P139 || आरति तन-मंदिर में कीजै भजन शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित || संतमत सत्संग की आरती भाग 2

महर्षि मेँहीँ पदावली / 139

      प्रभु प्रेमियों ! संतवाणी अर्थ सहित में आज हम लोग जानेंगे- संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज की भारती (हिंदी) पुस्तक "महर्षि मेँहीँ पदावली" जो हम संतमतानुयाइयों के लिए गुरु-गीता के समान अनमोल कृति है। इसी कृति के 139वां पद्य  "आरति तन-मंदिर में कीजै।.....''  का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी के  बारे में । जिसे  पूज्यपाद लालदास जी महाराज  नेे किया है। संतमत सत्संग में तीनों समय के आरती में यह पद्य गाई जाती है. इस पद को गाने के पहले संत तुलसी साहब की बनाई आरती का गान होता है. उसे पढ़ने के लिए  👉 यहां दवाएँ.

     पदावली भजन नं.138 "जेठ मन को हेठ करिये..." को शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित पढ़ने के लिए     👉 यहां दबाएं


ईश्वर के निर्गुण स्वरूप की आरती

ईश्वर के निर्गुण निराकार स्वरूप की अलौकिक आरती

     प्रभु प्रेमियों  ! सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज जी अपने इस आरती भजन के द्वारा कहते हैं कि- "अपने शरीररूपी मंदिर में ही आरती अर्थात् ईश्वरोपासना कीजिये । इसके लिए दोनों आँखों की दोनों किरणों को अर्थात् दोनों दृष्टि धारों को एक करके सामने ( आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में ) स्थिर कीजिये ।...." इस विषय में पूरी जानकारी के लिए इस भजन का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है। उसे पढ़ने के बाद आप समझ जाएंगे कि निर्गुण निराकार रूप की आरती कैसे की जाती है-


(  139  ) 

आरती


सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ 
आरति तन - मंदिर में कीजै । दृष्टि  युगल कर  सन्मुख दीजै ॥१ ॥ चमके बिन्दु सूक्ष्म अति उज्ज्वल । ब्रह्मजोति अनुपम लख लीजै ।।२ ।। जगमग जगमग रूप ब्रह्मण्डा । निरखि निरखि जोती तज दीजै ॥३ ॥ शब्द सुरत अभ्यास सरलतर । करि करि सार शबद गहि लीजै ॥४ ॥ ऐसी जुगति काया गढ़ त्यागि । भव भ्रम - भेद सकल मल छीजै ।।५ ।। भव खंडन आरति यह निर्मल । करि “ मेँहीँ ' अमृत रस पीजै ॥६ ॥

शब्दार्थ -  

भक्तों संग सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज
भक्तों संग गुरदेव
      दृष्टि युगल कर= दोनों दृष्टि - किरणों को , दोनों दृष्टि - धारों को । सूक्ष्म अति = अत्यन्त छोटा । उज्ज्वल = उजला , प्रकाशमय । जगमग = प्रकाशित । रूप ब्रह्मांड = सूक्ष्म जगत् जहाँ तक ही रंग - रूप दिखाई पड़ते हैं , प्रकाश - मंडल । काया गढ़ = शरीररूपी किला । भव = संसार , जन्म - मरण चक्र । भ्रम = अज्ञानता , मिथ्या ज्ञान , माया । भेद = द्वैतता , अनेकता , जीव और ब्रह्म की भिन्नता का भाव । मल = अनात्म तत्त्व , असार तत्त्व , विकार , दोष । छीजै = क्षय कीजिये , धीरे - धीरे घटाइये , नष्ट कीजिये । भव खंडन = संसार को अर्थात् आवागमन के चक्र को नष्ट करनेवाला । निर्मल ( नि : + मल ) = मल - रहित , पवित्र , पवित्र करनेवाला । अमृत रस = अक्षय आनंद , अविनाशी सुख , परमात्मा का आनन्द ।  ( अन्य शब्दों की जानकारी के लिए "महर्षि मेँहीँ +मोक्ष-दर्शन का शब्दकोश" देखें )

भावार्थ - 
पूज्यपाद संत बाबा लालदास जी महाराज
भावार्थकार-लालदास बाबा
     अपने शरीररूपी मंदिर में ही आरती अर्थात् ईश्वरोपासना कीजिये । इसके लिए दोनों आँखों की दोनों किरणों को अर्थात् दोनों दृष्टि धारों को एक करके सामने ( आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में ) स्थिर कीजिये ॥१ ॥

