सूरदास 11, Examples of exclusive devotion । तुम तजि और कौन पै जाऊँ । भजन भावार्थ सहित । -महर्षि मेंहीं
संत सूरदास की वाणी / 11
प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज प्रमाणित करते हुए "संतवाणी सटीक" भारती (हिंदी) पुस्तक में लिखते हैं कि सभी संतों का मत एक है। इसके प्रमाण स्वरूप बहुत से संतों की वाणीओं का संग्रह कर उसका शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया हैं। इसके अतिरिक्त भी "सत्संग योग" और अन्य पुस्तकों में संतवाणीयों का संग्रह है। जिसका टीकाकरण पूज्यपाद लालदास जी महाराज और अन्य टीकाकारों ने किया है। यहां "संत-भजनावली सटीक" में प्रकाशित भक्त सूरदास जी महाराज की वाणी " तुम तजि और कौन पै जाऊँ,... ' का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणियों को पढेंगे।
एकनिष्ठ भक्ति और उपासना भगवान से मिला देती है । शुद्धभक्त सदैव भगवान कृष्ण के विभिन्न रूपों में से किसी एक की भक्ति में लगा रहता है। परमात्मा की एकनिष्ठ भक्ति करके कवि और ईश्वर एक होकर अभिन्न हो गए हैं। । एकनिष्ठ प्रेमवाले भक्त केवल कृष्ण को अपना ईष्ट माना है । इसी एकनिष्ठा को प्रकट करते हुए भक्त संत सूरदास जी महाराज इस भजन (कविता, गीत, भक्ति भजन, पद्य, वाणी, छंद) "तुम तजि और कौन पै जाऊँ ,..." में कहते है- " हे श्रीकृष्ण ! मैं आपकी शरण छोड़कर दूसरे किसकी शरण में जाऊँ ! आप ही बताइए , मैं अपने इच्छित पदार्थ की प्राप्ति के लिए किसके द्वार जाकर उसके आगे अपना सिर झुकाऊँ ( उससे प्रार्थना करूँ ) और कहाँ जाकर किसके हाथ बिक जाऊँ ( किसकी दासता स्वीकार करूँ )। जैसे कि- सूरदास जी, सूरदास की भक्ति भावना, सूरदास तस्वीरें, सूरदास का काव्य सौन्दर्य, सूरदास - कविता कोश, सूरदास की भाषा शैली, आशा एक राम जी से,एकनिष्ठ भक्ति के उदाहरण, इत्यादि बातों को समझने के पहले आइए भक्त सूरदास जी का दर्शन करें।
Examples of exclusive devotion
भक्त सूरदास जी महाराज कहते हैं कि "हे श्रीकृष्ण ! मैं आपकी शरण छोड़कर दूसरे किसकी शरण में जाऊँ ! आप ही बताइए , मैं अपने इच्छित पदार्थ की प्राप्ति के लिए किसके द्वार जाकर उसके आगे अपना सिर झुकाऊँ ( उससे प्रार्थना करूँ ) और कहाँ जाकर किसके हाथ बिक जाऊँ ( किसकी दासता स्वीकार करूँ )...." इसे अच्छी तरह समझने के लिए इस शब्द का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है; उसे पढ़ें-
भक्त सूरदास जी के भजन
।। मूल पद्य ।।
तुम तजि और कौन पै जाऊँ ।
काके द्वार जाइ सिर नाऊँ , पर हथ कहाँ बिकाऊँ ॥१ ॥
ऐसौ को दाता है समरथ , जाके दियें अघाऊँ ।
अंतकाल तुम्हरो सुमिरन गति, अनत कहूँ नहिं पाऊँ ॥२ ॥
रंक सुदामा कियौ अजाची , दियौ अभय पद ठाऊँ ।
कामधेनु चिन्तामनि दीन्हौ , कल्पवृक्ष तर छाऊँ ॥३ ॥
भवसमुद्र अति देखि भयानक , मन में अधिक डराऊँ ।
कीजै कृपा सुमरि अपनौ प्रन, सूरदास बलि जाऊँ ॥४ ॥
