'सद्गुरु महर्षि मेंहीं, कबीर-नानक, सूर-तुलसी, शंकर-रामानंद, गो. तुलसीदास-रैदास, मीराबाई, धन्ना भगत, पलटू साहब, दरिया साहब,गरीब दास, सुंदर दास, मलुक दास,संत राधास्वामी, बाबा कीनाराम, समर्थ स्वामी रामदास, संत साह फकीर, गुरु तेग बहादुर,संत बखना, स्वामी हरिदास, स्वामी निर्भयानंद, सेवकदास, जगजीवन साहब,दादू दयाल, महायोगी गोरक्षनाथ इत्यादि संत-महात्माओं के द्वारा किया गया प्रवचन, पद्य, लेख इत्यादि द्वारा सत्संग, ध्यान, ईश्वर, सद्गुरु, सदाचार, आध्यात्मिक विचार इत्यादि बिषयों पर विस्तृत चर्चा का ब्लॉग'
Home/ईश्वर/पदावली/Pईश्वर/P13, What are the demands of Gurudev God । सर्वेश्वरं सत्य शांति स्वरूपं । भजन भावार्थ सहित ।
P13, What are the demands of Gurudev God । सर्वेश्वरं सत्य शांति स्वरूपं । भजन भावार्थ सहित ।
प्रभु प्रेमियों ! संतवाणी अर्थ सहित में आज हम लोग जानेंगे- संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "महर्षि मेंहीं पदावली" जो हम संतमतानुयाइयों के लिए गुरु-गीता के समान अनमोल कृति है। इस कृति के 13 वां, पद्य- "सर्वेश्वरं सत्य शांति स्वरूपं,..." का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी के बारे में। जिसे पूज्यपाद लालदास जी महाराज नेे किया है।
इस God (कविता, पद्य, वाणी, छंद, भजन) "सर्वेश्वरं सत्य शांति स्वरूपं,..." में बताया गया है कि- ईश्वर कौन हैं , ईश्वर किसे कहते हैं, शास्त्र के अनुसार ईश्वर की परिभाषा क्या है? ईश्वर का स्वरूप कैसा है? ईश्वर कौन है? सबसे बड़ा ईश्वर कौन है? ईश्वर एक है?वेदों के अनुसार ईश्वर कौन है?भगवान किसे कहते हैं? ईश्वर in हिन्दी, ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण, भगवान और परमात्मा में अंतर, ईश्वर दर्शन, वेदों में ईश्वर का स्वरूप ? भगवान का अर्थ, ,Bhagwan se Prarthna, ईश्वर से क्या मांगे? सुख के साथ धन, ईश्वर सबकी सभी माँगें पूरी कर दें तो क्या होगा, What Is Demand In Hindi मांग क्या है, प्रभावपूर्ण मांग क्या होती है, मांग का अर्थ हिंदी, मांग को प्रभावित करने वाले तत्व, मांग की लोच को प्रभावित करने वाले तत्व आदि बातें। तो आइए पढ़ते हैं।
इस पद्य के पहले वाले पद्य को पढ़ने के लिए यहां दबाएं।
सद्गुरु महर्षि मेंहीं और टीकाकार लाल दास जी महाराज
What are the demands of Gurudev God?
सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज जी कहते हैं- "सबका स्वामी परमात्मा सत्य, शांति स्वरूप, सब में भरपूर--सर्वव्यापक, अजन्मा (न किसी से जन्मा हुआ और ना कभी जन्म लेने वाला), अकाम तथा उपमा-रहित (अद्वितीय बेजोड़) है।..." इस विषय में पूरी जानकारी के लिए इस भजन का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है। उसे पढ़ें-
( १३ )
सर्वेश्वरं सत्य शान्ति स्वरूपं ।
सर्वमयं व्यापकं अज अनूपं ॥१ ॥
तन बिन अहं बिन बिना रंग रूपं ।
तरुणं न बालं न वृद्धं स्वरूपं ॥२ ॥
गुण गो महातत्त्व हंकार पारं ।
गुरु ज्ञान गम्यं अगुण तेहु न्यारं ॥३ ॥
रुज संसृतं पार आधार सर्वं ।
रुद्धं नहीं नाहििं दीर्घं न खर्वं ॥४ ॥
ममतादि रागादि दोषं अतीतं ।
महा अद्भुतं नाहिंं तप्तं न शीतं ॥५ ॥
हार्दिक विनय मम सृनो प्रभु नमामी ।
हाटक वसन मणि की हू नाहिं कामी ॥६ ॥
राज्यं रु यौवन त्रिया नाहिँ माँगूं ।
राजस रु तामस विषय संग न लागूं ॥७ ॥
जन्मं मरण बाल यौवन बुढ़ापा ।
जर जर कर्यो रु गेर्यो अंधकूपा ॥८ ॥
कीशं समं मोह मुट्ठी को बाँधी ।
कीचड़ विषय फँसि भयो है उपाधी ॥९ ॥
जगत सार आधार देहू यही वर ।
जतन सों सो सेऊँ जो सद्गुरु कुबुद्धि हर ॥१० ॥
यही चाह स्वामी न औरो चहूँ कुछ ।
यही बिन सकल भोग गन को कहूँ तुछ ॥११ ॥
शब्दार्थ -
सर्वेश्वरं ( सर्व + ईश्वरं ) = सबका स्वामी , परम प्रभु परमात्मा । शान्तिस्वरूपं = जिसका स्वरूप शान्तिमय हो । सर्वमयं = सर्वमय , सबमें भरा हुआ , सबमें भरपूर । व्यापक = फैला हुआ , समस्त प्रकृतिमंडलों में फैला हुआ । अज = अजन्मा , उत्पत्ति - रहित । अनूपं = अनुपम , उपमा - रहित , अद्वितीय , बेजोड़ । अहं = अहम् , अहंकार जो षट् विकारों में से एक है , अभिमान , ' मैं ' और ' मेरा ' का भाव । तरुणं = तरुण , युवा , युवक । महातत्त्व = महत्तत्त्व , समष्टि बुद्धि ( सांख्य - दर्शन ) , जड़ात्मिका मूल प्रकृति ( कठोपनिषद् , अ ० २ , वल्ली ३ , श्लोक ७ ) । गुण = त्रय गुण ; सत्त्व , रज और तम । गो = इन्द्रिय । हंकार = अहंकार । पार = बाहर , विहीन । गम्यं = गम्य , जाननेयोग्य , पहचाननेयोग्य , समझनेयोग्य । तेहु = से भी । रुज = कष्ट , पीड़ा , संताप , रोग , बीमारी । संसृतं = संसृति , संसार , आवागमन । सर्वं = सर्व , सब । रुद्धं = रुद्ध , अवरुद्ध , घिरा हुआ , ढंका हुआ , आच्छादित , आवरणित । दीर्घं = दीर्घ , बड़ा । खर्वं = खर्व , छोटा ; देखें-- " हिरण्यगर्भहु खर्व जासों , जो हैं सान्तन्ह पार में । " - पहला पद्य । ममतादि ( ममता + आदि ) = ममत्व, मेरापन - अपनापन आदि भाव । रागादि ( राग + आदि ) = प्रेम , आसक्ति , लालच आदि भाव । अतीतं = अतीत , परे , बाहर , ऊपर , विहीन । तप्तं = तप्त , गरम । विनय = विनती , प्रार्थना , निवेदन । मम = मेरा । सृनो = शृणु , सुनो । महा अद्भुतं = अत्यन्त आश्चर्यजनक । शीतं = ठंढा , शीतल ।