ॐ मात्रा बाबा श्रीचन्दजी की
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संतों के सिंगार, बेश, सजावट का आध्यात्मिक विश्लेषण
॥ ' ॐ मात्रा ' बाबा श्रीचन्दजी की ॥
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भावार्थ - ( गुरु नानकदेवजी के पुत्र और उदासी संप्रदाय के आचार्य बाबा श्रीचंदजी ने किसी नगर में जाकर जो उपदेश किया , वह लिखित रूप में आकर ' मात्रा शास्त्र ' कहलाया । नगर के लोगों ने अल्पवयस्क बाबा श्रीचन्दजी से पूछा- )
कहो जी बालक ! तुम्हें किसने दीक्षित किया है ? किसकी प्रेरणा से संन्यास आश्रम में दीक्षित हुए हो ? किसके भेजने पर नगर आये हो ?
( बाबा श्रीचन्दजी ने उत्तर दिया- ) श्रीसद्गुरु महाराज ने दीक्षित किया धर्मशास्त्र या पूर्वजन्म के संस्कार ने अथवा सद्विचार ने दीक्षित होने की प्रेरणा दी है । जनकल्याण के लिए गुरु द्वारा भेजे जाने पर नगर आया हूँ । गुरु महाराज की आज्ञा है कि नगर के लोगों को अज्ञान - निद्रा से जगाओ ; नगर के लोगों का भवसागर से उद्धार करो । अलख पुरुष परमात्मा का नाम स्वयं सुमिरो और दूसरों से भी सुमिरन कराओ ।
मेरे गुरु अविनाशी मुनि ( अविनाशिरामजी ) ने यह सारा खेल किया है अर्थात् धर्म प्रचाररूप खेल करने का आदेश दिया है । उन्होंने ही वेद शास्त्र के अनुकूल ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बतलाया है ।
मेरे पास ज्ञान की गुदड़ी , क्षमा की टोपी , यतिपन ( त्याग , वैराग्य या यम - नियम ) का कमरकस और शीलता ( नम्र तथा सत्य व्यवहार ) की लँगोटी ( कौपीन ) है । अकाल ( देश - काल या मृत्यु से अलग रहनेवाला परमात्मा अथवा समय की ज्ञानहीनता ) मेरी कंथा - गुदड़ी है ; निराशा ही झोली है ; योग - युक्ति का अभ्यास ही टोप है और गुरुमुख से निकली हुई बोली ( उपदेश वाक्य ) ही मेरी बोली ( उपदेश वाक्य ) है अथवा परमात्मा रूपी सद्गुरु के मुख से निकली हुई बोली ( ज्ञान , वैदिक ज्ञान ) ही मेरी बोली ( ज्ञान ) है | वैदिक धर्म ही मेरा पहरावा ( कुरता ) है ; सत्य व्यवहार ही सेली ( काले ऊन से बना यज्ञोपवीत ) है और मर्यादा ( शिष्टाचार , सदाचार - पालन ) की मेखली ( गले में लपेटा जानेवाला कपड़ा ) मैंने गले में डाल रखी है । ध्यान का बटुआ है और अंतर की ओर सुरत की संलग्नता या प्रेमावेश में नृत्य करना ही सूईदान ( सूई रखने की डिबिया ) है । सुजान ( सुंदर ज्ञानवाले संत ) ब्रह्म ( परमात्मा ) का अँचला ( कटिवस्त्र , कमर का कपड़ा ) लेकर पहनते हैं । निर्लिप्त भाव से सृष्टि के कण - कण में व्याप्त रहनेवाला और बहुत रूप धारण करनेवाला परमात्मा मेरा मोरछल ( मयूर के पंखों का बना चँवर ) है अथवा बहुत रूप धारण करनेवाला परमात्मा मेरा मोरछल है और निर्लिप्त भाव से संसार में रहना ही मेरी बिसटी ( लँगोटी ) है । किसी से द्वेष न करना और निर्भयता ही जंगडोरा ( परमात्मारूपी चँवर को बाँधने की रस्सी ) है अथवा निर्भयता ही मेरी जंगमता ( घूमना - फिरना ) है और किसी से द्वेष नहीं करना ही डोरा है । जप करना जंगोटा ( मृगचर्म से बना लँगोटा ) है ; गुरु के सिफत ( गुण , विशेषता ) का गान करना ही मेरी उड़ान है । गुरुवाणी ( अनाहत नाद ) को प्रत्यक्ष करना ही सिंगी बजाना है । शर्म ( बुरे कर्म करने में लज्जा ) ही मुद्रा ( कान में पहना जानेवाला कुण्डल ) है ; शिव ( कल्याणकारी ) संकल्प ही भस्म है । गुरु ज्ञान से पवित्र हुए लोग हरिभक्तिरूपी मृगछाला लेकर पहनते हैं । ज्ञानरूपी गुदड़ी का सूत संतोष है और धागा विवेक है । उस ज्ञानरूपी गुदड़ी में शम - दम आदि अनेक गुणरूप कपड़े के अनेक टुकड़े बड़ी शोभा पाते हैं ।
