महर्षि मेँहीँ पदावली / 05
प्रभु प्रेमियों ! संतवाणी अर्थ सहित में आज हम लोग जानेंगे- संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "महर्षि मेँहीँ पदावली" जो हम संतमतानुयाइयों के लिए गुरु-गीता के समान अनमोल कृति है। इस कृति के 5 वें पद्य "अव्यक्त अनादि अनन्त अजय,.....'' का शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी के बारे में । जिसे पूज्यपाद लालदास जी महाराज नेे किया है।Praise and attention of ॐ, "अव्यक्त अनादि अनन्त अजय,...' शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी
प्रभु प्रेमियों ! सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के मुखारविंद से स्वत: स्फूर्त इस ओंकार की महिमा वाले पदावली भजन नंबर 5 की बड़ी महिमा है। इस भजन, कविता, गीत, भक्ति भजन, पद्य, वाणी, छंद का गायन करते हुए ऐसा लगता है कि महारी अंतरआत्मा से एक प्रभाव मय ध्वनि निकल रही है, जो हमारी तन-मन को प्रफुल्लित कर रहा है. इस ओंकार पद्य की स्तुति, कथा-कीर्तन, ध्यान, उत्पत्ति और इसके विशेष चिंतन का अपार फल मिलता है. इसका सही उच्चारण साधक साधना में ही कर और सुन सकते हैं. इसका ध्यान करने से परमात्मा की प्राप्ति होती है.
शब्दार्थ -
शब्दार्थकार- बाबा लालदास जी |
महर्षि मेँहीँ सद्गुरु |
पू. लालदास जी महाराज |
आदिसृष्टि के पूर्व परमात्मा से निकली हुई चेतन ध्वनि को वही धारा स्फोट कहलाती है ; दूसरी और कोई ध्वनि नहीं । वही उद्गीथ , ब्रह्मनाद , शब्दब्रह्म और ओम् भी कही जाती है । अत्यन्त मीठी प्रणव ध्वनि की धारा वही है और परमात्मा का सच्चा चिह्न भी वही है ॥२ ॥
परम प्रभु परमात्मा का ध्वन्यात्मक नाम वही है ; सारशब्द और सत्शब्द आदि नामों से भी वही जानी जाती है । वह अपरिवर्तनशील , ज्ञानमयी और कर्ण इन्द्रिय से नहीं सुनी जा सकनेवाली है । इन्द्रियों के ग्रहण में आनेवाले सभी पदार्थों में व्यापक ध्वनि वही है ॥३ ॥
समस्त प्रकृति - मंडलों में व्याप्त होकर रहनेवाली वही ध्वनि रामनाम भी कहलाती है । साधना के द्वारा अपने शरीर के अन्दर पकड़े जाने पर सबकी सुरत को अपने उत्पत्ति - केन्द्र ( परमात्मा ) की ओर खींचनेवाली होने से वही हरिनाम और कृष्णनाम भी कहलाती है । वही परमात्मा की अत्यन्त बड़ी शक्ति है ; कल्याणकारी होने के कारण वही शिवनाम और शंकरनाम भी कही जाती है । त्रयतापों को हर लेनेवाली होने के कारण वही हरनाम भी कहलाती है ।।४ ।।
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ |
त्रय गुणों ( सत्त्व , रज और तम ) से विहीन और रामनाम ( परम प्रभु परमात्मा का सच्चा नाम ) वही है । मुँह से उच्चारित नहीं की जा सकनवाली , अपार और सभी इच्छाओं को पूर्ण कर देनेवाली ध्वनि वही है । वह स्वर - व्यंजन वर्णो से नहीं बना हुआ अर्थात् ध्वन्यात्मक , नाद - रहित ( जड़ात्मक मंडलों के ध्वन्यात्मक शब्दों से भिन्न ) अथवा मुँह से नहीं उच्चारित होनेयोग्य और निर्मल चेतन ध्वनि का समुद्र है अर्थात् अपार निर्मल चेतन ध्वनि है ।।५ ।।
गुरु नानकदेवजी द्वारा कहा हुआ'१ ॐ सत्नाम ' भी वही है । ऋषियों के द्वारा ध्यान किया हुआ परम प्रभु परमात्मा का नाम वही है । इसी तरह पूरे मुनियों ( सन्तों ) द्वारा ध्यान किया हुआ गुरुनाम ( आदिगुरु परमात्मा का नाम ) भी वही है । सद्गुरु महर्षि में ही परमहंसजी महाराज कहते हैं कि परम प्रभु परमात्मा के इसी ओम् कहलानेवाले अत्यन्त सूक्ष्म ध्वन्यात्मक नाम का भजन ( ध्यान ) करो ।।६ ।।
टिप्पणी -
टिप्पणीकार- लालदा |
३. वैयाकरणों ने आदिशब्द की व्याख्या ' स्फोट ' नाम से की है । वे इसको शब्दब्रह्म भी कहते हुए इसकी एकता श्रीमदाद्य शंकराचार्य के अद्वैत ब्रह्म से बतलाते हैं । जो किसी अर्थ ( प्रयोजन , अभीष्ट , प्राप्तव्य ) को प्रकट कर दे वा प्राप्त करा दे , उसे स्फोट कहते हैं । आदिनाद परमात्मा का साक्षात्कार करा देता है , इसीलिए वह स्फोट कहलाता है ।