हार्दिक = हृदय का , सच्चा । प्रभु = शासक , स्वामी । नमामी = नमामि , प्रणाम करता हूँ । हाटक = सोना । वसन = कपड़ा , वस्त्र , मकान , महल , निवास । मणि = बहुमूल्य रत्न , जवाहिर । कामी = कामना करनेवाला , इच्छा करनेवाला । यौवन = जवानी । जर जर कर्यो = जर्जर किया , बहुत ज्यादा पीडित किया । गेर्यो = गेरा , गिरा दिया , डाल दिया ; देखें- " हरि ने कुटुंब जाल में गेरी । गुरु ने काटी ममता बेरी ॥ " ( सहजोबाई ) अंधकूपा = अंधकूप , संसार जो अंधकार से भरे हुए गहरे सूखे कुँए के समान भयंकर है , अज्ञानता का कुआँ , एक नरक । ( " जग तमकूप बड़ा ही भयंकर , तन बिच घोर अंधारी । " - ३२ वाँ पद्य ) कीशं = कीश , बन्दर । समं = सम , जैसा , समान । मोह = अज्ञानता , ममत्व , लालच , आसक्ति । उपाधी ( उपाधि + ई ) = त्रिगुणात्मिका माया में आबद्ध , जड़ावरणों में बँधा हुआ । ( उपाधि - विशेषण , गुण - त्रयगुण , आवरण , माया ) कुबुद्धि = बुरा विचार , बुरा ज्ञान । गन - गण , समूह । तुछ = तुच्छ , व्यर्थ , बेकार । जगत सार = जगत् का मूलतत्त्व । वर = वरदान । सेऊँ = सेवन करूँ , सेवा या भक्ति करूँ । राजस विषय = जो विषय ( पदार्थ ) रजोगुण बढ़ाए । तामस विषय = वह विषय ( पदार्थ ) जो तमोगुण की वृद्धि करे ।
भावार्थ - सबका स्वामी परमात्मा सत्य , शान्तिस्वरूप , सबमें भरपूर - सर्वव्यापक , अजन्मा ( न किसी से जनमा हुआ और न कभी जन्म लेनेवाला ) तथा उपमा - रहित ( अद्वितीय , बेजोड़ ) है ॥१ ॥ वह शरीर - रहित , मैं पन - रहित या अभिमान - रहित और रंगरूप - विहीन है । वह न बालरूप है , न युवारूप और न वृद्धरूप ही अर्थात् उसके बचपन , जवानी और बुढ़ापा - ये तीन अवस्थाएँ नहीं होती ।।२ ।। वह त्रयगुणों , कर्म और ज्ञान की दस इन्द्रियों तथा बुद्धि - अहंकार आदि भीतरी इन्द्रियों की पहुँच से परे है । निर्गुण चेतन प्रकृति से भी भिन्न वह परमात्मा सन्त सद्गुरु के ज्ञान से पहचाननेयोग्य है ॥३ ।। संसार के दुःखों से अथवा आवागमन के दु : खों से मुक्त और सबका आधारभूत वह परमात्मा किसी से घिरा हुआ नहीं है । वह न बड़ा ही है और न छोटा ही ।।४ । वह ममता ( मोह , आसक्ति , अपनेपन ) , राग ( प्रेम , आसक्ति , ईर्ष्या , द्वेष , लालच ) आदि दोषों ( विकारों ) से रहित और अत्यन्त आश्चर्यजनक है । वह न गरम है और न ठंढा ही ।।५ ।। हे स्वामी परमात्मा ! मैं आपको बारंबार नमस्कार करता हूँ ; आप मेरे हृदय की सच्ची विनती सुन लीजिये । मुझे सोने - चाँदी आदि कीमती धातुओं , बहुमूल्य वस्त्रों अथवा सोने के महल और कीमती रत्नों की भी कामना नहीं है ।।६ ।। मैं लोगों पर शासन करने के लिए विस्तृत राज्य और चिरस्थायी सुन्दर स्वस्थ जवानी तथा रूपवती सुशील स्त्री की भी आपसे प्रार्थना नहीं करता हूँ । मेरी प्रार्थना तो यह है कि मैं रजोगुण और तमोगुण बढ़ानेवाले विषयों के संग कभी नहीं लगूं ।।७ ।। न जाने , कितने युगों से बंधनरूप जन्म , बचपन , जवानी , बुढ़ापे और मृत्यु ने मुझे अत्यधिक रूप से पीड़ित किया है और अंधकार - भरे गहरे सूखे कुएँ के समान भयंकर संसार में अथवा अज्ञानता के कुएँ में डाले हुए रखा है ।।