सूरदास 08, What is the promise of god । प्रभु मेरे औगुन चित न धरो । भजन भावार्थ सहित । -महर्षि मेंहीं
संत सूरदास की वाणी / 08
प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज प्रमाणित करते हुए "संतवाणी सटीक" भारती (हिंदी) पुस्तक में लिखते हैं कि सभी संतों का मत एक है। इसके प्रमाण स्वरूप बहुत से संतों की वाणीओं का संग्रह कर उसका शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया हैं। इसके अतिरिक्त भी "सत्संग योग" और अन्य पुस्तकों में संतवाणीयों का संग्रह है। जिसका टीकाकरण पूज्यपाद लालदास जी महाराज और अन्य टीकाकारों ने किया है। यहां "संत-भजनावली सटीक" में प्रकाशित भक्त सूरदास जी महाराज की वाणी "प्रभु मेरे औगुन चित न धरो... ' का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणियों को पढेंगे।
इस भजन (कविता, गीत, भक्ति भजन, पद्य, वाणी, छंद) "प्रभु मेरे औगुन चित न धरो,..." में सूरदास जी महाराज ने बताया है। हे मेरे ईश्वर !हमारे अवगुण को अपने हृदय में धारण मत कीजिए। बल्कि आप अपने स्वभाव के अनुसार काम कीजिए। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित बातों का भी कुछ न कुछ समाधान हुआ है जैसे कि कविता कोश, शंकर भगवान का भजन,भगवान का भक्ति भजन,राम भगवान के भजन,भगवान का गाना,जंभेश्वर भगवान का भजन,बुद्ध भगवान के भजन,कृष्ण भगवान के भजन mp3,भगवानों के भजन इत्यादि बातों को समझने के पहले आइए भक्त सूरदास जी का दर्शन करें।
इस भजन के पहले वाले पद्य "जो जन ऊधो मोहि न बिसरै ।..." को पढ़ने के लिए यहां दबाएं।
What is the promise of god । प्रभु मेरे औगुन चित न धरो ।
भक्त सूरदास जी महाराज कहते हैं कि "हे प्रभु ! आप मेरे अवगुणों को चित्त में नहीं रखिए । आपका नाम समदर्शी है अर्थात् आप अ चे और बुरे- दोनों के प्रति समान भाव रखनेवाले कहलाते हैं । इसलिए आप अपने स्वभाव के अनुकूल ही मेरे प्रति भी व्यवहार कीजिए ।...." इसे अच्छी तरह समझने के लिए इस शब्द का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है; उसे पढ़ें-
भक्त सूरदास जी महाराज के भजन
।। मूल पद्य ।।
प्रभु मेरे औगुन चित न धरो ।
समदरसी प्रभु नाम तिहारो , अपने पनहिं करो ॥१ ॥
इक लोहा पूजा में राखत , इक घर बधिक परो ।
यह दुविधा पारस नहिं जानत , कंचन करत खरो ॥२ ॥
एक नदिया एक नार कहावत , मैलो नीर भरो ।
जब मिलि दोउ एक बरन भये , सुरसरि नाम परो ॥३ ॥
एक जीव एक ब्रह्म कहावत , सूर स्याम झगरो ।
अबकी बेर मोहि पार उतारो , नहिं पन जात टरो ॥४ ॥
शब्दार्थ - चित = चित्त , मन , हृदय , ख्याल । धरो - धारण करो , रखो । समदरसी समदर्शी , सबको समान दृष्टि से देखनेवाला । पनहि - प्रण , प्रतिज्ञा या स्वभाव के ही अनुसार । बधिक = वधिक , वधक , वध करनेवाला , हत्या करनेवाला । दुविधा = भेद - भाव , अन्तर । पारस = एक प्रकार का पत्थर जिससे लोहा सटाये जाने पर सोना हो जाता है । कंचन = सोना । खरो = खरा , अच्छा , शुद्धा नार = नाला । बरन = वर्ण , रंग , जाति , एक - जैसा , समान । सुरसरि = देवनदी , है ; परन्तु - गंगा । सूर स्याम = सूरदासजी का एक नाम । झगरो = झगड़ा , भेद , अन्तर । बेर . बार , खेप । पन- प्रण , प्रतिज्ञा , स्वभाव । जीव - जीवात्मा , परमात्मा का वह अंश जी शरीर में आबद्ध है । ब्रह्म परमात्मा का वह अंश , जो प्रकृति - मंडलों में व्याप्त है ।
