत शब्द , अनाहत शब्द और सब सृष्टियों के पार विद्यमान है ॥३ ।। 

वह अंधकार - प्रकाश , सत् - असत् , अगुण - सगुण , आकाश - बादल , पिता - पुत्र जैसे परस्पर सापेक्ष भावों में से कुछ भी कहा नहीं जा सकता । जहाँ तक ( कैवल्य मंडल तक ) ज्ञाता - ज्ञेय और ज्ञान - इन तीनों में अन्तर ( त्रिपुटी ) बना रहता है , परमात्मा उस त्रिपुटी कुटी ( कैवल्य मंडल ) से भी ऊपर है । वह सब प्रकार की क्रियाओं , देश - काल - दिशाओं और सारे बंधनों से मुक्त है ॥४ ।।

उसकी बराबरी का या उससे श्रेष्ठ दूसरा कोई वा कुछ नहीं है । वह अत्यन्त निर्विकार - निर्दोष और विशुद्ध है । वह किसी पर आधारित रहने का गुण नहीं रखता । सबके अस्तित्व का मूलकारण वही है । वह सीमा - रहित , समस्त प्रकृति - मंडलों का आधार और मैं - तू ( सृष्टि के पदार्थों की अनेकता ) के पार है ।।५ ।। 

फिर वह ओम् अजपा जप अथवा ओम् तथा सोऽहम् नामक ध्वन्यात्मक शब्दों के पार में और सच्चिदानन्द ब्रह्म से भी श्रेष्ठ वा ऊपर है । ऐसा जो परमात्मा आदि - अन्त - रहित है , अंश - रूप से प्रकृति - मंडलों में अत्यन्त सघनता से व्यापक है और जो स्वयं व्याप्य ( प्रकृति - मंडल ) ही है , वही फिर व्याप्य ( प्रकृति - मंडल ) से और प्रकृति - मंडल में व्यापक अपने अंश से बाहर भी है ।।६ ।। 

ब्रह्मा या समष्टि प्राण ( आदिनाद ) भी जिससे बहुत छोटा ( निम्न दर्जे का ) है , जो सीमा रखनेवाले सभी पदार्थों के पार में है , वह अंशरूप से सर्वेश ( समस्त प्रकृति - मंडलों का स्वामी ) , अखिलेश ( संपूर्ण ब्रह्मांडों का स्वामी ) और विश्वेश ( एक विश्व या ब्रह्मांड का स्वामी ) कहलानेवाला परमात्मा सबके पार में है ।।७ ।। 

सद्गुरु देव महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज
सद्गुरु देव मेँहीँ बाबा
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि सत्शब्द को पकड़कर अंधकार , प्रकाश और शब्द - इन सारे आवरणों के पार में उस परमात्मा से मिलने के लिए चलो । फिर कहते हैं कि सन्त सद्गुरु के दयामय हाथ के नीचे रहकर और उसे पकड़कर ही कोई उक्त आवरणों के पार जा सकता है ; तात्पर्य यह कि संवा के द्वारा सद्गुरु की कृपा प्राप्त करके और उनका आशा - भरोसा रखकर ही कोई शिष्य उक्त आवरणों के पार जा सकता है ।।८ ।।.....

आगे हैं--

टिप्पणी -

१ . मिट्टी से अनेक भिन्न - भिन्न बरतन बनाये जाते हैं ; उन बरतनों की भिन्न - भिन्न आकृतियाँ होती हैं और भिन्न - भिन्न नाम भी । मिट्टी मानो नामरूप - विहीन है । ..... 


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(बिशेष नोट--
     प्रभु प्रेमियों ! ईश-स्तुति नामक इस पद की सबसे बड़ी महिमा यह है कि अगर कोई ईश्वर के स्वरूप को अपने बुद्धि-विचार से भी अच्छी तरह से समझ जाता है, तो उसे मृत्यु के बाद मनुष्य का शरीर ही प्राप्त होगा । वह दूसरी योनि में नहीं जाएगा। ईश्वरीय-ज्ञान की ऐसी महिमा है। देखें उपनिषद वाक्य- सत्संग योग भाग 1 से-

 इह चेदशकद्बोद्धं प्राक्शरीरस्य विस्रसः ।
 ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ॥४ ॥
                            केनोपनिषद, अध्याय २ , वल्ली ३


 गी ० प्रे ० गो ० , भा ० अ ० - यदि इस देह में इसके पतन से पूर्व ही ( ब्रह्म को ) जान सका तो बन्धन से मुक्त होता है , यदि नहीं जान पाया तो इन जन्म मरणशील लोकों में वह शरीर - भाव को प्राप्त होने में समर्थ होता है ।४ ॥ 

ईश्वर के स्वरूप की ऐसी महिमा जानकर ईश्वर को अच्छी तरह से समझ जाएं. इसीलिए केवल इसी भजन "सब क्षेत्र..." पर ही पूज्य बाबा लालदास जी महाराज की एक पुस्तक हैं। "संतमत दर्शन"

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इस पद्य को संतमत सत्संग के प्रातःकालीन सत्संग में ईश-स्तुति के रूप में गाते हैं। अगर आप  संतमत सत्संग की  अपराह्ण, सायंकालीन स्तुति-प्रार्थना को शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित पढ़ना चाहते हैं तो     👉  यहाँ दवाएँ.


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      प्रभु प्रेमियों !  "महर्षि मेँहीँ पदावली शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित" नामक पुस्तक  से इस भजन के शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी द्वारा आपने जाना कि अगर कोई ईश्वर के स्वरूप को अपने बुद्धि-विचार से भी अच्छी तरह से समझ जाता है, तो उसे मृत्यु के बाद मनुष्य का ही शरीर प्राप्त होगा । वह दूसरी योनि में नहीं जाएगा  इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले  पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद्य का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नांकित वीडियो देखें।




महर्षि मेंहीं पदावली, शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित।
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P01क पदावली भजन -सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर-- अर्थ सहित || Morning prayer of Santmat Satsang P01क  पदावली भजन  -सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर--  अर्थ सहित  ||  Morning prayer of Santmat Satsang Reviewed by सत्संग ध्यान on 6/29/2020 Rating: 5

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