८ ।। जिस तरह सँकरे मुँहवाले बरतन के अन्दर मिठाई - बँधी अपनी मुट्ठी को लालचवश नहीं खोलने के कारण बंदर कलन्दर ( बंदर नचानेवाले ) के हाथ पकड़ा जाता है , उसी तरह मैं भी मोहवश ( अज्ञानता , आसक्ति वा लालचवश ) विषय - सुखरूपी दलदल में फँसकर त्रिगुणात्मिका माया के अधीन हो गया हूँ ।।९ ।। हे जगत् के मूलतत्त्व और आधाररूप परमात्मा ! मुझे कृपापूर्वक यह वरदान दीजिए कि मैं यत्नपूर्वक उन सद्गुरु की भक्ति ( सेवा , उपासना ) करूँ , जो कुबुद्धि ( बुरे विचारों ) को हर लेनेवाले हैं ।।१० ।। हे स्वामी ! मेरी एकमात्र यही इच्छा है ; इसके सिवा मैं और कुछ भी नहीं चाहता हूँ । इसको छोड़कर मैं सभी भोग्य पदार्थों को व्यर्थ समझू ।।११ ।।
पूज्य लाल दास जी महाराज
टिप्पणी -१ . महातत्त्व अथवा महत्तत्त्व ( महत् + तत्त्व ) का शाब्दिक अर्थ है - बड़ा तत्त्व । सांख्यदर्शन में समष्टि बुद्धि ( सर्वव्यापी बुद्धि ) को महत्तत्त्व कहा जाता है । समष्टि बुद्धि मूलप्रकृति का प्रथम कार्य है और मूलप्रकृति से उत्पन्न सभी पदार्थों में सबसे ऊपर है । कठोपनिषद् अध्याय २ , वल्ली ३ , मंत्र ७ महत्तत्त्व मूल प्रकृति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । मूलप्रकृति वह विशाल भंडार है , जिससे समस्त विश्व - ब्रह्माण्डों की रचना होती है ।
२. जो रीछ ( भालू ) और बंदर को जंगल से पकड़ लाता है और उनका नाच लोगों को दिखा - दिखाकर अपनी जीविका चलाता है , उसे कलन्दर कहते हैं । बन्दर पकड़ने के लिए कलन्दर जंगल जाता है । वहाँ वह सँकरे मुँहवाले एक बरतन को गले तक जमीन में मजबूती से गाड़ देता है और उसके अन्दर तथा बाहर भी मिठाइयाँ रख देता है । बन्दर स्वाद के लालच में वहाँ जाता है । पहले बाहर की मिठाइयाँ खाता है । पुनः वह बरतन के अन्दर झाँकता है और मिठाई देखकर उसे लेने के लिए हाथ डालता है । उसकी खुली हथेली तो बरतन के अन्दर घुस जाती है ; परन्तु मिठाई पकड़ी हुई मुट्ठी बरतन के सँकरे मुँह होकर बाहर निकल नहीं पाती है । कलन्दर के निकट आ जाने पर भी बन्दर स्वाद के लालचवश मिठाई की मुट्ठी खोलकर भागता नहीं है । इस तरह वह कलन्दर के हाथ पकड़ा जाता है । इसी तरह जीव विषय - सुख की आसक्ति में पड़कर माया के वशीभूत हो गया है । वह न विषय - सुख की आसक्ति छोड़ता है और न माया की अधीनता से छूटता है ।
३. जिस पदार्थ के संसर्ग में आलस्य सताने लगे , निद्रा का आधिक्य हो , असावधानी और विस्मृति बढ़ जाए , पाप कर्म होने लगें और अकर्त्तव्य कर्म कर्त्तव्य कर्म मालूम पड़ने लगे , तो उसे तमोगुण की वृद्धि करनेवाला समझना चाहिए । इसी तरह जिस पदार्थ के लगाव में मन चंचल हो उठे , सांसारिक कार्यों और विषय - सुखों के प्रति आसक्ति बढ़ जाए , काम - क्रोध आदि विकार प्रबल हो उठे , धर्म - अधर्म का उचित निर्णय न हो पाए ; मान - बड़ाई , पद - प्रतिष्ठा और अधिकार की चाहना जग जाए , तो उसे रजोगुण बढ़ानेवाला समझना चाहिए । इन दोनों गुणों के दबने पर जब सत्त्वगुण की वृद्धि होती है , तभी साधक को ध्यान - भजन में विशेष मन लगता है ।
