सूरदास 15, Where will you find true happiness । मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै । भजन भावार्थ सहित । -महर्षि मेंहीं
संत सूरदास की वाणी / 15
प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज प्रमाणित करते हुए "संतवाणी सटीक" भारती (हिंदी) पुस्तक में लिखते हैं कि सभी संतों का मत एक है। इसके प्रमाण स्वरूप बहुत से संतों की वाणीओं का संग्रह कर उसका शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया हैं। इसके अतिरिक्त भी "सत्संग योग" और अन्य पुस्तकों में संतवाणीयों का संग्रह है। जिसका टीकाकरण पूज्यपाद लालदास जी महाराज और अन्य टीकाकारों ने किया है। यहां "संत-भजनावली सटीक" में प्रकाशित भक्त सूरदास जी महाराज की वाणी "मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै,...' का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणियों को पढेंगे।
इस भजन (कविता, गीत, भक्ति भजन, पद्य, वाणी, छंद) "मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै । ,..." में बताया गया है कि- "सुख पाने के लिए पहले यह जानना होगा कि सच्चा सुख किस में है, हम उसे कैसे पा सकते हैं। सुख किसी बाहरी चीज में प्राप्त नहीं किया जा सकता। संसार में बहुत से लखपती हैं, करोड़पति भी है क्या वे सभी सुखी है? क्या उन्हें आन्तरिक शान्ति है? सुख एक आंतरिक दशा है। सच्चे सुख का सम्बन्ध है रागरहित होने से । इन बातों के साथ-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान पायेंगे। जैसे कि- मिलता है सच्चा सुख केवल, सच्चा सुख क्या है, सुख कैसे मिलता है, भौतिक सुख क्या होता है, जीवन में सबसे बड़ा सुख क्या है, सुख और दुख क्या है, सुख को हर प्राणी चाहता है, सुख कैसे मिलेगा, सुख कहां है, मिलता है सच्चा सुख केवल शिवजी तुम्हारे चरणों, मिलता है सच्चा सुख केवल गुरुदेव तुम्हारे चरणों में, मिलता है सच्चा सुख केवल सतगुरु जी तुम्हारे चरणों में, मिलता है सच्चा सुख केवल भगवान, इत्यादि बातों को समझने के पहले, आइए ! भक्त सूरदास जी महाराज का दर्शन करें।
इस भजन के पहले वाले पद्य "छाँड़ि मन हरि बिमुखन को संग" को भावार्थ सहित पढ़ने के लिए यहां दबाएं।
Where will you find true happiness
भक्त सूरदास जी महाराज कहते हैं कि "मेरा मन श्रीकृष्ण के चरणों को छोड़कर दूसरे किसी स्थान पर सुख नहीं पाता है ।..." इसे अच्छी तरह समझने के लिए इस शब्द का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है; उसे पढ़ें-
भक्त सूरदास जी महाराज की वाणी
।। मूल पद्य ।।
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै ।
जैसे उड़ि जहाज को पंछी , फिरि जहाज पर आवै ॥१ ॥ कमलनैन को छाडि महातम , और देव को ध्यावै ।
परम गंग को छाडि पियासौ , दुरमति कूप खनावै ।।२ ।। जिहिं मधुकर अम्बुज रस चाख्यौ , क्यों करील फल भावै । सूरदास प्रभु कामधेनु तजि , छेरी कौन दुहावै ।।३ ।।
शब्दार्थ - अनत = अन्यत्र , दूसरी जगह । जहाज ( अ ० ) = समुद्र में चलनेवाली बड़ी नाव । फिरि = फिरकर , लौटकर । कमलनैन = कमलनयन , जिसकी आँखें कमल के समान सुन्दर हों ; यहाँ श्रीकृष्ण की ओर संकेत है । महातम = माहात्म्य , महिमा , बड़प्पन । और = दूसरा । को = कौन । ध्यावै = ध्यान करे , सेवन करे । परम गंग = अत्यन्त पवित्र गंगा । पियासौ = प्यासा । दुरमति दुर्मति , बुरी बुद्धिवाला , मूर्ख । कूप = कुआँ । खनावै = खोदे । जिहिं = जिस , जिसने । मधुकर = भौंरा । अंबुज = कमला रस = पराग । अंबुज रस = कमल का रस , कमल का पराग । चाख्यौ = चखा , स्वाद लिया । करील = एक कँटीली झाड़ी जिसमें पत्ती नहीं होती ; यहाँ अर्थ है- कड़आ । कामधेनु = स्वर्ग की वह गाय जो सब इच्छाओं को पूरा करती है । छेरी = बकरी । दुहावै = दुहे ।
भावार्थ- मेरा मन श्रीकृष्ण के चरणों को छोड़कर दूसरे किसी स्थान पर सुख नहीं पाता है । जिस प्रकार समुद्र के बीच चलनेवाले जहाज पर बैठा हुआ पक्षी स्थल की खोज के लिए जहाज पर से उड़ता है और जब उसे कहीं स्थल नहीं मिल पाता है , तो वह पुनः लौटकर जहाज का ही आश्रय लेता है । इसी प्रकार मेरा मन सुख के लिए संसार की ओर भागता है और दूसरे देवता की शरण लेने के लिए जाता है ; परन्तु उधर संतोष नहीं मिल पाने के कारण वह फिर श्रीकृष्ण की ही शरण में आ जाता है ॥१ ॥ यह उचित ही है , जब मेरे कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण सबसे अधिक महिमा रखनेवाले हैं , तो फिर मैं दूसरे किसी देवता का सेवन क्यों करूँ ! यदि मैं श्रीकृष्ण को छोड़कर अन्य किसी देवता का सेवन करूँ , तो मैं उसी प्रकार मूर्ख माना जाऊँगा ; जिस प्रकार कोई मनुष्य अज्ञानतावश निकट की अत्यन्त पवित्र गंगा को छोड़कर अपनी प्यास बुझाने के लिए तुरन्त कुआँ खोदने लगे ॥२ ॥ जिस भौर ने कमल का मीठा रस चख लिया है , वह फिर कड़ए फल का रस क्यों चखेगा ! संत सूरदासजी कहते हैं कि जब मेरे स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण कामधेनु के समान हैं , तब उन्हें छोड़कर मैं बकरी के समान अन्य देवी या देवता की शरण क्यों लूँ ॥३ ॥
इस भजन के पहले वाले पद्य "सबसों ऊँची प्रेम सगाई" को भावार्थ सहित पढ़ने के लिए यहां दबाएं।
प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के भारती पुस्तक "संत-भजनावली सटीक" के इस भजन का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी के द्वारा आपने जाना कि सुख किसी बाहरी चीज में प्राप्त नहीं किया जा सकता। संसार में बहुत से लखपती हैं, करोड़पति भी है क्या वे सभी सुखी है? क्या उन्हें आन्तरिक शान्ति है? सुख एक आंतरिक दशा है। सच्चे सुख का सम्बन्ध है रागरहित होने से । इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नलिखित वीडियो देखें।
भक्त-सूरदास की वाणी भावार्थ सहित
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सूरदास 15, Where will you find true happiness । मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै । भजन भावार्थ सहित । -महर्षि मेंहीं
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
7/03/2020
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