Glorification of master, "जय जय परम प्रचंड,...
प्रभु प्रेमियों ! इस पद्य में बताया गया है, कि- गुरु कैसे होते हैं? उनकी महिमा कैसा है? कोई भी व्यक्ति उनकी महिमा का गुणगान करते हुए अघाता क्यों नहीं है? गुरु की स्तुति कैसे करें? गुरु की सेवा कैसे करें? गुरु की पूजा कैसे करें? गुरु से प्रार्थना कैसे करें? इत्यादि बातों के साथ-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान किया गया है जैसे कि- भजन अर्थ सहित, महर्षि मेँहीँ पदावली भजन, संतमत सत्संग की प्रातः कालीन स्तुति प्रार्थना, गुरु महिमा, गुरु स्तुति पद, गुरु स्तुति पद का शब्दार्थ भावार्थ और टिप्पणी, गुरु महिमा, गुरु और ईश्वर में अंतर नहीं । इन बातों को जानने के लिए इस भजन का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है। उसे पढ़े-
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सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी |
जय जय परम प्रचण्ड , तेज तम - मोह विनाशन । जय जय तारण तरण , करन जन शुद्ध बुद्ध सन ।। जय जय बोध महान , आन कोउ सरवर नाहीं । सुर नर लोकन माहि , परम कीरति सब ठाहीं ॥ सतगुरु परम उदार हैं , सकल जयति जय जय करें । तम अज्ञान महान् अरु , भूल - चूक - भ्रम मम हरें ॥१ ॥
जय जय ज्ञान अखण्ड , सूर्य भव - तिमिर विनाशन । जय जय जय सुख रूप , सकल भव त्रास हरासन ॥ जय जय संसृति रोग सोग , को वैद्य श्रेष्ठतर । जय जय परम कृपाल , सकल अज्ञान चूक हर ॥ जय जय सतगुरु परम गुरु , अमित - अमित परणाम मैं । नित्य करूँ सुमिरत रहूँ , प्रेम सहित गुरुनाम मैं ॥२ ॥
जयति भक्ति - भण्डार , ध्यान अरु ज्ञान निकेतन । योग बतावनिहार , सरल जय जय अति चेतन ॥ करनहार बुधि तीव्र , जयति जय जय गुरु पूरे । जय - जय गुरु महाराज , उक्ति दाता अति रूरे ॥ जयति - जयति श्री सतगुरू , जोड़ि पाणि युग पद धरौं । चूक से रक्षा कीजिये , बार - बार विनती करौं ॥३ ॥
भक्ति योग अरु ध्यान को , भेद बतावनिहारे । श्रवण मनन निदिध्यास , सकल दरसावनिहारे । सतसंगति अरु सूक्ष्म वारता , देहिं बताई । अकपट परमोदार न कछु , गुरु धरें छिपाई ॥ जय जय जय सतगुरु सुखद , ज्ञान सम्पूरण अंग सम । कृपा दृष्टि करि हेरिये , हरिय युक्ति बेढंग मम ॥४ ॥
शब्दार्थ -
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शब्दार्थकार-बाबालालदास |
जय = जय हो , विजय हो , यश फैले । परम = अत्यन्त , अत्यधिक , सबसे बढ़ा - चढ़ा । प्रचंड = बहुत अधिक , तीत्र , प्रखर , तेज , उग्र , तीक्ष्ण । तेज = प्रकाश । तम - मोह = अज्ञान - अंधकार । ( तम = अंधकार । मोह = अज्ञानता । ) विनाशन = विनाश करना ; यहाँ अर्थ है विनाश करनेवाला । तारण = तारनेवाला , पार करनेवाला , उद्धार करनेवाला । तरण = जो तर गया हो , जो पार हो गया हो , जो उद्धार पा गया हो । ( रामचरितमानस , उत्तरकांड में ' तारन तरन ' का प्रयोग देखें- " तारन