गुरु नानक साहब की वाणी / 35
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परमात्मा को जानने वाला कैसा होता है? What is the joy of divine attainment
शब्दार्थ - भीने भींगा रहता है , डूबा रहता है , लीन रहता है । सील - शील , उत्तम स्वभाव , सत्य और नम्र व्यवहार । संनाहा सनाह , कवच । रंग - आनंद सचिआरा - सच्चा । लाहा - लाभ । दुरमति - ओछी बुद्धि । दोई - द्वैत । राज - शासन , पद , प्रतिष्ठा । जमणु - जन्म लेना । पाहा पाता है । वाइआ बजाता है । सुहेला सुहावना , अच्छा । केहा - किसका । करतें - सृष्टिकर्ता ने ही । किरतु - कीर्ति , उपाय , तदबीर । सद ही - सदा ही । रस कस - स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन । बधाए बढ़ाता है । भेष वेश । बिसटा - विष्ठा , मल , गंदगी । पड़हि पड़ि - पढ़ - पढ़कर । वादु - वाद - विवाद । बिलोवै - मथता है , खोजता है । वथु - वस्तु । अनरस - जिसमें आनंद नहीं हो । फीकी - झूठी बात , सार - रहित बात , व्यर्थ की बात । मूलि - मूल , असली । ताहा - उसको । भतारो - भंडार , भरा हुआ । खुआरो - लज्जित , चिंता से क्षीण । दूजै - द्वैत । कंचन देही - सोने के रंग - सा सुंदर शरीर , दुर्लभ मानव - शरीर । अनदिनु - अनुदिन , प्रत्येक दिन , नित्य , हमेशा । भोग - आनंद । महला - महल , शरीर । गैर - दूसरा । भाणा - कथन , वाणी , पात्र । समाहा - समाता है । चारा - वश , उपाय । साहिब , ठाकुर - मालिक ।
भावार्थ - वह परमात्मा नहीं चलनेवाला , एक - ही - एक और सदा सत्य है । पूरे सद्गुरु से उसकी सूझ ( समझ , ज्ञान ) होती है । गुरुमति ( गुरुमुख ) सदा ध्यान करते हुए हरि - रस ( ज्योति और नादरूप अमृत के रस ) में भींगें रहते हैं । शीलता ( उत्तम स्वभाव ) उनका कवच होती है ॥१ ॥ अंदर का आनंद सदा सच्चा ( स्थिर रहनेवाला ) होता है । गुरुशब्द कहा जानेवाला हरिनाम बड़ा प्यारा ( मीठा ) होता है । नव निधिरूप हरिनाम शरीर के भीतर बसता है । उसको प्राप्त करने के लिए माया का लाभ छोड़ देना पड़ता है ॥२ ॥ यह प्रजा है और यह राजा है - यह द्वैत भाव ओछी बुद्धि का है । सद्गुरु की सेवा किये बिना एकत्व रखता । जन्म लेना और मरना संसार में आने - जाने से ही होता है । गुरुमुख सच्चे का सदा ध्यान करता है । सच्चे नाम के ध्यान से ही वह गति ( सद्गति ) -मुक्ति पाता है ॥४ ॥ सत्यता और संयम सद्गुरु के द्वारा ही या सद्गुरु के द्वार पर ही ( सान्निध्य में ही ) मिलते हैं । अहंकार और क्रोध का निवारण गुरु के शब्द से करे । सद्गुरु की सेवा करके कोई सदा सुख पाता है ; शीलता और संतोष आदि सभी सद्गुण उसके पास आ जाते हैं।॥५ ॥ अहंकार और मोह संसार में उपजते हैं । संसार के सभी लोग नाम को बिसारकर विनाश को प्राप्त हो रहे हैं । बिना सद्गुरु की सेवा किये कोई नाम नहीं पाता । नाम की प्राप्ति ही संसार में सच्चा लाभ है ॥६ ॥ परमात्मा का सच्चा - अमर नाम अच्छा लगता है । पंच केन्द्रीय शब्द मिलकर अंदर में बाजा बजाते हैं । सच्चा और सबसे अच्छा कार्य उस सत्नाम की प्राप्ति करना है । बिना शब्द के किसका कार्य सिद्ध हुआ है अर्थात् किसी का भी नहीं ॥७ ॥ शब्द को पाये बिना लोग क्षण में हँसते हैं और क्षण में रोते हैं अर्थात् क्षण - क्षण वे सुख - दुःख पाते रहते हैं । द्वैत और ओछी बुद्धि में रहने से कार्य नहीं होता है । संयोग या वियोग , जो परमात्मा ने लिख रखा है , उसे ही कोई पाता है । परमात्मा के आगे किसी के द्वारा अपनी कीर्त्ति फैलाये जाने पर भी नहीं फैलती अथवा परमात्मा के आगे कोई अपना जोर चलाना चाहे , तो वह नहीं चलता ॥