महर्षि मेँहीँ पदावली / 09
प्रभु प्रेमियों ! संतवाणी अर्थ सहित में आज हम लोग जानेंगे- संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "महर्षि मेँहीँ पदावली" जो हम संतमतानुयाइयों के लिए गुरु-गीता के समान अनमोल कृति है। इसी कृति के 09 वां पद्य "प्रेम-भक्ति गुरु दीजिये,....'' का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी के बारे में। जिसे पूज्यपाद लालदास जी महाराज नेे किया है। इस पद्य को अपराह्न एवं सायं कालीन स्तुति-प्रार्थना में गाया जाता है।इस पद्य के पहले वाले गद्य 'संतमत की परिभाषा' को पढ़ने के लिए यहां दबाएं।
अपराह्न एवं सायं कालीन स्तुति-प्रार्थना में इस पद्य के पहले (इस पद्य को गाने के पहले) संत-स्तुति का गान किया जाता है। उसे पढ़ने के लिए यहां दबाएं।
संतो के मध्य सद्गुरु महर्षि मेंहीं और टीकाकार बगल मे |
Stuti-vinati of santmat satsang, "प्रेम-भक्ति गुरु दीजिये,...' शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित.
शब्दार्थ -
शब्दार्थकार-- बाबा लालदास |
प्रेम = हृदय का वह भाव जिसके कारण प्रिय व्यक्ति को बार बार स्मरण करते हैं ; बार - बार उसे देखने की इच्छा होती है ; सदा उसकी निकटता चाहते हैं और स्वयं कष्ट उठाकर भी उसे सुखी देखना चाहते हैं । भक्ति = सेवा भाव , हृदय का वह भाव जिसके कारण किसी सद्गुण सम्पन्न व्यक्ति के प्रति विश्वास , आदर , प्रेम , सेवा और पूज्यता का भाव रखते हैं । प्रेम - भक्ति - वह सेवा भाव जिसमें प्रेम निहित हो , प्रेमपूर्ण सेवा भाव । विनवौं = विनती करता हूँ , प्रार्थना करता हूँ । कर = हाथ । छोह - प्रेम , स्नेह , ममता , कृपा , दया ; देखें- “ नाथ करहु बालक पर छोहू । सूध दूधमुख करिअ न कोहू ॥ " ( रामचरितमानस , बालकांड ) । “ मातहु तें बढ़ि छोह करैं नित , पितहुँ तें अधिक भलाइ हे ।" (१०६ ठा पद्य) । युग - युगान = युग - युगों तक , युग - युगों से , अनेक युगों से । ( युग चार हैं- सत्ययुग , त्रेता , द्वापर और कलियुग । ) चहुँ खानि = चार खानियाँ , उत्पत्ति के विचार से चार प्रकार के प्राणी ; जैसे - अंडज , पिंडज ( जरायुज ) , उष्मज ( स्वेदज ) और उद्भिज्ज ( स्थावर , अंकुरज ) | [ अंडज = अंडे से उत्पन्न होनेवाले प्राणी ; जैसे - साँप , मछली , मुर्गा , पक्षी आदि । पिंडज - सीधे शरीर से उत्पन्न होनेवाले प्राणी ; जैसे मनुष्य , कुत्ता , बिल्ली आदि पशु । उष्मज - गर्मी - पसीने और मैल से अथवा फल आदि के सड़ने से उत्पन्न होनेवाले प्राणी ; जैसे - खटमल , जूँ , चीलर आदि । उद्भिज्ज - भूमि से उत्पन्न होनेवाले प्राणी ; जैसे - वृक्ष , गुल्म , लता आदि । अंडज भी एक तरह से पिंडज ही है । पिंडज का एक प्रकार है- -जरायुज । जो प्राणी जरायु ( झिल्ली ) में लिपटा हुआ गर्भ से जन्म लेता है , उसे जरायुज कहते हैं । ] भ्रमि-भ्रमि = भ्रमण कर करके , घूम - घूमकर । भूरी = भूरि , बहुत ; देखें- “ तातें करहिं कृपानिधि दूरी । सेवक पर ममता अति भूरी ॥ " ( रामचरितमानस , लंकाकांड ) | भक्ति - भेद = भजन - भेद , ईश्वर भक्ति करने की युक्ति , भक्ति के प्रकार , परमात्मा की ओर चलने की रीति , भक्ति - रहस्य , भक्ति की महिमा । कमाई = उद्योग , प्रयत्न । सहाई = सहाय , सहायक , दयालु , सहारा देनेवाला । अकाशा - आकाश , अंदर का आकाश , ब्रह्मांड | सार धुन्न = सारध्वनि , सारशब्द । निज घर = अपना घर , आदि घर , मूल घर , परमात्म पद । निजपन = अपनापन , अपनत्व , ममत्व , आसक्ति । जत = जितना , जो । कल्पना = विचार , धारणा | मनसा = मन से । वाचा = वचन , वचन से । कर्मणा - कर्म से । आश = आशा ; सांसारिक परिस्थितियों , वस्तुओं और प्राणियों से सुख पाने की उम्मीद , इच्छा । त्रास = भय , डर , अहित होने की संभावना से उत्पन्न दुःख । वैर = पुरानी शत्रुता , दुश्मनी , द्वेष । व ( फा ० ) और । नेहू - नेह , स्नेह , प्रेम , राग । मद - अहंकार , घमंड ; मैं ऐसा हूँ या वैसा हूँ ; मैंने यह किया या वह किया ऐसी धारणा । लोभ = लालच , किसी दूसरे की अच्छी या उपयोगी वस्तु को देखकर उसे अपनाने या वैसी ही वस्तु कहीं से या किसी तरह प्राप्त करने की प्रबल इच्छा का होना । वेग - काम - क्रोध आदि विकारों का आवेग , आवेश , उत्तेजना । सतावै = संताप दे , दुःख दे , तंग करे , परेशान करे | भावै = अच्छा लगे । जोतस्वरूप = ज्योति स्वरूप , प्रकाश - रूप ( दशम द्वार का श्वेत ज्योतिर्मय विन्दु गुरु का एक छोटे - से - छोटा सगुण साकार प्रकाशमय रूप है । ) धुनरूपा = ध्वनि - रूप , ध्वनिमय रूप , सारशब्द । ( सारशब्द गुरु का निर्गुण ध्वनिमय रूप है । ) रहूँ - जाँच करता रहूँ , पहचान करता रहूँ , खोजता रहूँ । निशि - दिन - रात - दिन । अनूपा = अनुपम , उपमा - रहित , तुलना - रहित , जिसके समान दूसरा कोई अथवा कुछ नहीं हो ।
भावार्थकार- स्वा.लालदास |
हे गुरुदेव ! आप अपने चरणों की प्रेमपूर्वक सेवा करने की भावना मेरे हृदय में दीजिये । मैं अपने दोनों हाथों को जोड़कर आपसे यह भी प्रार्थना करता हूँ कि मेरे प्रति आपका जो पल - पल स्नेह बना रहता है , उसे आप कभी नहीं हटाइये । हे गुरुदेव ! आप और भी मेरी प्रार्थनाएँ सुन लीजिये ॥१ ॥
युग - युगों से चारो खानियों में भ्रमण करते हुए मैंने बहुत दुःख पाया , फिर भी आज तक मैं आपके चरणों की प्रेम भक्ति नहीं प्राप्त कर सका , इससे दूर ही रहा ॥२ ॥
मेरा मन पल - पल माया में रमता रहता है , माया से कभी अलग नहीं होता है । आपकी भक्ति का महत्त्व मैं भूला हुआ रहता हूँ और इसीलिए रो - रोकर दुःख सहता हूँ || ३ ||
हे दयालु गुरुदेव ! आपने दया करके मुझे भक्ति - भेद बतला दिया और मुझ अभागे जीव के सौभाग्य को जगा दिया || ४ ||
