संत सूरदास की वाणी / 18
प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज प्रमाणित करते हुए "संतवाणी सटीक" भारती (हिंदी) पुस्तक में लिखते हैं कि सभी संतों का मत एक है। इसके प्रमाण स्वरूप बहुत से संतों की वाणीओं का संग्रह कर उसका शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया हैं। इसके अतिरिक्त भी "सत्संग योग" और अन्य पुस्तकों में संतवाणीयों का संग्रह है। जिसका टीकाकरण पूज्यपाद लालदास जी महाराज और अन्य टीकाकारों ने किया है। यहां "संतवाणी-सुधा सटीक" में प्रकाशित भक्त सूरदास जी महाराज की वाणी "अविगत गति कछु कहत न आवै,...' का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणियों को पढेंगे।
इस भजन (कविता, गीत, भक्ति भजन, पद्य, वाणी, छंद) "अविगत गति कछु कहत न आवै । ,..." में बताया गया है कि- परब्रह्म या परम-ब्रह्म ब्रह्म का वो रूप है, जो निर्गुण और असीम है। "नेति-नेति" करके इसके गुणों का वर्णन किया गया है। ब्रह्म कौन है? परम-तत्त्व के निराकार स्वरूप को ब्रह्म कहते है। ब्रह्म का स्वरूप निर्गुण और असीम है। ब्रह्म जगत् का कारण है, यह ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है । जो तुम्हारा अपना स्वरूप है , वह ब्रह्म है । ओमकार जिनका स्वरूप है, ओम जिसका नाम है, उस ब्रह्म को ही ईश्वर, परमेश्वर, परमात्मा, प्रभु आदि कहते हैं। ब्रह्म क्या है? ब्रह्म-स्वरूप क्या है? ईश्वर कहां रहता है? इन बातों के साथ-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान पायेंगे। जैसे कि- ब्रह्म का स्वरूप क्या है, पूर्ण ब्रह्म क्या है, परब्रह्म क्या है, ब्रह्म ज्ञान का अर्थ, परमात्मा का स्वरूप क्या है? ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या श्लोक, ब्रह्म क्या है? ब्रह्म का विलोम,परब्रह्म शिव आत्मा का स्वरुप क्या है? परमात्मा का मतलब क्या होता है? परमात्मा क्या है? ब्रह्म, इत्यादि बातों को समझने के पहले, आइए ! भक्त सूरदास जी महाराज का दर्शन करें।
इस भजन के पहले वाले पद्य "झूठेही लगि जनम गँवायौ" को भावार्थ सहित पढ़ने के लिए यहां दबाएं।
Where does god live
भक्त सूरदास जी महाराज कहते हैं कि " दोनों आँखों के बीच और नाक के आगे बारह अंगुल की दूरी पर अवस्थित दशम द्वार में ज्योतिर्मय विन्दु - रूपी ब्रह्म का वास है । वह अविनाशी है और उससे स्वाभाविक प्रकाश होता रहता है ।..." इसे अच्छी तरह समझने के लिए इस शब्द का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी किया गया है; उसे पढ़ें-
भक्त सूरदास जी महाराज की वाणी
।। मूल पद्य ।।
दोहा - नैन नासिका अग्र है , तहाँ ब्रह्म को वास ।
अविनासी विनसै नहीं , हो सहज जोति परकास ॥
( कल्याण , वेदान्त - अंक , सं ० १ ९९ ३ वि ० , पृ ०५८५ से )
भावार्थ - दोनों आँखों के बीच और नाक के आगे बारह अंगुल की दूरी पर अवस्थित दशम द्वार में ज्योतिर्मय विन्दु - रूपी ब्रह्म का वास है । वह अविनाशी है और उससे स्वाभाविक प्रकाश होता रहता है ।
टिप्पणी - ज्योतिर्मय विन्दु दृष्टियोग के पूर्ण और संयमी साधक को सदा दिखाई पड़ता रहता है , इसीलिए वह अविनाशी कहा गया है ।
॥ सूरसागर , प्रथम स्कन्ध , राग कान्हरा, पद्य २ ।।
।।भक्त - अंग ।।
अविगत गति कछु कहत न आवै ।
ज्यों गूंगहि मीठे फल को रस , अन्तरगत ही भावै ॥
परम स्वाद सबही जू निरन्तर , अमित तोष उपजावै ।
मन बानी को अगम अगोचर , सो जानै जो पावै ॥
रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु निरालम्ब मन चकृत धावै । सब विधि अगम विचारहिं तातें, ' सूर ' सगुन लीला पद गावै ॥
शब्दार्थ - अविगत ( अ - विगत ) -जिससे कोई स्थान खाली नहीं हो , सर्वव्यापक , अव्यक्त , जो इन्द्रियों से न जाना जा सके । रस - स्वाद , आनंद । अन्तरगत - भीतर - ही - भीतर , मन - ही - मन । भावै अच्छा लगता है । अमित अपरिमित , अपार , असीम , बहुत अधिक । तोष - संतोष , संतुष्टि । उपजावै - उत्पन्न करता है । परम स्वाद - उच्च कोटि का आनंद मिठास। निरन्तर - सदा , नित्य । अगम जहाँ कोई भी इन्द्रिय नहीं पहुँच सके , जो इन्द्रियों से न जाना जा सके । वाणी - वचन , जिह्वा । अगोचर - जो इन्द्रिय का विषय नहीं हो , जो इन्द्रिय की पकड़ में नहीं आए । रूपरेख - रूपरेखा , आकृति , आकार - प्रकार । गुण - विशेषण , त्रय गुण । जाति - वर्ग , भेद , प्रकार , किस्म । जुगुति - युक्ति , उपाय , तर्क , विचार । निरालंब , निर् आलम्ब ) बिना सहारे के । चक्रित - चक्र की तरह , चकित होकर । धावै दौड़ता है , घूमता है । विचारहि - विचार करके ही । तातें - इसीलिए । सगुन सगुण ब्रह्म।
भावार्थ - सर्वव्यापक या अव्यक्त परमात्मा के स्वरूप के बारे में कुछ कहते नहीं बनता । जिस प्रकार गूंगे को खाये गये मीठे फल का स्वाद भीतर ही भीतर अच्छा लगता है ; परंतु वचन के द्वारा वह उसका स्वाद नहीं बता पाता , उसी प्रकार परमात्म - प्राप्ति का उच्च कोटि का आनंद निरंतर अत्यधिक संतोष देनेवाला है ; परंतु वचन के द्वारा वह व्यक्त नहीं किया जा सकता । परमात्म - स्वरूप मन - वाणी और अन्य इन्द्रियों की भी पकड़ में आनेयोग्य नहीं है । जो उसे चेतन - आत्मा से प्रत्यक्ष करता है , वही उसके बारे में भीतर - ही - भीतर समझता है । वह परमात्मा रूपरेखा , गुण और जाति से रहित है । किसी भी युक्ति के द्वारा उसके स्वरूप की अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती । रूपरेखा , गुण और जाति के अवलंब के बिना उसका चिंतन नहीं कर पाने के कारण मन अपने ही स्थान पर चक्र की भाँति घूमता रह जाता है । ( मन इन्द्रिय - ग्राह्य पदार्थों का ही चिंतन कर सकता है । ) संत सूरदासजी महाराज कहते हैं कि परमात्म - स्वरूप को सब तरह से अवर्णनीय ( अकथनीय ) समझकर में सगुण ब्रह्म की ही लीलाओं के पद गा रहा हूँ ।
टिप्पणी - पदार्थों के गुण या धर्म इन्द्रियों के द्वारा जाने जाते हैं । परमात्मा इन्द्रियातीत है । इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि परमात्मा में इद्रिय से जाननेयोग्य कोई गुण है ।
इस भजन के पहले वाले पद्य "जा दिन सन्त पाहुने आवत" को भावार्थ सहित पढ़ने के लिए यहां दबाएं।
प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के भारती पुस्तक "संत-भजनावली सटीक" के इस भजन का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी के द्वारा आपने जाना कि दोनों आँखों के बीच और नाक के आगे बारह अंगुल की दूरी पर अवस्थित दशम द्वार में ज्योतिर्मय विन्दु - रूपी ब्रह्म का वास है । वह अविनाशी है और उससे स्वाभाविक प्रकाश होता रहता है ।? इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नलिखित वीडियो देखें।
भक्त-सूरदास की वाणी भावार्थ सहित
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सूरदास 18, Where does god live । अविगत गति कछु कहत न आवै । भजन भावार्थ सहित । -स्वामी लालदास।
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
7/03/2020
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