शब्दार्थ - पै - पर , पास , निकट । नाऊँ = नवाऊँ , झुकाऊँ । अघाऊँ संतुष्ट होऊँ । अनत = अन्यत्र , दूसरी जगह । रंक = गरीब , निर्धन । अजाची अयाची , अयाचक , किसी से कुछ न माँगनेवाला , इच्छा - रहित , संतुष्ट । अभय पद - वह पद या स्थान जहाँ किसी प्रकार का भय नहीं हो । ठाऊँ = ठाम , स्थान । कामधेनु = स्वर्ग की वह गाय जो सब प्रकार की इच्छाएं पूरी कर देती है । चिन्तामणि = एक पत्थर जिसके संबंध में यह मान्यता है कि उसके निकट जो - जो इच्छा की जाती है , वे सब पूरी हो जाती हैं । कल्पबृच्छ = कल्पवृक्ष , स्वर्ग का एक वृक्ष जिसके नीचे जो - जो इच्छा की जाती है , वे सब पूरी हो जाती हैं । तर नीचे । छाऊँ = बस जाऊँ , टिक जाऊँ । भवसमुद्र = संसाररूपी समुद्र । पन = प्रण , प्रतिज्ञा , स्वभाव ।
भावार्थ - हे श्रीकृष्ण ! मैं आपकी शरण छोड़कर दूसरे किसकी शरण में जाऊँ ! आप ही बताइए , मैं अपने इच्छित पदार्थ की प्राप्ति के लिए किसके द्वार जाकर उसके आगे अपना सिर झुकाऊँ ( उससे प्रार्थना करूँ ) और कहाँ जाकर किसके हाथ बिक जाऊँ ( किसकी दासता स्वीकार करूँ ) ॥१ ॥ संसार में आपको छोड़कर दूसरा ऐसा कौन सर्वसमर्थ दानी है , जिसके द्वारा दिये गये दान से मैं पूरी तरह संतुष्ट हो जाऊँ ! सुना है , जीवन के अंतिम समय में ( मृत्यु के समय में ) आपका सुमिरन करते हुए जो शरीर छोड़ता है , उसे सद्गति प्राप्त हो जाती है । अंत काल में दूसरे किसी देवता के भी नाम का सुमिरन करने पर सद्गति प्राप्त होती है - ऐसा मैंने कहीं नहीं सुना है ॥२ ॥ आप ऐसे दयालु हैं कि आपने आपकी शरण में जाने पर अपने धनहीन ब्राह्मण मित्र सुदामा को , जो भिक्षा माँगकर जीवन निर्वाह किया करता था , अयाची ( किसी से कुछ नहीं माँगनेवाला ) बना दिया , उसे अभय पद प्रदान किया और उसे ऐसी स्थिति में ला दिया , मानो उसे कामधेनु तथा चिन्तामणि मिल गया हो । मुझे भी ऐसी स्थिति प्रदान कीजिए जिससे मुझे भी कल्पवृक्ष के नीचे निवास करने का - सा लाभ प्राप्त हो जाए ॥३ ॥ अत्यन्त भयानक संसार - समुद्र को देखकर मैं मन में बहुत अधिक डर रहा हूँ । भक्तप्रवर सूरदासजी अपने इष्ट श्रीकृष्ण से अन्त में कहते हैं कि हे भगवन् ! मैं आपपर निछावर होता हूँ । आप अपने दयालु स्वभाव को याद करके कृपा कीजिए ॥४ ॥ इति।
प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के भारती पुस्तक "संत-भजनावली सटीक" के इस भजन का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी के द्वारा आपने जाना कि हे श्रीकृष्ण ! मैं आपकी शरण छोड़कर दूसरे किसकी शरण में जाऊँ ! आप ही बताइए , मैं अपने इच्छित पदार्थ की प्राप्ति के लिए किसके द्वार जाकर उसके आगे अपना सिर झुकाऊँ ( उससे प्रार्थना करूँ ) और कहाँ जाकर किसके हाथ बिक जाऊँ ( किसकी दासता स्वीकार करूँ )। इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नलिखित वीडियो देखें।
भक्त-सूरदास की वाणी भावार्थ सहित
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सूरदास 11, Examples of exclusive devotion । तुम तजि और कौन पै जाऊँ । भजन भावार्थ सहित । -महर्षि मेंहीं
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
7/02/2020
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