मुझे दूसरे का और अपना भी कुछ बल नहीं है , जिससे मैं भक्ति की कमाई कर सकूँ । हे गुरुदेव ! भक्ति करने का बल मैं तभी पा सकता हूँ , जब आप मेरे प्रति दयालु हो जाएँ ॥५ ॥
हे गुरुदेव ! आप मुझपर ऐसी दया कीजिये , जिससे मेरी दोनों दृष्टि - धाराएँ एक होकर दशम द्वार में टिक जाएँ , सुरत अन्तर की ध्वनियों में लीन हो जाए और भक्ति भाव में मेरा मन इस प्रकार रम जाए , जिस प्रकार वह माया में रम जाया करता है ॥६ ॥
ब्रह्मज्योति जग जाए , अनहद ध्वनियाँ सुनाई पड़ने लग जाएँ ; सुरत आन्तरिक शून्य में चढ़ जाए और सारशब्द में लीन होकर निज घर ( परमात्म पद ) में में वास करे ॥७ ॥
सांसारिक पदार्थों में अपनेपन की मेरी जितनी कल्पनाएँ हैं , वे सब मिट जाएँ और मन , वचन तथा कर्म से मेरी सुरत आपके चरणों के प्रेम में लीन होकर रहे ॥८ ॥
सांसारिक प्राणी - पदार्थों से सुख मिलने की जो आशा है , प्रिय प्राणी - पदार्थों के नष्ट होने की आशंका से जो मुझे भय उत्पन्न हो रहा है और लोगों के प्रति मेरा जो वैर ( शत्रुता , द्वेष ) तथा प्रेम है सभी समाप्त हो जाएँ और केवल एक आपके चरणों के प्रति मेरा प्रेम बना रहे ॥९ ॥
काम , क्रोध , घमंड , लोभ आदि छह विकारों के आवेग मुझे बार - बार सताया नहीं करें । सभी प्रिय वस्तुओं तथा व्यक्तियों , परिवार के सभी सदस्यों और संपत्तियों में भी मेरी कुछ भी आसक्ति नहीं रहे ॥१० ॥
हे गुरुदेव ! आप अत्यन्त दयालु होकर मुझपर ऐसी ही कृपा कीजिये । मैं आपके चरणों की शरण होकर आपसे विनती करता हूँ कि आप मुझे अपना बना लीजिए ॥११ ॥
आपके ज्योति - रूप ( श्वेत ज्योतिर्मय विन्दु ) और ध्वनि - रूप ( सारशब्द ) की परख ( खोज , पहचान ) मैं दिन - रात करता रहूँ- हे गुरुदेव ! आप मुझपर ऐसी ही उपमा रहित दया कीजिये ॥१२ ॥
टिप्पणी -
टिप्पणीकार- बाबा लालदास जी |
३. मन से जप ध्यान करना , वाणी से गुणगान करना और कर्म से सेवा करना यही मन , वचन और कर्म से गुरु में समाकर रहना है ।
पदावली पद 9 का शब्दार्थ |
पदावली पद 9 का भावार्थ |
पदावली पद 9 का टिप्पणी |
टीकाकार का संक्षिप्त परिचय |
अपराह्न कालीन सत्संग के बाद रामचरितमानस का कोई प्रसंग पाठ किया जाता है । फिर उस पर ब्याख्या किया जाता है। गुरु महाराज के प्रवचनों द्वारा उन ब्याख्याओं को पढ़ने के लिए आप 👉 यहां दवाएं।
प्रभु प्रेमियों ! इन तीन पोस्टों द्वारा संतमत सत्संग की अपराह्न+सायंकलीन स्तुति-विनती को आप लोग अच्छी तरह समझ गए होंगे, ऐसा हम आशा करते हैं । इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की नि:शुल्क सूचना आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। इस पद्य का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नांकित वीडियो को देखें । जय गुरु महाराज।
महर्षि मेँहीँ पदावली.. |
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