४. अत्यन्त मधुर आदिनाद बहुत तीव्र स्वर में सृष्टि के अन्तस्तल में निरन्तर ध्वनित हो रहा है , मानो वह परमात्मा द्वारा तीव्र स्वर में गाया गया कोई मधुरतम गीत हो । आदिनाद को उद्गीथ या उद्गीत कहने का यही कारण है ।
५. अ , उ और म् को संधि से बना ' ओम् ' शब्द मुंह के उच्चारण के सभी स्थानों को भरते हुए उच्चरित होता है । ऐसा कोई दूसरा शब्द नहीं है । ध्वन्यात्मक आदिनाद भी संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त होकर ध्वनित हो रहा है । इसीलिए ' ओम् ' शब्द ध्वन्यात्मक आदिनाद का सबसे अच्छा वाचक माना गया ।
६. साधक जिसको नमन करे अर्थात् जिसको पाने की इच्छा करे , उसे प्रणव कहते हैं । साधक अनहद ध्वनियों के बीच आदिनाद को पकड़ने की इच्छा करता है । ' प्रणव ' ( प्र + नव ) का इस तरह भी अर्थ करना अनुचित नहीं है कि जो प्रकृति से उत्पन्न संसार - महासागर को पार कराने के लिए नाव के समान है अथवा जो साधक को प्रकृष्ट रूप से नवीन ( शुद्धस्वरूप अथवा शिवस्वरूप ) कर दे ।
७. प्रतीक का अर्थ है चिह । किसी वस्तु का चिह्न वह है जो उसकी पहचान करा दे । आदिनाद पकड़े जाने पर परमात्मा की प्रत्यक्षता करा देता है । इसीलिए वह परमात्मा का सच्चा चिह्न है ।
8 . जो शब्द स्वर - व्यंजन वाँ से बना होता है , उसे वात्मक शब्द कहते हैं । जैसे - आम , राम , गाय आदि । इसके विपरीत जो शब्द वर्णो से नहीं , ध्वनि से बना होता है , उसे ध्वन्यात्मक शब्द कहते हैं ; जैसे - पशु - पक्षी और वाद्ययंत्र की आवाज , वस्तुओं के गिरने से उत्पन्न आवाज आदि । परमात्मा का असली नाम ध्वन्यात्मक ही है ।
९ . आदिनाद कर्ण इन्द्रिय से नहीं , सुरत से सुना जाता है । ।
१०. जड़ - चेतन - दोनों प्रकृतियों के बनने के पूर्व ही आदिनाद उदित हुआ है , इसीलिए वह दोनों प्रकृति - मंडलों में व्यापक है ; और दोनों प्रकृति - मंडलों के फैलाव से अधिक फैलाव रखने के कारण ही वह अगम - अपार भी कहलाता है ।
११. आदिनाद परमात्मा की अत्यन्त बड़ी शक्ति है ; इसीसे वह सृष्टि करता है ।
बाबा लालदास |
१२. घोष का अर्थ होता है - ध्वन्यात्मक शब्द ; जैसा कि रथघोष , शंखघोष आदि शब्दों से पता चलता है । आदिनाद को अघोष ( घोष - रहित , नाद - रहित ) इसलिए कहते हैं कि वह जड़ात्मक मंडल का ध्वन्यात्मक शब्द नहीं है , परमालौकिक चेतन ध्वनि है । व्याकरण में घोष वर्ण उसे कहते हैं , जिसके उच्चारण में गले की स्वरतंत्री में कंपन होता है ; जैसे - ग , घ , ङ , ज , झ , ब आदि । इसके विपरीत जिस वर्ण के उच्चारण में गले की स्वरतंत्री में कंपन नहीं होता है , उसे अघोष वर्ण कहते हैं ; जैसे क , ख , च , छ , ट , ठ आदि । आदिनाद भी किसी पदार्थ के कंपन का परिणाम नहीं है । ब्रह्माण्ड पुराणोत्तर गीता ' में भी आदिनाद को अघोष ( नाद - रहित ) , स्वर - व्यंजन - रहित और मुँह के उच्चारण - अवयवों से नहीं उच्चारित होनेयोग्य बताया गया है ; देखें- " अघोषमव्यंजनमस्वरं च अतालुकण्ठोष्ठमनासिकं च । अरेफजातं परमुष्मवर्जितं तदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।। "
१३. त्रयगुणात्मिका मूल प्रकृति के बनने के पूर्व ही आदिनाद उत्पन्न हुआ है , इसलिए वह सगुण नहीं - निर्गुण है और निर्गुण होने से वह दोप - रहित ( निर्मल , विकारहीन ) कहलाता है ।
१४. आदिनाद में जिनकी सुरत लग जाती है , वे ही ऋषि या सन्त कहलाने के अधिकारी हैं ।
१५. दूर की वस्तु के लिए ' वह ' सर्वनाम प्रयुक्त होता है ; परन्तु जब उसकी बहुत चर्चा हो चुकी होती है , तब उसके लिए ' यह ' का भी प्रयोग किया जा सकता है
१६. उपनिषद् में आदिनाद को ओम् , उद्गीथ , प्रणव आदि कहा गया है । संतवाणी में इसे सतशब्द , सत्नाम , सारशब्द , आदिनाम आदि कहकर अभिहित किया गया है । ध्वन्यात्मक आदिनाद अद्वितीय ध्वनि है ।
१७. पाँचवें पद्य को दुर्मिल सवैया में बाँधने का प्रयास किया गया है । दुर्मिल सवैया में आठ सगण ( ॥ऽ ) होते हैं ।। ∆
महर्षि मेँहीँ पदावली.. |
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