८ ॥ जो गुरुशब्द ( अनाहत शब्द ) की साधना करता है , वह जीते - जी मुक्ति प्राप्त करता है और हरि में सदा समाकर रहता है । गुरु - कृपा से किसी को बड़प्पन मिलता है और तब उसमें अहंकार आदि विकार नहीं रहते॥९॥ लोग स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन कर - करके अपने शरीर को बढ़ाते हैं - मोटा - तगड़ा करते हैं और सुंदर वेश बनाते हैं ( अपने शरीर को सजाते हैं ) ; परंतु गुरुशब्द की साधना नहीं करते हैं । ऐसे लोगों के हृदय में भारी दुःख देनेवाले बड़े - बड़े रोग ( विकार , दोष ) होते हैं ; उनके हृदय में विष्ठा ( गंदगी ) समायी होती है ॥१० ॥ वे वेद ( ज्ञान की बातें ) पढ़ - पढ़कर विवाद ( बहस ) करते हैं ; परंतु शरीर के अंदर जो ब्रह्म है , उसके शब्द ( नाम ) की पहचान नहीं करते । जो गुरुमुख होता है , वह उस नामतत्त्व को शरीर के अंदर मथता है अर्थात् खोजता है । उसी की रसना ( सुरत ) को हरिरस ( सत्नामरूपी अमृत रस ) मिलता है ॥११ ॥ जो घर की वस्तु ( नाम ) को छोड़कर बाहर - बाहर दौड़ता है , वह मनमुख अज्ञानी नाम का स्वाद नहीं पाता है । जिसकी जिह्वा आनंद - रहित विषयों की चर्चा में लीन है और फीकी बातें ( व्यर्थ की असत्य , सारहीन बातें ) बोलती है , उसे हरिरस नहीं मिलता ॥१२ ॥ मनमुख के शरीर में ( हृदय में ) भ्रम ( अज्ञानता ) भरा हुआ होता है । ओछी बुद्धिवाले लोग नित्य लज्जित हो - होकर या चिन्ता में क्षीण हो - होकर मरते रहते हैं । मन में काम , क्रोध और द्वैत भाव लाने से स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता ॥१३ ॥ कंचन - शरीर में ( दुर्लभ मानव - शरीर में ) परमात्मा का शब्द ( नाम ) भरा हुआ है । जो हमेशा उस नाम का भोग ( आनंद ) भोगता है , उसे परमात्मा से प्रेम हो जाता है । महल के अंदर दूसरा महल प्राप्त होता है अर्थात् एक शरीर के अंदर दूसरा शरीर मिलता है । गुरु के कृपापात्र उनसे समझ लेकर उसमें प्रवेश करते हैं ॥१४ ॥ देनेवाला परमात्मा स्वयं ही ( बिना माँगे ही ) देता है । उसके आगे किसी का चारा ( उपाय , तदबीर , वश ) नहीं चलता । वह परमात्मा स्वयं कृपा - दान करके अपने शब्द ( सत्नाम ) से किसी को मिला देता है । उसका शब्द अथाह - अपार है ॥१५ ॥ जीव और शरीर - सब कुछ उसी का है । सच्चा ईश्वर मेरा मालिक है । गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं कि गुरुवाणी ( अनाहत नाद ) से हरि प्राप्त होता है । इसलिए हरिनाम का जप ( ध्यान ) करो और जप करके हरि में समा जाओ ॥१६॥५॥१४ ॥ ॥
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प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के भारती पुस्तक "संतवाणी सटीक" के इस लेख का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि Paramaatma kaisa hai? paramaatma ka gyaan kaun karaata hai? paramaatma ko jaanane vaala kaisa hota hai? paramaatm-praapti ka aanand kaisa hota hai? eeshvar ko praapt karane ke lie kya karana padata hai? ochhee buddhi kya hai? satyata aur sanyam kisase milate hain? इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। निम्न वीडियो में उपर्युक्त लेख का पाठ करके सुनाया गया है।
संतवाणी-सुधा सटीक |
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