सूरदास 07, How is the nature of god । जो जन ऊधो मोहि न बिसरै । भजन भावार्थ सहित । -महर्षि मेंहीं

संत सूरदास की वाणी  / 07

प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज प्रमाणित करते हुए "संतवाणी सटीक"  भारती (हिंदी) पुस्तक में लिखते हैं कि सभी संतों का मत एक है। इसके प्रमाण स्वरूप बहुत से संतों की वाणीओं का संग्रह कर उसका शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया हैं। इसके अतिरिक्त भी "सत्संग योग" और अन्य पुस्तकों में संतवाणीयों का संग्रह है। जिसका टीकाकरण पूज्यपाद लालदास जी महाराज और अन्य टीकाकारों ने किया है। यहां "संत-भजनावली सटीक" में प्रकाशित भक्त  सूरदास जी महाराज  की वाणी "जो जन ऊधो मोहि न बिसरै... '  का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणियों को पढेंगे। 
इस भजन (कविता, गीत, भक्ति भजन, पद्य, वाणी, छंद) "जो जन ऊधो मोहि न बिसरै ।,..." में सूरदास जी महाराज ने बताया है।  स्वभाव का अर्थ है- व्यक्ति का मूल गुण या प्रकृति। प्राकृतिक रूप से सदा वर्तमान रहनेवाला भाव। मनुष्य के मन में वह पक्ष, जो बहुत कुछ जन्मजात तथा प्राकृतिक होता है और जो उसके आचार व्यवहार आदि का मुख्य रूप से प्रवर्तक होता और उसके जीवन में प्रायः अथवा सदा देखने में आता है। जीव जन्तुओं और प्राणियों का वह मानसिक रूप या स्थिति, जो उसकी समस्त जाति में जन्मजात होती और सदा प्रायः एक ही तरह काम करती हुई दिखाई देती है।      परंतु भगवान के स्वभाव की परिभाषा हमारे स्वभाव  या सुविचार से अलग होगा? इसलिए भक्त सूरदास जी महाराज ने भगवान के मुख से ही उनके स्वभाव का वर्णन इस पद्य में कराया है। भगवान के स्वभाव के बारे में जानने के पहले आइए भक्त सूरदास जी महाराज और भगवान का दर्शन करें- 

इस भजन के पहले वाले पद्य  "जो मन कबहुँक हरि को जाँचे ।..." को पढ़ने के लिए    यहां दबाएं।

भगवान के स्वभाव का वर्णन करते भक्त सूरदास जी महाराज।
भगवान के स्वभाव का वर्णन करते भक्त सूरदास

How is the nature of god

संत सूरदास जी महाराज कहते हैं कि "भगवान् श्रीकृष्ण अपने सखा उद्धव से कह रहे हैं कि हे उद्धव ! जो भक्त मुझे कभी नहीं भूलता है , मैं भी उसे एक क्षण या एक घड़ी के लिए भी नहीं भूलता हूँ।...." इसे अच्छी तरह समझने के लिए इस शब्द का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है; उसे पढ़ें-

 भक्त - प्रवर सूरदास जी की वाणी

।। मूल पद्य ।।
 
जो जन ऊधो मोहि न बिसरै , ताहि न बिसारौं छिन एक घड़ी ।।टेक ।। जो मोहि भजै भजौं मैं वाको , कल न परत मोहि एक घड़ी । काटौं जनम जनम के फंदा , राखौं सुख आनंद करी ॥१ ॥ चतुर सुजान सभा मैं बैठे , दुश्शासन अनरीत करी । सुमिरन कियो द्रौपदी जब ही , बँचत चीर उबारि धरी ।।२ ।। ध्रुव प्रह्लाद रैन दिन ध्यावत , प्रगट भये बैकुण्ठपुरी । भारत में भडुही का अंडा , जापर गज को घण्ट ढुरी ॥३ ॥ अम्बरीष घर आयो दुर्वासा , चक्र सुदर्शन छाँह करी । सूर के स्वामी गजराज उबारो , कृपा करो जगदीश हरी ॥४ ॥

शब्दार्थ - जन- भक्त , लोग , मनुष्या ऊधो- उद्भव , भगवान् श्रीकृष्ण के सखा । बिसरे - विस्मृत करता है , भूलता है । बिसारौं - विस्मृत करता हूँ , भुलाता हूँ । छिन = क्षण , ६ सेकेण्ड का समय । घड़ी - २४ मिनट का समय । वाको - उसको । ताहि = उसको । कल - चैन । फंदा - फंद , बंधन । राखौं - रखता हूँ , रक्षा करता हूँ । करी - करि , करके , पूर्वक । चतुर = बुद्धिमान् । सुजान - अच्छ ज्ञानवाला । दुश्शासन : दुर्योधन का एक भाई । अनरीत = अनरीति , अन्याय , अत्याचार । चीर = वस्त्र , साड़ी । उबारि धरी - उद्धार करके बचा लिया , संकट से छुड़ा लिया , विपत्ति से बचा लिया । रैन = रजनी , रात । ध्यावत - ध्यान किया । प्रगट = प्रकट , प्रत्यक्षा बैकुण्ठपुरी = वैकुण्ठपुर में रहनेवाले , भगवान् विष्णु । भारत में = महाभारत के युद्ध - मैदान में । भड़ही = एक मादा पक्षी । जापर = जिसपर । गज = हाथी । घंट = घंटा । ढुरी = ढुलक गया , गिर गया । अम्बरीष = एक राजा जो रानी - सहित भगवान् विष्णु के बड़े भक्त थे । दुर्वासा = एक ऋषि जिनका क्रोध प्रसिद्ध है । छाँह करी - छाया की , रक्षा की । जगदीश = जगत् के ईश्वर , संसार के शासक । हरी = हरि , कष्ट हरण करनेवाला , भगवान् विष्णु ।