तरन हरन सब दूषन । तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन ।। " कहीं - कहीं सन्तों ने तारण और तरण - दोनों शब्दों का एक साथ प्रयोग ' उद्धार करनेवाला ' के अर्थ में भी किया है । ) करण = करना ; यहाँ अर्थ है करनेवाला । जन = भक्त । शुद्ध = पवित्र । बुद्ध = जो जगा हुआ हो , जिसको बोध ( ज्ञान ) हो गया हो , ज्ञानी , ज्ञानवान् । सन = से , साथ , समान । [ संस्कृत में सन् का अर्थ ' होते हुए ' भी होता है । अवधी भाषा में सन का प्रयोग ' से ' के स्थान पर होता है ; जैसे- " जाहि न चाहिय कबहुँ कछु , तुम सन सहज सनेह । " ( रामचरितमानस , अयोध्याकांड ) संभव है , यहाँ ' सन ' का प्रयोग निरर्थक रूप में मात्र ' विनाशन ' के साथ तुक मिलाने की दृष्टि से किया गया हो । ] बोध महान = जिसको बहुत ज्ञान हो , बड़ा ज्ञानवान् , महाज्ञानी । आन = अन्य , दूसरा । सरवर = सरवरि , सदृश , समान , बराबरी , तुलना , सर्वश्रेष्ठ , प्रतिष्ठित । ( फारसी भाषा में ' सरवर ' का अर्थ सर्वश्रेष्ठ होता है और ' सरवर ' का अर्थ प्रतिष्ठित । ) कीरति = कीर्ति , यश , सद्गुणों की चर्चा । सब ठाहीं = सब ही जगह । सतगुरु = सच्चा गुरु । उदार = दानी , खुले दिलवाला । जयति = जय हो । सकल = सब । भूल - चूक = गलती , दोष , अपराध , कसूर । भ्रम = मिथ्या ज्ञान । मम = मेरा । ज्ञान अखंड = जिसका ज्ञान कभी खंडित नहीं होता हो , जिसका ज्ञान सदा एक - जैसा रहता हो । ( सामान्य लोगों का ज्ञान - विवेक सत्संगति - कुसंगति में बढ़ता - घटता रहता है ; परन्तु आत्मज्ञ महापुरुषों का ज्ञान - विवेक कभी भी खंडित नहीं होता । रामचरितमानस , उत्तरकांड में भी श्रीराम के लिए ' ज्ञान |
सद्गुरु बाबा देवी साहब |
अखंड ' विशेषण का प्रयोग किया गया है ; देखें - " ग्यान अखंड एक सीतावर । मायावस्य जीव सचराचर ॥ " ) हरें = हरण करते हैं , नष्ट करते हैं । भव तिमिर = संसार का अज्ञान अंधकार । ( तिमिर = अंधकार ) सुखरूप = जो सच्चे सुख का स्वरूप हो , जो सदा सहज सुख में रहता हो , जिसका रूप बड़ा सुहावना हो , जो सुख का कारण हो । त्रास = भय । हरासन = ह्रास करनेवाला , घटानेवाला , क्षय करनेवाला , नष्ट करनेवाला । संसृति = संसार , जन्म - मरण । सोग = शोक , चिन्ता, दुःख । श्रेष्ठतर = जो किसी की अपेक्षा अथवा किसी से श्रेष्ठ हो । परम गुरु = सबसे बढ़ा - चढ़ा गुरु , जो सबका गुरु हो , परमात्मा । ( परमात्मा ने सृष्टि के आरंभिक काल में ऋषियों के हृदय में ज्ञान दिया । उस ज्ञान को ऋषियों ने लोगों में प्रचारित किया । इसीलिए परमात्मा आदिगुरु और सबका गुरु या परम गुरु कहा जाता है । ) अमित = अपरिमित , असीम , अनन्त , असंख्य , बहुत अधिक । नित्य = प्रतिदिन । सुमिरत रहूँ = सुमिरन या जप करता रहूँ । भक्ति = भक्ति भाव , प्रेमपूर्ण सेवा भाव । ( सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की दृष्टि में , शरीर के अन्दर आवरणों से छूटते हुए परमात्मा से मिलने के लिए चलना परमात्मा की निज भक्ति है । ) निकेतन = घर , खजाना , भंडार । योग = ईश्वर - प्राप्ति की युक्ति । ( महर्षि पतंजलि ने चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा है । चित्तवृत्ति का पूर्ण निरोध असली समाधि में होता है । ) अति चेतन = अत्यन्त ज्ञानवान् , अत्यन्त जगा हुआ । ( जो तुरीयातीतावस्था को प्राप्त कर लेता है , वही पूरा जगा हुआ कहा जाता है । ) उक्ति = कथन , उपदेश । रूरे = श्रेष्ठ , उत्तम , सुन्दर , अच्छा ; देखें- " भरहिं निरन्तर होहिं न पूरे । तिन्हके हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे ॥ ( रामचरितमानस , अयोध्याकांड ) श्रवण = श्रवण ज्ञान , जो ज्ञान किसी से सुनकर अधवा कोई पुस्तक पढ़कर प्राप्त किया गया हो । मनन = मनन ज्ञान , वह श्रवण ज्ञान जो बारंबार विचार किये जाने पर सत्य जंच गया हो । निदिध्यास = निदिध्यासन , मनन ज्ञान को व्यवहार में उतारना , मनन किये हुए विषय को प्रत्यक्ष करने के लिए बारंबार उचित प्रयत्न करना , मनन किये हुए विषय का पुनः - पुनः चिन्तन - स्मरण - ध्यान करना । सूक्ष्म वारता = गंभीर वार्ता ( बात ) । अकपट = कपट - रहित , छल - रहित , जो दुराव - छिपाव नहीं करता हो , सच्चा , सरल । परमोदार ( परम + उदार ) = अत्यन्त खुले दिलवाला । अंग = अवयव , प्रकार , भेद । सम = समान , स्वरूप , पूर्ण । हेरिये = देखिए । हरिय = हरण कीजिए , नष्ट कीजिए । युक्ति = विचार । बेढंग = बेढंगा , बेतुका , अनुचित , असंगत ।
भावार्थ -
अज्ञान - अंधकार को नष्ट कर डालनेवाले अत्यन्त तेज प्रकाशरूप ( सूर्यब्रह्म - रूप ) उन सद्गुरु को बारंबार जय हो , जो संसार - सागर से उद्धार पाये हुए , दूसरों का उद्धार करनेवाले और अपनी युक्ति बताकर भक्तों को पवित्र , साथ - ही - साथ ज्ञानवान् भी बनानेवाले हैं । उन सद्गुरु की बारंबार जय हो , जो बड़े ज्ञानी हैं , जिनसे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है और नरलोक , देवलोक आदि सभी स्थानों ( लोकों ) में जिनकी अत्यन्त कीर्ति छायी हुई है । जो अत्यन्त खुले दिलवाले हैं और जिनकी सभी बारंबार जय - ध्वनि करते हैं , वे सद्गुरु मेरे बड़े अज्ञान - अंधकार , भूल - चूक और मिथ्या ज्ञान को दूर करें ।।१ ।।
अखंड ज्ञानवाले उन सद्गुरु की बारंबार जय हो , जो संसार के अज्ञान अंधकार को विनष्ट करने के लिए सूर्यरूप हैं , जो सच्चे सुख के स्वरूप हैं और जो भक्तों के सभी तरह के सांसारिक भयों को कम करनेवाले अथवा दूर करनेवाले हैं । जो संसार में होनेवाले शारीरिक - मानसिक रोगों एवं दुःखों के सबसे बड़े वैद्य , अत्यन्त कृपालु , सभी अज्ञान - गलतियों को हर लेनेवाले और परम गुरु ( परमात्मा ) के समान हैं अथवा सभी पूज्य लोगों में श्रेष्ठ हैं , उन संत सद्गुरु की बारंबार जय हो ! मैं प्रतिदिन उन्हें असंख्य बार प्रणाम करता रहूँ और प्रेम - सहित गुरु नाम ( ' गुरु ' शब्द अथवा गुरु - प्रदत्त मंत्र ) का सुमिरन करता रहूँ ॥२ ।।