४. संसार में सबसे अधिक या अत्यन्त आश्चर्यजनक कोई पदार्थ है , तो वह है परमात्मा- " अति आश्चर्य अलौकिक अनुपम । " ( १२ वाँ पद ) " महा अद्भुतं नाहिं तप्तं न शीतं । " ( १३ वाँ पद )
५. संसार में कोई ऐसा पदार्थ नहीं है , जो परमात्मा को घेर सके ; क्योंकि परमात्मा अनन्तस्वरूपी है- " नहीं आदि नहिं मध्य नहिं अन्त जाको । नहिं माया के ढक्कन से है पूर्ण ढाको ।। ( ३८ वाँ पद ) " अछादन करनहार अरु ना अछादित । " ( ४२ वाँ पद )
६. १३ वें , १४ वें और १५ वें पद को भुजंगप्रयात में बाँधने का प्रयास किया गया है।
७. १३ वें पद में बायीं ओर निकली हुई प्रत्येक पंक्ति के प्रथम अक्षर को जोड़ने पर ' सतगुरु महाराज की जय ' वाक्य बन जाता है । दायीं ओर निकली हुई प्रत्येक पंक्ति के प्रथम अक्षर को भी जोड़ने पर उक्त वाक्य बन जाता है । १५ वें पद में भी ऐसी बात देखी जा सकती है ।∆
पदावली भजन नं.14 "नमामि अमित ज्ञान,.." को शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित पढ़ने के लिए 👉यहां दबाएं।
प्रभु प्रेमियों ! महर्षि मेँहीँ पदावली पुस्तक का कई महापुरुषों के द्वारा टीका किया गया है। यहां हम पूज्यपाद लाल दास जी महाराज, पूज्यपाद संतसेवी जी महाराज एवं पूज्यपाद श्री श्रीधरदास जी महाराज द्वारा किया गया टीका के चित्र प्रस्तुत कर रहे हैं--
"महर्षि मेँहीँ पदावली : शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी-सहित" पुस्तक में उपरोक्त भजन नंबर 12 का लेख निम्न प्रकार से प्रकाशित है--
पदावली भजन नंबर 13
पदावली भजन नंबर 13क
पदावली भजन नंबर 13ख
पदावली भजन नंबर 13ग
पदावली भजन नंबर 13घ
महर्षि मेंहीं-पदावली सटीक में भजन नंबर 13 निम्न चित्रानुसार प्रकाशित है-
पदावली भजन नंबर 13क
पदावली भजन नंबर 13ख
महर्षि मेंहीं-पदावली : शब्दार्थ-पद्यार्थ-सहित पुस्तक में भजन नंबर 13 निम्न प्रकार प्रकाशित है-
पदावली भजन नंबर 13 क
पदावली भजन नंबर 13ख
पदावली भजन नंबर 13ग
प्रभु प्रेमियों ! "महर्षि मेंहीं पदावली शब्दार्थ, पद्यार्थ सहित" नामक पुस्तक से इस भजन के शब्दार्थ, भावार्थ द्वारा आपने जाना कि ईश्वर कौन हैं , ईश्वर किसे कहते हैं, शास्त्र के अनुसार ईश्वर की परिभाषा क्या है?इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद्य का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नांकित वीडियो देखें।
गुरु महाराज की शिष्यता-ग्रहण 14-01-1987 ई. और 2013 ई. से सत्संग ध्यान के प्रचार-प्रसार में विशेष रूचि रखते हुए "सतगुरु सत्संग मंदिर" मायागंज कालीघाट, भागलपुर-812003, (बिहार) भारत में निवास एवं मोक्ष पर्यंत ध्यानाभ्यास में सम्मिलित होते हुए "सत्संग ध्यान स्टोर" का संचालन और सत्संग ध्यान यूट्यूब चैनल, सत्संग ध्यान डॉट कॉम वेबसाइट से संतवाणी एवं अन्य गुरुवाणी का ऑनलाइन प्रचार प्रसार।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया सत्संग ध्यान से संबंधित किसी विषय पर जानकारी या अन्य सहायता के लिए टिप्पणी करें।