प्रेम - रूपी सूई लेकर सद्गुरु गुदड़ी सीते हैं । उस गुदड़ी को जो धारण करता है , वह निर्भय हो जाता है । श्वेत , रक्त , पीत और श्याम ( ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र ) में से कोई भी , जो गुरु द्वारा सिली हुई उस गुदड़ी को धारण करता है , मेरा गुरुभाई है ।
त्रय गुणमयी जड़ प्रकृतिरूपी चकमक पत्थर को में ( रगड़कर ) अग्नि प्राप्त करता हूँ अर्थात् त्रय गुणात्मक संसार में साधन के द्वारा अंत : प्रकाश प्रकट करता हूँ और सुख - दुःख की धूनी ( तापने की आग ) में देह को जलाता हूँ अर्थात् संसार के सुख - दुःख आदि द्वन्द्वों को हृदय में सहन करता हूँ । संयम ( विषय - सुख और पापों से परहेजगारी ) का खप्पर लेकर शोभित होता हूँ । सद्गुरु के चरण कमलों में सदा मेरी सुरत लगी रहती है । प्रेम का भोजन अमृत के समान जानकर पाता हूँ और भला - बुरा मन में नहीं बसाता हूँ । विचार की फरुआ ( लकड़ी का बना हुआ भिक्षा माँगने का पात्र ) , कमंडल , तँबा और किश्ती ( चिप्पी , नारियल फल की खोपड़ी का बना हुआ बर्त्तन ) आदि बहुत प्रकार के पात्र हैं । हरिनाम रूप अमृत का जल इन पात्रों में मन के पीने के लिए रखता हूँ । जो इस जल को पीता है , उसका हृदय शीतल हो जाता है ।
चेतन - धारा इड़ा मार्ग ( बायीं ओर के मार्ग ) में आती है ( चलती है ) और पिंगला मार्ग ( दायीं ओर के मार्ग ) में भी दौड़ती है । दोनों मार्गों से चलनेवाल चेतन धाराओं को एक करके सुखमन के घर ( सुषुम्न विन्दु ) में स्वाभाविक रूप से समाविष्ट करे | निराशा के मंदिर में निरंतर ध्यान करे अर्थात् सांसारिक वस्तुओं से सुख पाने की आशा छोड़कर नित नियमित रूप से ध्यानाभ्यास करे । निर्भयता को अपना नगर बनाये और गुरु ज्ञान को दीपक मन की स्थिरता को ऋद्धि बनाये अर्थात् मन की स्थिरता में समृद्धि ( अलौकिक शक्ति या सम्पन्नता ) प्राप्त होती है । अमर पद ( परमात्म पद ) को डंडा ( दंड , लाठी ) बनाये ; धैर्य ( सुख - दुःख आदि द्वन्द्वों को सहने की शक्ति ) को कुदाली और तप ( धर्म पालन के लिए कष्ट सहन करने ) को खाँड़ा ( तलवार ) | मन - इन्द्रियों को वश करने को असा ( सोंटा ) बनाये और समदृष्टि ( समता भाव ) को चौगान ( घूमने - फिरने का - रमण करने का मैदान अथवा बैरागिन ) ; हर्ष - शोक को मन में कभी नहीं बसाये । वैराग्य की इच्छावाले स्वाभाविक रूप से वैराग्य धारण करे और माया तथा स्त्री आदि बाधक तत्त्वों का सर्वथा त्याग करे ।