भावार्थ - हे प्रभु ! आप मेरे अवगुणों को चित्त में नहीं रखिए । आपका नाम समदर्शी है अर्थात् आप अच्छे बुरे- दोनों के प्रति समान भाव रखनेवाले कहलाते हैं । इसलिए आप अपने स्वभाव के अनुकूल ही मेरे प्रति भी व्यवहार कीजिए ॥१ ॥ एक लोहा मूर्ति के रूप में पूजा - घर में रखा जाता है और दूसरा लोहा पशुओं का वध किये जानेवाले हथियार के रूप में वधिक के में रहता है । पवित्र और अपवित्र - इन दोनों प्रकार के लोहों के प्रति पारस पत्थर कोई भेद भाव नहीं बरतता , दोनों को अपने संस्पर्श से वह सच्चा सोना ही बना देता है ॥२ ॥ एक नदी होती है , जिसमें शुद्ध जल बहता रहता है । दूसरा नाला होता है , जिसमें गंदा जल प्रवाहित होता रहता दोनों ( नदी और नाले ) का जल गंगा नदी में मिलकर उसी के जल का रूप ले लेता है , तब वह भी ' गंगाजल ' ही कहलाने लगता है॥३॥शरीर में स्थित परमात्मा का एक अंश जीव कहलाता है और प्रकृति - मंडल में स्थित दूसरा अंश ब्रह्म । आवरण - भेद से दोनों अंशों के नामों में अंतर है ; परन्तु आवरणों के मिट जाने पर जीव और ब्रह्म भी निर्मल - निर्विकार परमात्मा ही कहलाने लगते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार पारस पत्थर भेदभाव को त्यागकर पवित्र और अपवित्र- दोनों लोहों को अपने संसर्ग से सच्चा सोना ही बना देता है । जिस प्रकार गंगा नदी किसी दूसरी नदी और नाले के जल को अपने जल में मिलाकर अपने जल - जैसा ही बना लेती है तथा जैसे आवरणों के मिट जाने पर जीव और ब्रह्म भी निर्मल - निर्विकार परमात्मा ही हो जाते हैं , उसी प्रकार आप मेरे दोषों पर ध्यान न देकर मुझे अपने ही समान बना लीजिए । भक्तप्रवर सूरदासजी अन्त में कहते हैं कि हे प्रभु ! इस बार मुझे संसार - समुद्र के पार कर दीजिये ; आप अपने स्वभाव या अपनी प्रतिज्ञा से विचलित नहीं होइए ॥४ ॥
टिप्पणी - भगवन्त का प्रण है कि जो मेरी शरण में आएगा , उसका मैं उद्धार कर दूंगा ।
इस भजन के बाद वाले पद्य "रे मन मूरख जनम गँवायो" को पढ़ने के लिए यहां दबाएं।
प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के भारती पुस्तक "संत-भजनावली सटीक" के इस भजन का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी के द्वारा आपने जाना कि भगवन्त का प्रण है कि जो मेरी शरण में आएगा , उसका मैं उद्धार कर दूंगा । इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नलिखित वीडियो देखें।
भक्त-सूरदास की वाणी भावार्थ सहित
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सूरदास 08, What is the promise of god । प्रभु मेरे औगुन चित न धरो । भजन भावार्थ सहित । -महर्षि मेंहीं
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
7/01/2020
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