जो सद्गुरु भक्ति की खानि , ध्यान और ज्ञान के घर , योगाभ्यास की विधि बतानेवाले , सरल और अत्यन्त सावधान ( सचेत , ज्ञानवान् ) हैं , उनको बारंबार जय हो ! भक्तों को बुद्धि को तेज बनानेवाले उन पहुँचे हुए गुरु महाराज की जय हो , जो अत्यन्त सुन्दर उपदेश देनेवाले अथवा ज्ञानोपदेश करने में अत्यन्त कुशल हैं । हे सद्गुरु ! आपकी बारंबार जय हो । मैं दोनों हाथ जोड़ते हुए आपके चरणों में पड़ता हूँ और बारंबार यही विनती करता हूँ कि मुझसे होनेवाली गलतियों से मेरी रक्षा कीजिए ॥३ ॥
सद्गुरु भक्ति , योग और ध्यानाभ्यास की गंभीर बातों को अथवा युक्तियों को बतानेवाले और श्रवण , मनन , निदिध्यासन और अनुभव - ज्ञान के इन चारो अंगों का प्रत्यक्षीकरण करानेवाले हैं अर्थात् ज्ञान के इन चारो अंगों में पूर्ण करानेवाले हैं । वे सत्संग के अर्थ , प्रकार और महिमा को तथा अध्यात्म - ज्ञान की गूढ़ बातों को बता देते हैं । वे कपट - रहित और परम उदार हैं , हृदय में कुछ भी छिपाकर नहीं रखते हैं । सुख देनेवाले और श्रवण , मनन , निदिध्यासन , अनुभव - ज्ञान के इन सभी अंगों के स्वरूप अर्थात् ज्ञान के इन सभी अंगों में पूर्ण सन्त सद्गुरु की बारंबार जय हो ! हे सद्गुरु ! मेरी ओर आप कृपा की दृष्टि डालकर देखिये और मेरे सभी बेढंगे विचारों को दूर कर दीजिये ॥४ ॥
टिप्पणी -१ . सद्गुरु का अत्यन्त प्रकाशमान रूप त्रिकुटी में दर्शित होनेवाला सूर्यब्रह्म है । पदावली में अन्यत्र भी इस सूर्यब्रह्म को अत्यन्त प्रकाशमान बताया गया है ; देखें- " अपनी किरण का सहारा गहाकर , परम तेजोमय रूप अपना दिखाना । " ( २० वाँ पद ) , " जहाँ ब्रह्म दिवाकर , रूप गुरू धर , करें परम परकाश रे । " ( ८८ वाँ पद ) ।
२. चौथे पद को छप्पय छन्द में बाँधा गया है । रोला के चार चरणों के नीचे उल्लाला के चार चरणों को दो पंक्तियों में रख देने छप्पय छन्द बन जाता है । रोला के प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं , ११-१३ पर यति और अन्त दो गुरु या दो लघु । उल्लाला के प्रत्येक चरण में १३ मात्राएँ होती हैं । ∆
आगे हैं--
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अव्यक्त अनादि अनन्त अजय ,
अज आदि मूल परमातम जो ।
ध्वनि प्रथम स्फुटित परा धारा ,
जिनसे कहिये स्फोट है सो ॥१ ॥ ......
पदावली भजन नं.5 स्तुति-प्रार्थना का पांचवा पद्य "अव्यक्त अनादि अनंत अजय,.." को शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी सहित पढ़ने के लिए 👉 यहां दबाएं।
महर्षि मेँहीँ पदावली शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी-सहित पुस्तक में उपरोक्त भजन नंबर 4 का लेख निम्न प्रकार से प्रकाशित है--
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