हरिनाम को पाखर ( युद्ध में घोड़े या हाथी पर डाली जानेवाली लोहे की झूल ) बनाये और पवन ( श्वास - प्रश्वास - नियमन प्राणायाम ) को घोड़ा । निष्कर्मता ( फल की इच्छा छोड़कर कर्म करने के भाव ) को जीन ( पलान ) बनाये और पाँच तत्त्वों को जूते । निर्गुण ( त्रय गुण - रहित परमात्मा व चेतन तत्त्व ) को ढाल बनाये और गुरु उपदेश को धनुष । बुद्धि ( समझदारी ) को अपने शरीर का संजोइ ( कवच ) बनाये और हृदय के प्रभु - प्रेम को वाण । अक्ल ( बुद्धि ) के भाले और सद्गुणों की कटारी से मन को मारकर ( वशीभूत करके ) उसे अपनी बुद्धि के अनुसार चलाये । दुर्गम गढ़ ( नयनाकाश के दुर्भेद्य अंधकार ) को तोड़कर निर्भय घर ( ब्रह्मांड ) में आये और वहाँ नौबत ( शहनाई ) , शंख , नगाड़ा आदि बजायें अर्थात् इनकी ध्वनियाँ सुने । मेरे गुरु अविनाशी मुनि ही मेरे लिए सूक्ष्म वेद हैं अथवा मेरे गुरु अविनाशी मुनि हैं और वेदों में मेरा प्रिय वेद सूक्ष्म वेद ( सामवेद ) है । मेरी विद्या निर्वाण विद्या ( मोक्ष प्राप्त करने संबंधी ज्ञान ) है , जो अत्यंत रहस्यमयी है । ( गीता , अ ० १० में भगवान् श्रीकृष्ण ने भी कहा है कि वेदों में मैं सामवेद और विद्याओं में अध्यात्म - विद्या हूँ । )
अखंडित परमात्मा या आत्मा का अखंड आनंद जनेऊ है । हृदय या मन की निर्मलता या पवित्रता ही धोती है । सोहं जाप ( अनाहत नाद ) की सच्ची माला फिराता हूँ ( फेरता हूँ ) | गुरु मंत्र ही मेरी शिखा है ; हरनाम ( अनाहत नाद ) गायत्री मंत्र है । निश्चलता ( मन की स्थिरता , शांति ) के आसन पर विश्राम करता हूँ अथवा निश्चल आसन परमात्म - पद में विश्राम करता हूँ । संपूर्ण इच्छाओं का पूर्ण हो जाना ललाट का तिलक है अथवा संपूर्ण परमात्मा ( अवयव रहित ) परमात्मा ) ललाट का तिलक है और प्राणियों को अपने नम्र व्यवहार से तृप्ति देना ही यश है । प्रभु - प्रेम ही पूजा है और महारस ( परमानंद , परमात्मा का श्रेष्ठ आनंद ) ही भोग ( भोजन , आहार ) है । किसी से वैर भाव न रखना ही त्रैकालिक संध्याएँ ( उपासनाएँ ) हैं । परमात्मा के दर्शन ही छाप ( मोहर , भक्त द्वारा अपने शरीर में अंकित कराया जानेवाला भगवान् विष्णु के हथियार का चिह्न ) है । अपने अहंकार को मिटाना ही वाद - विवाद करना है । प्रेम पीताम्बर ( पीला वस्त्र ) है और मन मृगछाला चित्त ही चिदम्बर ( चिदाकाश , निर्मल चेतन आकाश ) है और रुणझुण ( अनाहत नाद ) ही जप की माला है । बुद्धि ही बाघम्बर ( बघछाला ) , कुलाह ( ऊँची नोकदार टोपी ) , पोस्तीन ( रोएँदार पशुओं की खाल से बना हुआ कोट ) और खौंस - खड़ाऊँ है- ऐसा विचार में लेना चाहिए । तोड़ा ( सोने या चाँदी की गले में पहनी जानेवाली सिकड़ी ) , चूड़ा ( हाथ में पहनने का आभूषण , कंकण ) और जंजीर लेकर नानकशाही फकीर पहने या न पहने - ऐसा कोई बंधन नहीं है । सिर पर मुक्ति का जटाजूट ( जटाओं का समूह ) हो और मुक्त होकर विचरे ; अपने ऊपर कोई बंधन नहीं रखे अथवा सिर पर जटाजूट का मुकुट रखकर विचरे या जटाजूट से मुक्तशिर होकर विचरे , इसमें कोई बंधन नहीं है ।
गुरु नानकदेवजी के पुत्र बाबा श्रीचन्दजी कहते हैं कि युक्ति ( योग - युक्ति ) को पहचानकर ( जानकर ) परमात्म तत्व की छानबीन ( खोज ) करे । ऐसी ( ऊपर कही गयी ) मात्राएँ ( आभूषण , पहरावे ) जो कोई पहनता है- धारण करता है , वह अपना आवागमन मिटा डालता है । ∆
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संतवाणी-सुधा-सटीक पुस्तक में उपरोक्त वाणी निम्न चित्र की भांति प्रकाशित है-
संतवाणी-सुधा सटीक |
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