     सिमटी हुई दृष्टि - धार को सामने स्थिर करने पर अत्यन्त छोटा ज्योतिर्मय विन्दु आएगा । ज्योतिर्मय विन्दु के साथ - साथ और भी अलौकिक प्रकाश के अनेक रंग रूप देखने में आएंगे ॥२ ॥

     रूप ब्रह्मांड ( सूक्ष्म जगत् ) विभिन्न रंगों की ज्योतियों और ज्योति रूपों से सतत प्रकाशित ( शोभायमान ) हो रहा है । उन विभिन्न रंगों की ज्योतियों और ज्योति रूपों के बीच सामने ज्योतिर्मय विन्दु का ध्यान करते ज्योति मंडल का परित्याग कर दीजिये ॥३ ॥ 

     दृष्टियोग से सुरत शब्द - योग आसान है सुरत शब्द योग का बारंबार ( तत्परतापूर्वक ) अभ्यास करके अनहद ध्वनियों के बीच सारशब्द को पकड़ लीजिये ॥४ ॥ 

     दृष्टियोग और शब्दयोग - इन दोनों युक्तियों से शरीररूपी किले ( जेल - रूपी शरीर अर्थात् दृढ़ बंधन रूप शरीर ) का त्याग करके आवागमन के चक्र को , अज्ञानता ( आत्मज्ञान - विहीनता ) को , द्वैतता ( अपने और परमात्मा के बीच बने हुए अंतर ) को और सभी मनोविकारों को नष्ट कर डालिये ।।५ ।।  

    इस तरह की जानेवाली आरती ( उपासना ) जड़ावरणों से छुड़ाकर निर्मल करनेवाली ( शुद्ध स्वरूप में प्रतिष्ठित करनेवाली ) और जन्म - मरण के चक्र से छुड़ानेवाली है । सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि ऐसी आरती करके अमृत रस पीजिये अर्थात् अविनाशी आनन्द ( परमात्मा का आनन्द ) प्राप्त कीजिये ।।६ ।।


टिप्पणी -

टिप्पणी करने वाले संत बाबा लालदास जी महाराज
टिप्पणीकार- संत लालदास
 . मानव शरीर ही परमात्मा का उसके द्वारा निर्मित सबसे सुंदर मंदिर । इसलिए परमात्मा की उपासना अपने शरीर के ही अंदर करनी चाहिये । इसके लिए कोई बाहरी उपचार या बाहरी भ्रमण करना व्यर्थ है । 

२. १३९वें पद्य का प्रथम चरण चौपाई के दो चरणों से मिलकर बना हुआ है और नीचे के प्रत्येक चरण ३२ मात्राएँ हैं ; १६-१६ पर यति और अन्त में।∆


पदावली भजन नंबर 140  "आरति परम पुरुष की कीजै " को शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित पढ़ने के लिए   👉 यहां दबाएं।


     प्रभु प्रेमियों ! "महर्षि मेँहीँ पदावली शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित" पुस्तक में उपर्युक्त पद निम्नांकित प्रकार से प्रकाशित है-


(  139  ) 

आरती

आरति तन - मंदिर में कीजै । 
                    दृष्टि  युगल कर  सन्मुख दीजै ॥ १ ॥

पदावली_भजन_139

पदावली_भजन_140


     प्रभु प्रेमियों ! उपर्युक्त चित्रों से गुरु महाराज द्वारा रचित आरती के शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी को पढ़कर आप इस पद को अच्छी तरह समझ गए होंगे। ऐसी आशा करता हूं। इसके बावजूद भी अगर आपको आरती के उच्चारण में किसी प्रकार का प्रोब्लेम है कि संतमत सत्संग की आरती कैसे की गायी जाती है। इसके लिए आप निम्नलिखित वीडियो देखें।


     प्रातः कालीन स्तुति प्रार्थना का प्रथम भाग पर जाने के लिए निम्नलिखित लिंक को दबाए।     👉 यहां दबाएं।


    अपराह्न कालीन संत-स्तुति प्रार्थना और गुरु विनती का पाठ पढ़ने के लिए        👉 यहां दबाएं



      प्रभु प्रेमियों !  "महर्षि मेँहीँ पदावली शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहितनामक पुस्तक  से इस भजन के शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी द्वारा आपने जाना कि स्थूल स्वरूप की आरती और निर्गुण स्वरूप की आरती में क्या भेद है?  इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले  पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद्य का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नांकित वीडियो देखें।




महर्षि मेंहीं पदावली, शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित।
महर्षि मेँहीँ पदावली.. 
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