भावार्थ - भगवान् श्रीकृष्ण अपने सखा उद्धव से कह रहे हैं कि हे उद्धव ! जो भक्त मुझे कभी नहीं भूलता है , मैं भी उसे एक क्षण या एक घड़ी के लिए भी नहीं भूलता हूँ।टेक । जो सदा ही मेरा स्मरण करता है , मैं भी उसका सदा ही स्मरण करता हूँ ; उसका स्मरण किये बिना मुझे एक घड़ी भी चैन नहीं मिलता है । ऐसे भक्त के जन्म - जन्म के कर्म - बंधनों को मैं काट डालता हूँ और उसे सुखी तथा आनन्दित करके रखता हूँ ॥१ ॥ भरी सभा में दुःशासन द्रौपदी की साड़ी खींचकर उसे नग्न करना चाह रहा था । उस सभा में पाँचो भाई पाण्डव और भीष्म पितामह , कृपाचार्य , द्रोणाचार्य आदि बुद्धिमान् तथा ज्ञानी लोग उपस्थित थे ; परन्तु वे चुप थे , वे दुःशासन के अन्याय का विरोध नहीं कर पा रहे थे । जब द्रौपदी ने सबका भरोसा छोड़कर और अत्यन्त दुःखी होकर भगवान् श्रीकृष्ण को रक्षा के लिए स्मरण किया , तो साड़ी खींचकर नंगी की जा रही उस द्रौपदी को भगवान् ने अप्रत्यक्ष रूप से विपत्ति से उबार लिया अर्थात् नग्न होने से बचा लिया ॥२ ॥ ध्रुव और प्रह्लाद ने दिन - रात सुमिरन - ध्यान किया , तो वैकुण्ठवासी भगवान् उनके सामने प्रकट हो गये और उन्हें अपना स्नेह दिया । कुरुक्षेत्र में भड़ही नाम की एक मादा पक्षी ने अंडे दिये थे । जब वहाँ महाभारत के युद्ध के लिए कौरवों और पांडवों की सेनाएँ आमने - सामने हुईं , तो भड़ही बड़ी चिन्तित हुई कि युद्ध आरंभ होने पर तो मेरे सारे अंडे नष्ट हो जाएँगें । उसने भगवान् को अपने अंडों की रक्षा के लिए स्मरण किया । युद्ध आरंभ होने पर भगवान् की कृपा से एक हाथी के गले का बड़ा भारी घंटा अंडों के ऊपर गिर गया , जिससे वे अंडे नष्ट होने से बच गये । कुछ दिनों के बाद घंटे के अंदर ही अंडे फूट बच्चे निकल आये , युद्ध समाप्त होने पर किसी ने वह घंटा उठाया , तो सब - के - सब बच्चे उड़ गये ॥३ ॥ एक बार दुर्वासा ऋषि विष्णु - भक्त राजा अम्बरीष के भवन आये और पत्नी - सहित राजा को बहुत सताने लगे । अपने भक्तों का सताया जाना भगवान् को सहन नहीं हुआ , उन्होंने दुर्वासा ऋषि पर अपना सुदर्शन चक्र चला दिया । दुर्वासा ऋषि अपनी रक्षा के लिए भगवान् की शरण में आये । भगवान् ने कहा कि यदि आपको राजा अम्बरीष क्षमा कर देंगे , तो मैं भी क्षमा कर दूंगा । ऋषि ने राजा से क्षमा माँग ली , तब भगवान् ने सुदर्शन चक्र लौटा लिया । भक्त सूरदासजी भगवान् से कहते हैं कि हे स्वामी ! आपने ग्राह से एक गजराज का उद्धार किया था । हे संसार के शासक भगवन् ! मेरे उद्धार के लिए भी आप मुझपर कृपा कीजिए।॥४ ॥

 टिप्पणी- एक सरोवर में एक गजराज के पाँव को एक ग्राह ने पकड़ लिया । जब वह गजराज अपना पाँव छुड़ाने में असमर्थ हो गया , तब उसने भगवान् विष्णु की स्तुति की । भगवान् गरुड़ पर सवार होकर सरोवर के पास आये और उन्होंने सुदर्शन चक्र से ग्राह का मुँह फाड़कर गजराज का उद्धार किया । यह कथा श्रीमद्भागवत , अष्टम स्कंध में है । इति।।


इस भजन के  बाद वाले पद्य "प्रभु मेरे औगुन चित न धरो " को पढ़ने के लिए    यहां दबाएं।

प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के भारती पुस्तक "संत-भजनावली सटीक" के इस भजन का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी के द्वारा आपने जाना कि भगवान के स्वभाव की परिभाषा हमारे स्वभाव  या सुविचार से अलग होगा? इसलिए भक्त सूरदास जी महाराज ने भगवान के मुख से ही उनके स्वभाव का वर्णन इस पद्य में कराया है।  इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले  पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नलिखित वीडियो देखें।





भक्त-सूरदास की वाणी भावार्थ सहित

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सूरदास 07, How is the nature of god । जो जन ऊधो मोहि न बिसरै । भजन भावार्थ सहित । -महर्षि मेंहीं सूरदास 07, How is the nature of god । जो जन ऊधो मोहि न बिसरै । भजन भावार्थ सहित ।  -महर्षि मेंहीं Reviewed by सत्संग ध्यान on 6/30/2020 Rating: 5

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